हानिकारक कीट क्या होते हैं(HARMFUL INSECTS):उनका अध्ययन,कीट नियंत्रण की विधि


हानिकारक कीट (HARMFUL INSECTS)

हानिकारक कीट क्या होते हैं(HARMFUL INSECTS):उनका अध्ययन,कीट नियंत्रण की विधि

हानिकारक कीट क्या होते हैं?
ऐसे कीट जो मनुष्यों तथा जीव जंतुओं को हानि पहुंचाते हैं हर स्टार पर वे हानिकारक कीट (Harmful Insects) कहलाते हैं। लेकिन ऐसा हो सकता है कि किसी मनुष्य को कीटों द्वारा सीधी व्यक्तिगत हानि न हुई हो, लेकिन ऐसा कोई नहीं होगा जिसने अनाज में घुन, सब्जियों में गिडार (caterpillar larva), घरों में मक्खी या मच्छर तथा खेतों-बगीचों में टिड्डियाँ आदि न देखी हों। इससे हमें कीटों की हानि पहुँचाने की विशाल क्षमता का पता चलता है। यद्यपि इनकी लगभग 1.4% जातियाँ ही मनुष्य के लिए हानिकारक होती हैं, लेकिन यही हमें बहुत बड़ी और विविध प्रकार की हानि पहुँचा देती हैं। कीटों के बारे में विस्तार से जानने के लिए हमारे इस लेख को पढ़े - कीट क्या होते हैं?

इन हानिकारक कीटों को हम तीन प्रमुख श्रेणियों में बाँट सकते हैं—

1. कृषि के लिए हानिकारक कीट
2. मनुष्य तथा पालतू पशुओं के लिए हानिकारक कीट
3. संग्रहित खाद्य पदार्थों तथा अन्य उपयोगी वस्तुओं के विनाशकारी कीट


1. कृषि के लिए हानिकारक कीट (Crop Pests)
मनुष्य भोजन के लिए कृषि द्वारा भूमि से अनाज, फल, सब्जी आदि पैदा करता है, लेकिन कोई फसल ऐसी नहीं होती जिससे अनेक प्रकार के कीट अपना भोजन प्राप्त न करते हो। पेड़-पौधों की जड़ों, तनों, पत्तियों, कलियों, फूलों, बीजों, आदि सभी पर विभिन्न प्रकार के कीट आक्रमण करते हैं। सम्भवतः कीट हमारी एक तिहाई फसल के भागीदार बन जाते हैं। इससे हमारे देश को लगभग 500 करोड़ और अकेले उत्तर प्रदेश को लगभग 50 करोड़ रुपयों की हानि प्रतिवर्ष होती है।

 कुछ कीट ऐसे होते हैं जो पौधों के विभिन्न भागों को गाय,
कृषि के लिए हानिकारक कीटों को हम पाँच श्रेणियों में बाँट सकते हैं-

