श्वासोच्छ्वास को प्रभावित करने वाले कारक (Factors Affecting Breathing)| in hindi


श्वासोच्छ्वास को प्रभावित करने वाले कारक (Factors Affecting Breathing)

श्वासोच्छ्वास को प्रभावित करने वाले कारक (Factors Affecting Breathing)| in hindi

1. हेरिंग-बूएर रिफ्लेक्स (Hering-Breuer Reflex): फेफड़ों के श्वसनिकाओं (bronchioles) तथा श्वसनियों (bronchi) की दीवार में stretch receptors होते हैं। व्यायाम आदि के समय तीव्र गति से व गहरा साँस लेने के कारण जब फेफड़े सामान्य से अधिक फूल जाते हैं तो ये रिसेप्टर्स feedback control द्वारा inspiratory centre को Expiration के लिए उद्दीपन भेजने से रोकते हैं। इस प्रकार बनी प्रतिवर्ती प्रतिक्रिया को हेरिंग-बूएर रिफ्लेक्स कहते हैं। अतः यह चाप फेफड़ों को बहुत अधिक फूलने से रोकती है। इन उद्दीपनों से Expiration का समय भी कम हो जाता है जिससे श्वसन दर बढ़ जाती है।


2. रासायनिक कारक (Chemical Factors): Blood में हाइड्रोजन आयनों की सान्द्रता (अर्थात् रुधिर का pH), CO₂ की अधिकता या O2 की कमी Inspiratory Centre को उद्दीप्त करके श्वसन दर को आवश्यकतानुसार बदलती है। धमनी तन्त्र (arterial system) की वाहिनियों में रसायन संवेदी कोशिकाओं (chemoreceptor cells) के तीन समूह होते हैं। ये शुद्ध रुधिर में उपर्युक्त पदार्थों की मात्रा के घटने या बढ़ने से उद्दीप्त होते है। इन कोशिकाओं का एक समूह बाह्य ग्रीवा धमनी (external carotid artery) में स्थित होता है। इसे ग्रीवा काय (carotid body) कहते हैं। बाकी बचे दो समूह ग्रीवा-दैहिक चाप (carotico-systemic arch) में स्थित होते हैं और धमनी काय (aortic bodies) कहलाते हैं।

Pure blood में 02 की कमी या CO₂ की अधिकता होने या रुधिर की अम्लीयता बढ़ने पर रसायन संवेदी कोशिकाएँ श्वसन केन्द्रों को उद्दीपित करती हैं जिससे श्वसन दर बढ़ जाती है। इसके विपरीत शुद्ध रुधिर में ऑक्सीजन की अधिकता या CO₂ की सान्द्रता में कमी होने पर ये केन्द्रक न्यूमोटैक्सिक केन्द्र को उत्तेजित करते हैं जिससे श्वसन गति धीमी हो जाती है।

रसायन संवेदी कोशिकाओं के समूहों के अलावा मैड्यूला के अधर भाग में श्वसन केन्द्रक के निकट एक स्वायत्त तन्त्रिका केन्द्र होता है। यह रुधिर में CO₂ की सान्द्रता में होने वाले परिवर्तनों से उत्तेजित होता है। इससे प्रेरणाएँ श्वसन केन्द्र को पहुँचती हैं जो श्वसन दर का नियन्त्रण करती हैं।

3. उत्तेजक पदार्थ (Irritants): Nasal Cavities से लेकर Respiratory tract की श्लेष्मिक झिल्ली में संवेदी कोशिकाएँ होती हैं। ये उत्तेजक पदार्थों जैसे मिर्च, धूल, धुँआ व विषैली गैसों से उद्दीपित हो जाती हैं जिसकी प्रतिवर्ती प्रक्रिया (reflex action) के रूप में हमें छींक या खाँसी होती हैं।



- पहाड़ों की ऊँचाई पर वायु संवातन (Effect of Height on Ventilation)

समुद्र की सतह से ऊपर उठते जाने पर वायु का घनत्व (density) कम होता जाता है और इसमें उपस्थित गैसों का वायु दाब भी कम होता है। अतः पहाड़ पर चढ़ते हुए ऊँचाई के साथ-साथ O₂ की मात्रा कम होती जाती है। शरीर में इसकी कमी के कारण साँस फूलने (hypoxia) लगती है और साँस दर बढ़ जाती है।

1. 3,500-4,000 मीटर की ऊँचाई पर O₂ की अधिक कमी के कारण थकावट, शिथिलता, सिरदर्द व मितली आदि का आभास होता है।

2. 5,000-6,000 मीटर की ऊँचाई पर शरीर के रुधिर से CO₂ के निकल जाने से pH बढ़ जाता है जिससे श्वसन दर 65% (लगभग 20 बार प्रति मिनट) बढ़ जाती है।

अधिक समय तक पहाड़ों की ऊँचाई पर रहने पर दशानुकूलन (acclimatization) के कारण रुधिर में RBCs की संख्या, अर्थात् हीमोग्लोबिन की मात्रा, रुधिर की ऑक्सीजन परिवहन क्षमता, ऊतकों में रुधिर की सप्लाई तथा कोशिकाओं की ऑक्सीजन ग्रहण करने की क्षमता बढ़ जाती है। रुधिर में CO₂ की मात्रा बढ़ जाती है तथा pH घट जाती है।

