सजीव वस्तुएं, निर्जीव वस्तुओं से कैसे भिन्न हैं? (living and non-living things)|hindi


सजीव वस्तुएं, निर्जीव वस्तुओं से कैसे भिन्न हैं? (How are living things different from non-living things)?
सजीव वस्तुएं, निर्जीव वस्तुओं से कैसे भिन्न हैं? (living and non-living things)|hindi

यह तो हम जानते हैं कि जीवधारी तथा सभी निर्जीव वस्तुएँ पदार्थ  की ही बनी होती हैं, और हम "जीवन" को देख या छू नहीं सकते, फिर भी हम सफलता से जीवधारियों की निर्जीव वस्तुओं से अलग पहचान कर लेते हैं। इसका कारण यह है कि जीवधारियों में पदार्थ का संघठन ऐसा होता है जिसमें कि “जैव ऊर्जा" (bioenergy) बनती है। इसी ऊर्जा द्वारा जीवधारी कई प्रकार की जैव क्रियाएँ (vital activities) करते हैं जिनसे हम इन्हें स्पष्ट रूप से पहचान लेते हैं। जीवधारियों की ये सब संघठनात्मक एवं क्रियात्मक विशेषताएँ निम्नवत् होती हैं-

1. आकृति एवं माप (Shape and Size) : जीवों में, अपनी-अपनी जाति (species) के अनुसार, विविध प्रकार की, परन्तु निश्चित, आकृतियाँ एवं माप होते हैं। इसीलिए, हम इन्हें अलग-अलग पहचान लेते हैं। इसके विपरीत, निर्जीव वस्तुएँ आकृति एवं माप में, जल की बूँद से लेकर विशाल महासागर तक, या रेत के कण से लेकर विशाल पर्वत तक, भिन्न-भिन्न और अनिश्चित होती हैं।

2. रासायनिक संघठन (Chemical Organization): जैसा कि हमने ऊपर जाना, जीवों और निर्जीव वस्तुओं के बीच पदार्थ के रासायनिक संघठन में अत्यधिक भेद होता है। जबकि "जीव पदार्थ" मुख्यतः बड़े-बड़े कार्बनिक (organic) अणुओं का बना एक जटिल रासायनिक संघठन होता है, समस्त निर्जीव वस्तुओं का पदार्थ सरल और छोटे, मुख्यतः अकार्बनिक (inorganic) अणुओं का असंघठित मिश्रण (mixture) मात्र होता है।

3. कोशिकीय संघठन (Cellular Organization) : जीवों के शरीर में जीव पदार्थ एक या अनेक सूक्ष्म एवं कलायुक्त अलग अलग इकाइयों (units) के रूप में होता है जिन्हें कोशिकाएँ (cells) कहते हैं। स्पष्ट है कि प्रत्येक कोशिका जीवन की एक स्वायत्त इकाई (autonomous unit of life) होती है। अनेक कोशिकाएँ एककोशिकीय (unicellular) जीवों के रूप में स्वतन्त्र जीवन व्यतीत करती हैं, परन्तु बहुकोशिकीय (multicellular) जीवों में ये शरीर की संरचनात्मक (इमारत की ईंटों की भाँति) एवं क्रियात्मक इकाइयों का काम करती हैं। अधिकांश बहुकोशिकीय जीव-शरीरों में तो स्वयं कोशिकाएँ भी सुव्यवस्थित ऊतकों, अंगों एवं अंग-तन्त्रों में संघठित होती हैं। निर्जीव वस्तुओं में पदार्थ का ऐसा संरचनात्मक संघठन नहीं होता है।

4. उपापचय या मेटाबोलिज्म (Metabolism): किसी पत्थर को देखो। इसमें परमाणुओं एवं अणुओं का वही संघठन है जो पिछले वर्ष या उससे पहले था। अब किसी कुत्ते या अन्य जीव पर ध्यान दो। इसमें हर पल जैव-क्रियाएँ होती रहती हैं और इन क्रियाओं को करने के लिए आवश्यक ऊर्जा हेतु इसके पदार्थ के संघठन में परिवर्तन, अर्थात् ऊर्जा का रूपान्तरण होता रहता हैं। यह अपने वातावरण से लगातार पदार्थों का आदान-प्रदान (exchange) करता रहता है जैसे - खाता है, श्वसन करता है, मल-मूत्र का त्याग करता है, आदि। वातावरण में मुक्त किए गए पदार्थ (मल-मूत्र, कार्बन डाइऑक्साइड—CO2 आदि) ग्रहण किए गए पदार्थों (ऑक्सीजन– O2, भोजन आदि) से बिल्कुल भिन्न होते हैं। इसी से यह सिद्ध होता है कि शरीर की कोशिकाओं में, ग्रहण किए गए पदार्थों का अनेक रासायनिक एवं भौतिक प्रक्रियाओं द्वारा निरन्तर रूपान्तरण होता रहता है। इन्हीं प्रक्रियाओं का सामूहिक नाम है उपापचय
उपापचय के एक पहलू - उपचय अर्थात् ऐनैबोलिज्म (anabolism) में वृद्धि एवं मरम्मत (repair) के लिए, भोजन से प्राप्त पोषक पदार्थों से जीव पदार्थ के जटिल घटकों का संश्लेषण होता है।
दूसरे पहलू–अपचय अर्थात् कैटैबोलिज्म (catabolism)—में विविध जैव-क्रियाओं के लिए आवश्यक ऊर्जा के उत्पादन के लिए पोषक पदार्थों का दहन या अपघटन होता है। इसीलिए, सजीव कोशिका की उपमा "लघु रासायनिक फैक्ट्री (miniature chemical factory)" से दी जाती है।