(A) पौधों को कुतरने वाले कीट (Chewing Plant Pests)- बकरी की भाँति चबाकर खा जाते हैं। इनमें से कुछ कीटों का वर्णन इस प्रकार है-
  • टिड्डी (Locust; Schistocerca) - टिड्डी एक ऐसे कीट होते हैं जो पूरे-पूरे खेतों की फसलों को खाकर चट कर देते हैं। इन फसलों को खाकर चट कर देने वाले टिड्डी दलों (locust swarms) की सूचना मात्र से किसानों के छक्के छूट जाते हैं। एक-एक दल में करोड़ों टिड्डियाँ होती हैं। लोगों ने 300 मील लम्बे, 100 मील चौड़े और 1 मील मोटे तक टिड्डी दल देखे हैं। जहाँ ये उतर जाते हैं, मीलों तक खेतों में पौधों का नामो-निशान नहीं रहता। इन्हीं खेतों में मादा टिड्डियाँ उदर भाग को 2 से 5 सेमी तक मिट्टी में धँसाकर एक बार में लगभग 20, और पूरे मौसम में 5 से 10 बार में लगभग 100 से 200 अण्डे देती हैं और गड्ढ़ों के द्वार को ऐसे पदार्थ से बन्द कर देती हैं जिस पर मौसम का प्रभाव नहीं होता। सब अण्डे देने के बाद मादाएँ मृत होकर समाप्त हो जाती हैं। अण्डों से तीन-चार सप्ताह में पंखहीन बच्चे निकलते हैं जिन्हें निम्फ या हॉपर (nymphs or hoppers) कहते हैं। ये 5 या 6 बार त्वपतन (ecdysis) करके दो-तीन महीनों में वयस्क बन जाते हैं। कुछ जातियों की टिड्डियों में पंख अनुपस्थित या अर्धविकसित होते हैं। अतः ये टिड्डियाँ एकाकी और स्थानीय होती हैं। कुछ में पंख विकसित होते हैं। किसी क्षेत्र में पंखयुक्त टिड्डियों की संख्या अत्यधिक बढ़ जाने पर ही ये दल बनाकर देशान्तरण (migration) करती हैं। खरीफ की फसलों, मुख्यतः चावल की पत्तियों एवं कोमल दानों को खाने वाली हरी टिड्डियाँ (grass hoppers), सभी खेतों में मिलती हैं।
  • आलू कटवी या कजरा पिल्लू (Potato or Gram Cutworm – Agrotis): यह मटमैला-सा पतंगा (moth) होता है जो रबी की फसलों जैसे- गोभी, तम्बाकू, मूँगफली, गेहूँ, मटर, आलू, आदि के पौधों के तनों को भूमि के पास से चबाकर नष्ट कर देता है।
  • लाल कद्दू बीटल (Red Pumpkin Beetle— Raphidopalpa foueicollis) : यह तरबूज, सीताफल या कद्दू, ककड़ी, तोरई, लौकी, खीरा, टिण्डा आदि की पौध को खाकर नष्ट कर देता है।

(B) पौधों का रस चूसने वाले कीट (Piercing-sucking Plant Pests)- कुछ कीट ऐसे होते हैं जिनके पास शुण्डनुमा मुख-उपांग होते हैं । यह कीट अपने मुख-उपांगों को कोमल पौधों में चुभोकर उसका रस चूसते हैं। इससे पौधे सूखकर समाप्त हो जाते हैं। इसके अंतर्गत कई प्रकार के कीट आते हैं जिनका वर्णन इस प्रकार है-
  • कपास का झाँगा (Red Cotton Stainer– Dysdercus): यह खटमल जैसा एक लाल रंग का कीट होता है जो कपास के पौधों की पत्तियों, डोडी एवं बीजों का रस चूसता है। इससे कपास में धब्बे पड़ जाते हैं। यह तम्बाकू, भिण्डी, शकरकन्द, आदि के कच्चे बीजों का भी रस चूसता है। 
  • गन्नापर्ण फुदकी–पाइरिला (Sugar-cane Leaf Hopper Pyrilla) : यह एक छोटा-सा पतंगा होता है जो गन्ने की पत्तियों एवं तने का रस चूसता है। इसकी गिडार गन्ने में जगह-जगह सूराख बना देती है। इससे गन्ने की वृद्धि रुक जाती है और वह सूखा-सा हो जाता है।
  • गन्ने की लाही (Sugarcane White Fly-Aleurolobus ) : यह एक प्रकार की मक्खी होती है जो गन्ने का रस चूसती है।
  • चावल की गंधी (Rice Bug Leptocorisa): यह खटमल जैसा ही एक बग होता है जो धान की बालियों के कच्चे बीजों का रस चूसकर उन्हें नष्ट कर देता है।
  • गोभी का चेंपा (Cabbage Aphid) : यह कीट गोभी, सरसों, आदि के तनों एवं फलों का रस चूसता है। ऐसा ही एक चंपा सरसों, मूली, आदि के पौधों पर पाया जाता है।
  • काला सुंडर (Painted Bug- Bagrada): यह धब्बेदार, काला-सा बग होता है जो शलजम, मूली, गाजर, गोभी, आदि की पत्तियों और टहनियों का रस चूसकर इन्हें सुखा देता है।
  • आम का तेला या लासी (Mango-Leaf Hopper – Idiocercus ) : यह बग आम की कोमल टहनियों और कलियों का रस चूसता है। इससे आम की बौर नष्ट हो जाती है।

