जल का महत्व और इसके कार्य (Importance and Functions of Water)|hindi


जल का महत्व और इसके कार्य (Importance and Functions of Water)
जल का महत्व और इसके कार्य (Importance and Functions of Water)|hindi

जल के कई मह्त्व तथा कार्य होते हैं। जिनका वर्णन इस प्रकार है-
  • जीवन की उत्पत्ति ही आदिपृथ्वी के आदिसागर (primaeval ocean) में हुई थी। 
  • प्रारम्भिक जीवों से आदिकालीन जीव जातियों का evolution मुख्यतः जल के गुणों से प्रभावित रहा है। 
  • जल में उपस्थित हाइड्रोजन बन्धों के व्यापक त्रिविम जाल के कारण जल पृथ्वी पर सबसे अधिक स्थाई तरल होता है। इसीलिए यह जीवों में universal solvent का काम करता है और जीव शरीर का 50 से 90% भाग बनाता है। पृथ्वी पर किसी भी अन्य तरल में इतनी विलेयता नहीं होती है।
  • इसके ध्रुवीय होने के कारण जल में सभी प्रकार के आयनिक और ध्रुवीय अर्थात् hydrophilic पदार्थ घुल जाते हैं। यही कारण है कि कोशिकाओं के साइटोसॉल में हजारों प्रकार के हजारों अणु विलेयों (solutes) के रूप में पाए जाते हैं।
  • जल के अणुओं की ध्रुविता (polarity) के कारण इसमें लिपिड जैसे अध्रुवीय, अर्थात् जलरोधी (hydrophobic) अणु नहीं घुलते है। अतः ऐसे अणु कोशिकाओं जैसे जलीय तन्त्रों की सतह पर रहकर झिल्लीनुमा आवरण बना लेते हैं। जिसे कोशिकाकला (cell membrane) कहते है। ऐसी ही membrane कोशिकाओं में कई प्रकार के कोशिकांगों को साइटोसॉल से अलग करके कोशिकाओं को अंदर से कक्षों में विभाजित करती हैं।
  • हाइड्रोजन बन्धों के तीव्र गति से बनते- टूटते रहने से जल एक सक्रिय (dynamic) विसर्जन विलायक होता है। इसीलिए इसमें विलेय निरन्तर गतिशील (ब्राउनियन गति—Brownian motion) रहते और एक साथ फैले हुए स्वतन्त्रतापूर्वक परस्पर टकराते रहते और तत्परतापूर्वक अभिक्रियाएँ करते रहते हैं।
  • कोशिकाओं में जल के मुक्त बहाव के कारण ही कोशिकाओं के साइटोसॉल में बहाव (streaming or cyclosis) होता है। इससे साइटोसॉल तथा कोशिकांगों के बीच और कोशिकाओं तथा बाह्यकोशिकीय तरल के बीच होने वाला रासायनिक विनिमय (chemical exchange) सरल होता है।
  • विभिन्न बहुलकी जैव अणुओं (biopolymers) की, folding तथा coiling के द्वारा अर्जित त्रिविम आकृति (3-dimensional conformation) को स्थायी रखने में जल का महत्त्वपूर्ण योगदान होता है।
  • जल में इसके कुछ अणु स्व:आयननीकरण (autoionization) के कारण H+ तथा OH- आयनों में टूटते रहते हैं। कोशिकाओं में कई प्रकार के एन्जाइमों, अन्य प्रोटीन्स, न्यूक्लीक अम्लों, फॉस्फोलिपिड्स आदि को अपनी भूमिकाएँ निभाने के लिए इन आयनों की आवश्यकता होती है। खनिज लवण भी साइटोसॉल के जल में घुलते ही अपने आयनों में टूटकर अनेक एन्जाइमों के सहकारकों (cofactors) का काम करते हैं।
  • साइटोसॉल का जल कोशिकाओं में स्फीति दाब (turgor pressure) बनाए रहता है। यह दाब कोशिकाओं को सिमटने से रोकता है, इनकी वृद्धि में सहायता करता है तथा छोटे जीवों और पादपों के कोमल भागों की आकृति बनाए रखता है।
  • हरे पौधे प्रकाश-संश्लेषण की प्रक्रिया द्वारा सभी जीवों के लिए आहार उत्पन्न करते हैं। इस प्रक्रिया में जल के अणु अपनी हाइड्रोजन का योगदान करते हैं-
         6CO2 + 6H2O + सौर ऊर्जा Photosynthesis → C6H1206 + 602