5. गमन एवं गति (Locomotion and Movement): जीवों में, उपापचय के अन्तर्गत, स्वयं अपने शरीर की कोशिकाओं में पोषक पदार्थों के दहन से उत्पन्न ऊर्जा द्वारा अपनी सुरक्षा, भोजन की खोज आदि के लिए अपनी इच्छानुसार स्वतन्त्र विचरण (spontaneous movement) का गुण होता है। रेल का इन्जन निर्जीव होते हुए भी चलता है, परन्तु स्वयं अपनी शक्ति और इच्छा से नहीं, वरन् कोयले और जल से बनी वाष्प की ऊष्मा, या डीजल की ऊर्जा, या विद्युत् ऊर्जा द्वारा और चालक की इच्छानुसार। पूरे शरीर द्वारा स्थान परिवर्तन को गमन (locomotion) तथा शरीर के अंग-प्रत्यंगों के हिलने-डुलने की क्रिया को गति (movement) कहते हैं। जड़ों द्वारा भूमि में गड़े रहने के कारण, पेड़-पौधों में locomotion नहीं होता, परन्तु कुछ में विशेष भागों की गति होती है।

6. पोषण (Nutrition) : जीवों द्वारा वृद्धि, मरम्मत एवं ऊर्जा उत्पादन के लिए अपने वातावरण से आवश्यक पदार्थ ग्रहण करते रहने को इनकी पोषण क्रिया कहते हैं। पोषण के लिए हरी वनस्पतियाँ वायुमण्डल से कार्बन डाइऑक्साइड (CO2) तथा मिट्टी से जल एवं लवण ग्रहण करके, सूर्य के प्रकाश की ऊर्जा की सहायता से, पोषक पदार्थों का संश्लेषण करती हैं। जन्तु इन्हीं पोषक पदार्थों को भोजन के रूप में ग्रहण करके, रासायनिक एवं भौतिक प्रक्रियाओं द्वारा इन पदार्थों को इतना बदल देते हैं कि इन्हें शरीर में खपाया जा सके। अतः जन्तुओं की पोषण क्रिया में (क) भोजन ग्रहण (food-ingestion), (ख) पाचन (digestion), (ग) पचे हुए पदार्थों का अवशोषण (absorption), (घ) स्वांगीकरण (assimilation) तथा (च) अपाच्य पदार्थों का बहिष्कार अर्थात् मलत्याग (egestion) आदि क्रियाएँ होती हैं।

7. वृद्धि (Growth) : उपापचय के अन्तर्गत सभी जीवधारी पोषक पदार्थों को अपने शरीर के पदार्थ में खपाकर पदार्थ की मात्रा बढ़ाते हैं। इससे शरीर बड़ा होता जाता है, अर्थात् इसकी वृद्धि होती है। ऐसी वृद्धि को अन्तराधान वृद्धि (growth by intussusception) कहते हैं। इसमें शरीर के माप में बढ़ोत्तरी के साथ-साथ इसकी संरचनात्मक एवं क्रियात्मक जटिलता भी बढ़ती है। निर्जीव वस्तुओं का माप भी बढ़ सकता है, परन्तु अलग विधि से। उदाहरण के लिए, नमक के संतृप्त (saturated) घोल में नमक की डली डाल दें तो यह कुछ समय बाद बड़ी हो जाएगी, क्योंकि घोल का कुछ नमक धीरे-धीरे इसके ऊपर एकत्रित हो ने लग जाता है। ऐसी वृद्धि को अभिवृद्धि (growth by accretion) कहते हैं।