(C) पौधों में धँसकर इन्हें खोखला बनाने वाले कीट (Plant Borers)- अनेक प्रकार के कीट ऐसे होते हैं जिनके कैटरपिलर (caterpillar larvae) पेड़-पौधों के भागों में घुसकर इन्हें खोखला कर देते हैं। इससे पौधे सूखकर नष्ट हो जाते हैं। इनमें से कुछ मादाएँ तो अण्डों का ही रोपण पौधों के भीतर कर देती हैं तथा कुछ की लार्वी कुतरकर भीतर धँसती हैं। इनमें से कुछ का वर्णन इस प्रकार है-
  • कपास की सुरही (Spotted Bollworm – Earias) तथा कपास का कीड़ा (Pink Bollworm-Pectinophora) : इन पतंगों की लार्वी कपास के फूलों, फलों एवं बीजों में घुसकर इन्हें खोखला बना देती हैं। जिससे कपास की फसल पूरी की पूरी बर्बाद हो जाती है।
  • ईख की गिडार (Sugar-cane Stem Borer – Argyria) : यह भी एक प्रकार का पतंगा होता है। इसकी लार्वी ईख एवं बाजरे के तने को भीतर से खोखला कर देती हैं।
  • मक्का बेधक (Corn Borers Chilo and Pyrausta) : इन पतंगों की लार्वी मक्का एवं ज्वार, आदि के तनों को खोखला बनाती हैं।
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  • चने की गिडार (Gram Caterpillar-Heliothis ) : इस पतंगें की लाव चने, अरहर, टमाटर, तम्बाकू, आदि के तनों को खोखला बनाती हैं।
  • गेहूँ की हेसियन मक्खी (Hessian Fly of Wheat Phytophaga ) : यह एक प्रकार की छोटी मक्खी होती है। इसकी लार्वी गेहूँ के तने में घुसकर इसे खोखला बनाती हैं।

(D) पौधों में अण्डारोपण करने एवं घोंसला बनाने वाले कीट (Egg-laying Plant Pests)- कई प्रकार के कीट पौधों के तनों आदि में दरारें बनाकर उसमें अण्डारोपण करते हैं। इससे पौधों को कोई महत्त्वपूर्ण हानि तो नहीं होती, क्योंकि अण्डों से निकलने के बाद शिशु कीट पौधों को छोड़ देते हैं। फिर भी पौधे का जितना भाग अण्डारोपण के लिए तैयार किया जाता है वह बेकार हो जाता है। कुछ कीट फसली पौधों की कोमल पत्तियों के टुकड़े तोड़ तोड़कर इनसे घोंसला बनाते हैं। इनमें पत्ती को काटने वाली चींटी तथा मक्खी (leaf-cutter ants and beetles) प्रमुख है।

(E) पौधों की बीमारियों को फैलाने वाले कीट (Disseminators of Plant Diseases)- पौधों में वायरस (virus), फफूँदी (fungi) एवं जीवाणुओं (bacteria) द्वारा लगभग 200 संक्रामक रोग होते हैं। इन्हें फैलाने का कार्य कीट ही करते हैं।

कीटों के बारे में विस्तार से जानने के लिए हमारे इस लेख को पढ़े - कीट क्या होते हैं?

2. मनुष्य एवं पालतू पशुओं के लिए हानिकारक कीट (Insects harmful to humans and pets)
इन्हें निम्नलिखित चार श्रेणियों में बाँटा जा सकता है—

(A) खिजाने वाले कीट (Annoying Insects)- अनेक प्रकार के कीट मनुष्य तथा पालतू पशुओं के सहवासी होते हैं, जैसे कि हमारे घरों में कॉकरोच, लाल व काली चीटियाँ, झींगुर, आदि। रात में प्रकाश के पास कई प्रकार के कीट आते हैं। बरसात में इनकी संख्या बहुत बढ़ जाती है जिसके कारण खाना-पीना एवं अनन्या काम करना कठिन हो जाता है। इन कीटों से मनुष्य को कोई खास हानि नहीं होती, परन्तु इनकी गन्ध तथा शरीर से इनका स्पर्श अच्छा नहीं लगता। इससे मनुष्य एवं पशु खीज उठते हैं।
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(B) जहरीले कीट (Venomous Insects)- कुछ कीट जहरीले होते हैं। इनसे मनुष्य एवं पशुओं को शारीरिक पीड़ा हो जाती है। ततैया या मधुमक्खी के डंक (sting) का अनुभव बहुत कटु होता है। चींटी, मच्छर, आदि के काटने से भी खुजली व जलन होती है। बरसात में प्रकाश के पास आने वाली ब्लिस्टर बीटल (Blister beetle Lytta) हमारे शरीर के सम्पर्क में दब जाती है तो इसके शरीर से निकले स्राव से हमारी त्वचा पर फफोले पड़ जाते हैं जिनमें जलन होती है।