इसके विपरीत, सभी जीवों में श्वसन (respiration) द्वारा ऊर्जा उत्पादन ( energy production) की प्रक्रिया में जल उपजात पदार्थ (byproduct) के रूप में मुक्त होता है-
          C6H1206 + 602 Respiration → 6CO2 + 6H2O + Bioenergy
स्पष्ट है कि वायुमण्डल में उपस्थित ऑक्सीजन (O2) का, जिसका कि सारे जीव श्वसन में उपयोग करते हैं, जल ही एकमात्र स्रोत होता है।
  • कई उपापचयी अभिक्रियाओं में जल स्वयं एक अभिकारक (reactant) होता है। उदाहरण के लिए, पाचन आदि में बहुलकी अणुओं का इनकी एकलकी इकाइयों में विखण्डन जल द्वारा ही होता है, अर्थात् पाचन, जल अपघटन (hydrolysis) द्वारा होता है। इसके विपरीत, जैव अणुओं के अधिकतर संयोजनों में जल के अणु मुक्त होते हैं, अर्थात् जल निर्जलीकरण - संघनन (dehydration-condensation) संश्लेषण में बनता है।
  • कोशिकाओं में जल, परासरणी दाब (osmotic pressure) का नियन्त्रण करके, साइटोसॉल को बाह्यकोशिकीय तरल से समपरासरणीय (isotonic) बनाए रखता है ताकि कोशिकाएँ न तो अत्यधिक जल खोकर सिकुड़ जाएँ और न ही अत्यधिक जल ग्रहण करके फूल जाएँ और फट जाएँ।
  • कोशिकाएँ साइटोसॉल के उदासीन pH (7.00) रहने पर ही अधिकतम् सक्रिय होती हैं। बाइकार्बोनेट (HCO3), कार्बोनिक अम्ल (H2CO3), मोनोबेसिक (monobasic) तथा डाइबेसिक (dibasic) फॉस्फेट्स (HPO, तथा HPO37) आदि अम्ल-क्षार उभय प्रतिरोधी (acid-base buffers) बाहर से कोशिकाओं में घुसकर साइटोसॉल के pH को प्रभावित कर सकते हैं। तब स्वःआयननीकरण द्वारा जल के अणु अम्लों या क्षारों को अनाविष्ट non-contained करके साइटोसॉल की उदासीनता (neutrality) बनाए रखते हैं।
  • जल की तीव्र संसंजकता (cohesiveness) तथा आसंजकता (adhesiveness) के कारण शरीर की विविध वाहिकाओं में तरल पदार्थ स्वतन्त्रतापूर्वक लगातार बहते रहते हैं। इसी के कारण रुधिरवाहिनियों में रुधिर निरन्तर बहकर पोषक पदार्थों, श्वसन गैसों (O2 एवं CO2), अपजात पदार्थों, हॉरमोन्स आदि का पूरे शरीर में परिवहन करता है। जल के इस गुण से शरीर और इसके बाह्य वातावरण के बीच रासायनिक विनिमय में भी सहायता मिलती है।
  • जल सम्पूर्ण जीव शरीर में एक स्फीति दाब (turgor pressure) बनाए रखता है। छोटे जीवों में यह दाब शरीर की आकृति बनाए रखता है। यह पादपों और कुछ जन्तुओं में गतियों का नियन्त्रण करता है। उदाहरण के लिए, पादपों में रन्ध्रों, कलियों, फूलों आदि का खुलने-बन्द होने, प्रतानों के कुण्डलीकरण (coiling of tendrils), पत्तियों के वलनीकरण (folding) आदि में यह दाब सहायता करता है। छुईमुई (माइमोसा-Mimosa) के पौधे की पत्तियों को छूओ तो पत्तियाँ सिकुड़कर मुरझा जाती हैं। इसे अनुप्रेरित गति (paratonic movement) कहते हैं। इसका नियमन भी जल के स्फीति दाब के कारण ही होता है। जन्तुओं में से नाइडेरिया (Cnidarians) में खोखले स्पर्शकों (tentacles) तथा एकाइनोडर्मेटा की तारामीनों (starfishes) में नाल पादों (tube feet) द्वारा गमन जल के स्फीति दाब के कारण ही होता है।
  • पारे (mercury) को छोड़कर, अन्य तरलों में से जल का surface tension सबसे अधिक होता है। इस तनाव तथा तीव्र संसंजक एवं आसंजक बलों के कारण महीन नलिकाओं में जल केशिका बल (capillary force) उत्पन्न करता है। इसी बल के कारण मिट्टी से जल में घुले हुए लवण (पादप रस-plant sap) पौधों की जड़ों और तनों में ऊपर चढ़ते हैं। सतही तनाव एवं संसंजक बल के कारण ही हम जल को प्याले में पूरा भर सकते हैं और बहुत हल्के कीट भी जल सतह पर रह सकते हैं।