8. श्वसन (Respiration) : जैव-क्रियाओं के लिए आवश्यक ऊर्जा का उत्पादन सभी जीवधारी, उपापचय के अन्तर्गत, पोषक पदार्थों (ईंधन पदार्थों), विशेषतः शर्कराओं के किण्वन (fermentation) द्वारा अपघटन (decomposition) करके, या वायुमण्डल की ऑक्सीजन (O2) द्वारा इनका ऑक्सीकर दहन (oxidative combustion) करके करते हैं। इस जैव-क्रिया को श्वसन (respiration) कहते हैं। किण्वन द्वारा ऊर्जा उत्पादन में ऑक्सीजन (O2) की आवश्यकता नहीं होती। अतः इसे अनॉक्सी या अवायवीय (anaerobic) श्वसन कहते हैं। ऑक्सीकर दहन द्वारा ऊर्जा उत्पादन को ऑक्सी या वायवीय (aerobic) श्वसन कहते हैं।

9. उत्सर्जन (Excretion) : शरीर की कोशिकाओं में, उपापचय के अन्तर्गत, पदार्थों के निरन्तर दहन तथा अन्य रूपान्तरण के फलस्वरूप जल, कार्बन डाइऑक्साइड (CO2) एवं नाइट्रोजनीय अपजात पदार्थ (wasteproducts or byproducts) बनते रहते हैं। ये पदार्थ शरीर के लिए अनावश्यक और हानिकारक होते हैं। इन्हें शरीर से बाहर निकालने की जैव-क्रिया को उत्सर्जन (excretion) कहते हैं।

10. प्रतिक्रियाशीलता, अनुकूलन एवं समस्यैतिकता (Responsiveness, Adaptability and Homeostasis) : क्योंकि प्रत्येक जीव को अपने वातावरण से निरन्तर पदार्थों का आदान-प्रदान करना होता है, इसमें वातावरण में होने वाले भौतिक एवं रासायनिक परिवर्तनों से प्रभावित होकर इन्हीं के अनुसार अपनी क्रियाओं में परिवर्तन करके अपने संरचनात्मक संघठन एवं क्रियात्मक सन्तुलन (functional equilibrium) को बनाए रखने की विलक्षण क्षमता होती है। वातावरण के परिवर्तनों को उद्दीपन (stimuli) कहते हैं। ये शरीर से बाहर के वातावरण में भी होते हैं (प्रकाश, ध्वनि, स्पर्श, ताप, दबाव, गुरुत्वाकर्षण, विद्युतीय रासायनिक आदि) और स्वयं शरीर के भीतर भी (भूख, प्यास, पीड़ा आदि)। इनके अनुसार जैव क्रियाओं में होने वाले परिवर्तनों को प्रतिचार या प्रतिक्रियाएँ (responses or reactions) कहते हैं। जीवों की यह क्षमता उत्तेजनशीलता (irritability) या प्रतिक्रियाशीलता (reactivity) कहलाती है। प्रतिक्रियाशीलता द्वारा अपनी सामान्य या नियमित दशा (steady state) बनाए रखने को समस्थापन या समस्थैतिकता अर्थात् होमियोस्टैसिस (homeostasis) कहते हैं। वातावरण में स्थाई परिवर्तन होने पर जीवधारी इनके अनुसार अपनी रचना एवं स्वभाव भी बदल सकते हैं। इसे अनुकूलन (adaptability) कहते हैं।

11. प्रजनन, जीवन चक्र एवं मृत्यु (Reproduction, Life cycle and Death): उपरोक्त सभी जैव-क्रियाएँ जीव स्वयं अपने शरीर और "जीवन" को बनाए रखने के लिए करते हैं। इनके अतिरिक्त, जीवों में अपनी ही तरह की सन्तान उत्पन्न करने, अर्थात् प्रजनन, का भी गुण होता है। इसी से प्रत्येक जीव जाति का पीढ़ी-दर-पीढ़ी वंश चलता है। प्रत्येक पीढ़ी के सदस्य अगली पीढ़ी के सदस्यों की उत्पत्ति करके स्वयं क्षीण शरीर एवं वृद्ध हो जाते हैं और अन्त में मृत होकर नष्ट हो जाते हैं। पीढ़ी-दर-पीढ़ी यही चक्र चलता रहता है। इसे जीवन चक्र कहते हैं।

12. जैविक उद्विकास (Organic Evolution) : यद्यपि जीव अपने ही जैसी सन्तानें उत्पन्न करते हैं, लेकिन प्रजनन की प्रक्रिया ऐसी होती है कि सन्तानों में परस्पर कुछ विभिन्नताएँ (variations) आवश्यक रूप से हो जाती हैं जैसी कि हम सगे भाई-बहनों में भी देख सकते हैं। हजारों-लाखों वर्षों में इन विभिन्नताओं के बढ़ते रहने के कारण, पुरातन जीव जातियों से नई-नई जीव-जातियों का उद्विकास हो जाता है। अतः जीव अपनी जाति का उत्पादक ही नहीं होता, बल्कि अधिक विकसित तथा नई-नई जातियों का रचनाकार भी होता है।

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