(C) परजीवी कीट (Parasitic Insects)- कुछ कीट मनुष्य तथा पालतू पशुओं के शरीर को ही अपना घर बना लेते हैं और उन्हीं से भोजन प्राप्त करते हैं। इन्हें परजीवी (parasitic) कीट कहते हैं। इनकी दो श्रेणियाँ होती हैं-
(a) बाह्य परजीवी (Ectoparasites)
(b) अन्तःपरजीवी (Endoparasites )

(a) बाह्य परजीवी (Ectoparasites) : ये मनुष्य एवं पालतू पशु-पक्षियों के शरीर पर बाहर रहने वाले और समय-समय पर रुधिर चूसने वाले कीट होते हैं। इनमें से कुछ का वर्णन इस प्रकार है-

  • जूँ (Louse—Pediculus) : ये मनुष्य एवं पालतू पशुओं के बालों तथा पक्षियों के पंखों के बीच पाए जाने वाले चपटे, पंखहीन कीट होते हैं। मनुष्य में इनकी दो जातियाँ पाई जाती हैं—सिर की जूँ (Pediculus humanus capititis) तथा धड़ की जूँ या चीलर (Pediculus humanus corporis)। रुधिर चूसने के अतिरिक्त, ये कुछ घातक रोगों को भी फैलाती हैं। इनके रेंगने से सिर में या शरीर पर खुजलाहट एवं बेचैनी होती है।
  • पिस्सू (Fleas—Xynopsylla) : ये पार्श्वों में चपटे, पंखहीन, फुदकने वाले कीट होते हैं। ये भी स्तनीय जीवों के बालों और पक्षियों के परों के बीच में पाए जाते हैं और रुधिर चूसते हैं। चूहे का पिस्सू (Rat flea) मनुष्य में प्लेग (plague) नामक महामारी फैलाता है। मनुष्य का पिस्सू तो त्वचा को जगह-जगह नोंचकर घाव बना देता है।
  • खटमल (Bed-bug – Cimex) : यह भी भूरा, चपटा एवं पंखहीन कीट होता है। यह चारपाइयों, फर्नीचर, आदि की दरारों में छिपा रहता है और प्रायः रात में मनुष्य का खून चूसता है। इसके काटने से बेचैनी एवं जलन होती है तथा निद्रा में विघ्न पड़ता है। यह भी कुछ संक्रामक रोगों को फैलाता है।
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(b) अन्तःपरजीवी (Endoparasites) : कुछ परजीवी कीट मनुष्य एवं पशुओं की त्वचा में घुसकर घाव बना देते हैं। इनमें पालतू पशुओं की बघाई मक्खी (Botfly) सुप्रसिद्ध है। ये ताजा घावों के जरिए पोषद की त्वचा में धँसकर सुरंग-सी बना लेती हैं और इसी में अण्डारोपण करती हैं। अण्डों से निकली लार्वी शरीर में भीतर तक घुस जाती हैं। इससे बहुत पीड़ा होती है। पशुओं की त्वचा को जगह-जगह बेधकर ये इसे चमड़े के योग्य नहीं रहने देतीं। भेड़ों एवं घोड़ों की बघाई मक्खियाँ पोषद की नाक में अण्डे देती हैं। लार्वी नासागुहाओं में रहती हैं और ऊतकों को भेदती हुई मस्तिष्क तक में चढ़ सकती हैं।