3. 6,000 मीटर से अधिक की ऊँचाई पर हवा का घनत्व इतना कम हो जाता है कि 7,000 फीट से अधिक की ऊँचाई पर पहुँचते- पहुँचते व्यक्ति को मूर्छा आने लगती है। यही कारण है कि पर्वतारोहियों को O2 के सिलिन्डर की आवश्यकता होती है।

4. 11,000 मीटर या उससे अधिक ऊँचाई पर ऑक्सीजन सिलिन्डर से भी काम नहीं चलता। इसी कारण हवाई जहाज वायुरुद्ध बनाये जाते हैं।



- खाँसना (Coughing)

खाँसना जीवन के लिए आवश्यक तथा तन्त्रिकीय नियन्त्रण में होने वाली एक प्रतिवर्ती क्रिया है, जो वायु मार्ग की सफाई के लिए होती है। जब कोई बाह्य पदार्थ, वायुनाल या ब्रौंकाई या वायुकोष्ठ में किसी प्रकार से पहुँच जाता है तो यह इसे उद्दीप्त कर देता है। फलतः खाँसी आती है और इसके द्वारा बाह्य पदार्थ को बाहर निकाल दिया जाता है। 

खाँसी आने से पहले करीब 2.5 लीटर वायु को फेफड़ों के अन्दर लिया जाता है। इसके बाद घांटीद्वार (glottis) तथा स्वर तन्तु (vocal cords) बन्द हो जाते हैं जिसके फलस्वरूप Exhalation रुक जाता है। अब उदर (abdomen) तथा अन्तः अन्तरापर्शुक पेशियाँ (internal intercostal muscles) तेजी से संकुचित होती हैं जिसके कारण फेफड़ों में वायु का दबाव बहुत अधिक (लगभग 100 मिमी Hg) हो जाता है और घांटीद्वार तथा स्वर तन्तु अचानक खुल जाते हैं। फलतः वायु अधिक दबाव से बाहरी पदार्थ के साथ आवाज करते हुए बाहर निकल जाती है। इसी आवाज को खाँसी कहते हैं।



- छींकना (Sneezing)

छींकना भी खाँसने के ही समान तन्त्रिकीय नियन्त्रण में होने वाली एक प्रतिवर्ती क्रिया है, जो तब होती है जब नासामार्ग (nasal passage) उद्दीप्त होता है। इस क्रिया में नासापथ (nose path) के उद्दीप्त होने पर पहले फेफड़ों के अन्दर वायु भरी जाती है और फिर यह वायु उदर तथा अन्तःअन्तरापर्शक पेशियों (internal intercostal muscles) के संकुचन से आवाज करते हुए तेजी से नासापथ से होते हुए बाहर आती है जिसे छींक कहते हैं।



निश्वसित या प्रश्वसित वायु का निस्यन्दन तथा वातानुकूलन (Filtration and Air Conditioning of Inspired Air)

वायुमण्डलीय वायु Expiration के समय श्वसन पथ से गुजरकर फेफड़ों की वायु कूपिकाओं (alveoli) में भरती है। Respiratory tract में नथुने, नासा गुहाएँ (nasal passages), ग्रसनी (pharynx), स्वरयन्त्र (larynx), श्वासनली (trachea), श्वसनियाँ (bronchi) तथा श्वसनिकाएँ (bronchioles) सम्मिलित होते हैं।

1. निस्यन्दन (Filtration): नासिका के अगले भाग या प्रकोष्ठ (vestibule) में बाल होते हैं। वायु से सूक्ष्म जीवाणु (bacteria), बीजाणु (spores) तथा धूल के कण इन बालों में उलझ कर अलग हो जाते हैं। बचे हुए कण व जीवाणु वायुमार्ग के शेष भाग में फैले हुए चिपचिपे श्लेष्म (mucus) में फँस जाते हैं। इस प्रकार निश्वसित वायु छनकर ही फेफड़ों की वायु कूपिकाओं में पहुँचती है।

श्वसन पथ की म्यूकस मेम्ब्रेन में रोमाभी कोशिकाएँ (ciliated cells) होती हैं। इनके रोमाभ (cilia) जीवाणुयुक्त म्यूकस को ग्रसनी की ओर धकेलते हैं। आहारनाल में पहुँचने पर इनका पाचन हो जाता है। कभी-कभी बैक्टीरियायुक्त श्लेष्म खाँसी के साथ कफ के रूप में मुख गुहा में आ जाता है। फेफड़ों की वायु कूपिकाओं (alveoli) की दीवार में भक्षी कोशिकाएँ (macrophages or phagocytes) होती हैं। इन्हें डस्ट कोशिकाएँ (dust cells) भी कहते हैं। जो कुछ धूल के कण छनी हुई निश्वसित वायु में बचे रह जाते हैं, इन्हें डस्ट कोशिकाएँ ग्रहण करके नष्ट कर देती हैं।


2. ताप नियमन (Temperature Regulation) : बाहरी वायु का ताप फेफड़ों में पहुँचने से पहले शरीर के ताप के बराबर होना आवश्यक है ताकि फेफड़ों को कोई नुकसान न हो। श्वसन पथ की दीवार में रुधिर केशिकाओं का जाल होता है। इसे रुधिर तथा श्लेष्म की मदद से निश्वसित वायु को ताप देकर या लेकर शरीर के ताप के बराबर कर दिया जाता है।


3. आर्गीकरण (Humidification) : बाहर से प्रवेश करने वाली वायु के शुष्क होने पर यह श्लेष्म का जल सोखकर जलवाष्प से  संतृप्त हो जाती है।


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