(D) रोग फैलाने वाले कीट (Disease-carrier Insects)- मनुष्य एवं पालतू पशुओं के लिए सबसे घातक कीट वे होते हैं जो भयंकर संक्रामक रोगों के कीटाणुओं, वाइरसों, आदि का संवहन करते हैं। WHO (World Health Organization) के अनुमान के अनुसार, संक्रामक रोगों से मरने वाले मनुष्यों में आधों के रोग कीटों द्वारा फैलाए हुए होते हैं।
इनमें निम्नलिखित कीट और इनके द्वारा फैलाए जाने वाले रोग उल्लेखनीय हैं-
  • घरेलू मक्खी (Housefly —Musca) : रोग फैलाने में यह कीट सर्वोपरि है। इसके द्वारा फैलाए जाने वाले प्रमुख रोग होते हैं-आमातिसार (Amoebic dysentery), हैजा (Asiatic cholera), अतिसार (Diarrhoea), कोथ (Gangrene), सूजाक (Gonorrhoea), कोढ (Leprosy), टाइफॉयड (Typhoid), तपेदिक (Tuberculosis) आदि ।
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  • मच्छर (Mosquitoes) : ये कम-से-कम चार बीमारियों के प्रमाणित वाहक (vectors) होते हैं-मलेरिया (Malaria), फीलपाँव अर्थात् फाइलैरिऐसस (Elephantiasis or Filariasis), दण्डकज्वर (Dengue fever) तथा पीतज्वर (Yellow fever) ।
  • चूहा फ्ली (Rat flea Xynopsylla) : यह ताऊन या प्लेग (Bubonic plague) की महामारी को फैलाती है। यह चूहों के शरीर पर पाई जाती है।
  • सी-सी मक्खी (Tse-tse fly) : अफ्रीका के घातक निद्रा रोग (Sleeping sickness) को यही - मक्खी फैलाती है।
  • सैण्डफ्लाई (Sandfly) : यह मक्खी  काला-अजार (Kala-azar) तथा फोड़े का रोग (Oriental sore) फैलाती है।
  • खटमल (Bed-bug) : यह रुधिर चूसने के अतिरिक्त, टाइफस रिलैप्सिंग ज्वर (Typhus relapsing fever) तथा कोढ़ (Leprosy) फैलाने का काम करता है।
  • शरीर की जूँ (Louse ) : यह भी रुधिर चूसने के अतिरिक्त टाइफस (Typhus), ट्रेंच ज्वर (Trench fever) तथा रिलैप्सिंग ज्वर (Relapsing fever) जैसे घातक रोगों को फैलाती है।
3. उपयोगी वस्तुओं के विनाशकारी कीट (Household Pests)
कीट हमारी कृषि, पालतू पशुओं एवं हमारे अपने शरीर को ही हानि नहीं पहुँचाते, वरन् हमारे खाद्य-भण्डार तथा अन्य उपयोगी वस्तुओं पर भी इनका काफी आक्रमण होता है। ये भोजन के लिए हमारी अनेक कार्बनिक (organic) वस्तुओं, जैसे खाद्य-सामग्रियों, दवाइयों, चमड़े की वस्तुओं, वस्त्रों, कागज एवं पुस्तकों, लकड़ी के सामान, आदि को नष्ट करते हैं।

  • खाद्य पदार्थों को नष्ट करने वाले कीट (Food Pests) : हमारे खाद्य-भण्डार में कीट सबसे अधिक हानि अनाज को पहुँचाते हैं। ये कीट गण कोलिओप्टेरा (Coleoptera) तथा लेपिडोप्टेरा (Lepidoptera) के सदस्य होते हैं। इनमें घुन या खपरा (weevils), घोरा या गुबरैला (beetles Tribolium) तथा सुरैरी या पतंगी (moths) प्रमुख हैं। ये अनाज जैसे गेहूँ, चावल, चना, मटर, आदि के दानों में छेद करके इनमें अण्डारोपण करते हैं। अण्डों से निकली लार्वी दानों को भीतर ही भीतर खाकर खोखला कर देती हैं।
  • दीमक (Termite) : खाद्य पदार्थों के अतिरिक्त अन्य उपयोगी वस्तुओं को हानि पहुँचाने वाले कीटों में यह सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण होती है। यह सेलुलोस (cellulose) की शौकीन होती है। अतः यह कागज तथा धन्नियों, किवाड़ों, फर्नीचर, आदि लकड़ी की वस्तुओं पर आक्रमण करके, फर्श एवं दीवारों तक में घुस जाती है। और इन्हें खोखला कर देती है। बागों एवं खेतों में भी यह आम, सेब, नारियल, आदि के पेड़ों पर आक्रमण करती है। इसकी आँत में उपस्थित ट्राइकोनिम्फा (Trichonympha) नामक सहजीवी प्रोटोजोअन (symbiotic protozoan) सेलुलोस के पाचन में सहायता करता है।
दीमकें सामाजिक (social) एवं बहुरूपी (polymorphic) होती हैं। ये सुरंगों में हजारों सदस्यों की कॉलोनियाँ (colonies) बनाकर रहती हैं। प्रत्येक कॉलोनी में कई प्रकार के सदस्य होते हैं, जैसे कि रानी (queen), राजा (king), सैनिक (soldiers), श्रमिक (workers), आदि ।
श्रमिक दीमकें छोटी, पंखविहीन, नेत्रविहीन तथा नपुंसक (sterile) होती हैं। ये मिट्टी तथा लार से कॉलोनी की सुरंग बनाने, भोजन की खोज करने, रानी का पोषण करने, अण्डों का स्थानान्तरण करने तथा रानी एवं शिशुओं की सेवा करने का कार्य करती हैं।

सैनिक दीमकें भी श्रमिकों की ही भाँति की, परन्तु कुछ बड़ी और मजबूत मुख-उपांगों वाली होती हैं। ये श्रमिकों पर नियन्त्रण रखती हैं तथा बिल एवं राजा-रानी की सुरक्षा करती हैं।

प्रत्येक कॉलोनी में पंख-विहीन राजा-रानी का प्रायः एक ही शाही जोड़ा (royal pair) होता है। रानी अण्डों से भरी होने के कारण बहुत बड़ी, मोटी एवं बेलनाकार-सी होती है। यह चल-फिर नहीं सकती और कॉलोनी की वल्मीक (termitarium) के एक विशेष कोष्ठ में पड़ी सालों तक, 70-80 हजार प्रतिवर्ष की दर से, अण्डे देती रहती है। पचासों श्रमिक इसकी सेवा करते रहते हैं। राजा सदा इसके साथ रहता है और समय-समय पर मैथुन करता है। अण्डों से श्रमिकों एवं सैनिकों के अतिरिक्त, इनसे काफी भिन्न, अनेक पंखयुक्त (alate) नर तथा मादा सदस्य भी बनते हैं। इनका शरीर काला एवं कुछ सँकरा होता है। ये झुण्डों में कॉलोनी को छोड़कर उड़ जाते हैं और नर-मादा की जोड़ियों में पृथक् होकर कई कॉलोनियाँ बनाने हेतु नवीन स्थानों का चयन कर लेते हैं। नवीन स्थानों पर बसने के बाद इनके पंख झड़ जाते हैं, मैथुन होता है तथा मादाएँ अण्डों से भरकर बड़ी हो जाती हैं।
  • रजतमछली (Silverfish Lepisma) : यह भी मण्ड (starch) की शौकीन होती है और पुस्तकों, कागजों, फोटों, आदि को खा जाती है।
  • वस्त्र पतंगी (Cloth Moth) : यह वस्त्रों पर आक्रमण करती है। ऊनी कपड़ों को सँभालकर न रखने पर यह इनमें जगह-जगह छेद कर देती है। यह दवाइयों, तम्बाकू, आदि पर भी आक्रमण करती है। सिगार, सिगरेट, आदि में यह छिद्र बनाकर इन्हें बेकार कर देती है।

कीट नियन्त्रण (INSECT CONTROL)
हानिकारक कीटों की संख्या दिन प्रतिदिन बढ़ती ही जा रही है । यदि इन हानिकारक कीटों की संख्या इनकी जननक्षमता के अनुसार बढ़े तो ये कुछ ही वर्षों में मानव जाति का विनाश कर सकते हैं। गनीमत है कि वातावरणीय परिवर्तनों, कीटभक्षी जन्तुओं, विषाणुओं, जीवाणुओं एवं फफूँदियों आदि के कारण इनकी बहुत बड़ी संख्या का स्वतः विनाश होता रहता है और प्रकृति में इनकी संख्या एक सीमा में नियन्त्रित रहती है। इसे प्राकृतिक कीट नियन्त्रण (natural insect control) कह सकते हैं।

कृत्रिम कीट नियन्त्रण (Artificial Insect Control) : हानिकारक कीटों के सफल विनाश के लिए वैज्ञानिकों ने कई कृत्रिम विधियाँ निकाली हैं जिन्हें छः प्रमुख श्रेणियों में बाँटते हैं-

1. यान्त्रिक नियन्त्रण (Mechanical Control) : इसमें बड़े कीटों को हाथों से बीन बीनकर या जाल आदि में फँसाकर मारते हैं। इसके अतिरिक्त, घरों, अस्पतालों, बाड़ों, गोदामों, आदि की खिड़कियों एवं दरवाजों में जाली लगाकर ऐसे कीटों से हम अपनी, पशुओं की और वस्तुओं की सुरक्षा कर सकते हैं।
हानिकारक कीटों को खत्म करने के लिए पहले लोग मिठाई, आदि तेज गन्ध वाली मीठी वस्तुओं का प्रयोग करके कीटों की बड़ी संख्या को एक स्थान पर आकर्षित करके मार डालते थे। आधुनिक वैज्ञानिकों ने कीटों को एक ही स्थान पर आकर्षित करने के लिए लिंग आकर्षक सुगन्धियों का सफल उपयोग किया है। इन सुगन्धियों को फीरोमोन्स (pheromones) कहते हैं। सामान्यतः कीट स्वयं लिंग आकर्षण के लिए इनका स्रावण करते हैं। जालियों में नर के फीरोमोन्स लगाकर मादा कीटों को तथा मादा के फीरोमोन्स लगाकर नर कीटों को एकत्रित किया जा सकता है।

2. भौतिक नियन्त्रण (Physical Control) : इस विधि में गोदामों, उत्पादन केन्द्रों, आदि में ताप को अत्यधिक बढ़ाकर हानिकारक कीटों का विनाश करते हैं या शीतागारों (cold storages) में ताप को अत्यधिक घटाकर इन्हें निष्क्रिय कर दिया जाता है।

3. जैविक नियन्त्रण (Biological Control) : यह निम्नलिखित विधियों द्वारा किया जाता है-
  • बन्ध्याकरण (Sterilization) : इसमें गामा-किरणों (gamma rays) द्वारा नर कीटों का बन्ध्याकरण करके इन्हें सामान्य कीटों में छोड़ देते हैं। ये मादाओं से मैथुन करते हैं, परन्तु अण्डों का संसेचन (fertilization) नहीं हो पाता।
  • कीट भक्षण (Predation) : इस विधि में साँप, छिपकली, मेंढक, मकड़ी, पक्षियों, आदि कीटभक्षी जन्तु (insectivorous predators) की संख्या बढ़ाकर कीटों का विनाश करते हैं।
  • परजीविता (Parasitism): इसके अन्तर्गत कीटों में रोगोत्पादक वाइरसों (viruses), जीवाणुओं (bacteria) तथा कवकों (fungi) का संक्रमण बढ़ाया जाता है।
4. सांस्कृतिक नियन्त्रण (Cultural Control) : इसमें कीटों के प्राकृतिक वास स्थानों एवं प्रसवन स्थानों (breeding places) को कम करने के लिए जलाशयों का समुचित रख-रखाव, निरर्थक घास-फूस एवं झाड़ियों आदि का उन्मूलन, गन्दे जल की उपयुक्त निकासी आदि का प्रबन्ध करते हैं।

5. वैज्ञानिक नियन्त्रण (Scientific Control) : इसके अन्तर्गत खेतों में स्वस्थ बीजों का उपयोग, खाद एवं सिंचाई का प्रबन्ध, बोने एवं काटने के उपयुक्त समय का निर्धारण आदि करते हैं तथा फसलों के हेर-फेर की विधि अपनाते हैं ताकि हानिकारक कीट खेतों में अधिक न पनप सकें।

6. रासायनिक नियन्त्रण (Chemical Control) : विषैले ( poisonous) रसायनों द्वारा कीट नियन्त्रण की विधि सबसे अधिक प्रचलित एवं सरल है। इसमें कीटनाशक दवाइयों (insecticides) का उपयोग करते हैं। इनमें DDT (dichloro-diphenyl-trichloroethane), टिक-20 (tick twenty), निकोटीन (nicotine), फ्लिट (flit), पाइरीभ्रम (pyrethrum), एल्ड्रिन (aldrin), गैमेक्सेन, आरसेनिक (arsenic), तथा गन्धक (sulphur) के यौगिकों, बॉर्दो मिश्रण (Bordeaux mixture), सिस्टोक्स (systox), नेफ्थैलीन (naphthalene), कपूर (camphor), क्रिओसोट (creosote) आदि का काफी उपयोग करते हैं। यद्यपि रासायनिक नियन्त्रण महँगा बैठता है, परन्तु यह अधिक प्रभावशाली एवं स्थाई होता है ।


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