  • शरीर में जल के संरक्षण की क्षमता तथा शरीर और बाह्य वातावरण के बीच जल के बड़ी मात्रा में आदान प्रदान की क्षमता जीवों को रेगिस्तानी, जलीय, दलदलीय, समुद्री, अलवणजलीय आदि विभिन्न प्रकार के प्राकृतिक आवासों (habitats) के लिए adapted होने में सहायता करती है।
  • क्योंकि बर्फ का घनत्व जल से कम होता है, यह जल की अपेक्षा अधिक फैलती है और सदा जल की ऊपर तैरती रहती है, डूबती नहीं है। अतः जल के ठण्डा होने पर बर्फ इसकी सतह पर बननी प्रारम्भ होती है। जल सतह पर की बर्फ की यह परत नीचे के जल के लिए तापरोधक (insulator) का काम करती है और इसीलिए इस जल में अधिक ठण्ड में भी जीवधारी जीवित रह जाते हैं। इसीलिए जल में, यहाँ तक कि पृथ्वी के अतिठण्डे ध्रुवीय प्रदेशों के जल में भी, अनेक प्रकार के जन्तुओं और पादपों का अस्तित्व बना रहता है।
  • हाइड्रोजन बन्धों के व्यापक जाल के कारण जल में उच्च संसंजकता (cohesive force) होती है। अतः जल की ऊष्माधारिता (heat capacity) अर्थात् विशिष्ट ऊष्मा (specific heat) उच्च होती है। इसीलिए इसके गलनांक (melting point) तथा क्वथनांक (boiling point) अधिक होते हैं। अतः जल के गरम या ठण्डा होने में समय अधिक लगता है, क्योंकि इसके लिए अनेक हाइड्रोजन बन्ध टूटते हैं और नए बन्ध बनते हैं। जाड़ों में जल के ठण्डा होने में टूटने वाले बन्धों की संख्या नए बनने वाले बन्धों से कहीं अधिक होती है। अतः टूटने वाले हाइड्रोजन बन्धों से मुक्त हुई ऊष्मा ताप को बढ़ाकर ठण्डी हवा की ठण्ड कम करती है। ग्रीष्म में जल के गरम होने में टूटने वाले बन्धों की संख्या नए बनने वाले बन्धों से बहुत कम होती है। अतः नए बन्धों के बनने में वायुमण्डल की बहुत ऊष्मा खर्च हो जाती है और वायु कम गरम हो जाती है। इसीलिए समुद्र और बड़ी नदियों तथा झीलों के निकट बसे शहरों और गाँवों में पूरे वर्ष ताप सामान्य-सा बना रहता है। उच्च ऊष्माधारिता और स्वतन्त्र बहने की क्षमता के कारण रुधिर प्लाज्मा का जल जीव शरीर में भी ताप के एकसमान वितरण (uniform distribution) का काम करता है।
  • शरीर ताप के नियन्त्रण (thermoregulation) में जल की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है। शरीर ताप के बढ़ने पर रुधिर की काफी मात्रा का शरीर की सतह की ओर संवहन (convection) होने लगता है जहाँ से ताप के विकिरण (radiation) के कारण प्लाज्मा का जल काफी ठण्डा होता रहता है। 
  • जल में वाष्पीकरण की गुप्त ऊष्मा (latent heat of vaporization) भी उच्च होती है। हमारे और अन्य स्तनियों की त्वचा की सतह से गर्मियों में sweat के जल के वाष्पीकरण में शरीर की बहुत सी ऊष्मा खर्च हो जाती है और शरीर का ताप कम हो जाता है।
  • वाष्पीकरण की उच्च गुप्त ऊष्मा से ही पृथ्वी का मौसम भी प्रभावित होता है। पृथ्वी का जल सूर्य की ऊष्मा के 30% का अवशोषण करता है जिससे बहुत सा जल वाष्प बनकर उड़ता रहता है। यही वाष्प बादल (clouds) बनाती है। 
  • ठण्डी होने पर बादलों की वाष्प वापस जल में बदलकर वर्षा के रूप में पृथ्वी पर आती है और अवशोषित की गई सौर ऊर्जा की अभिव्यक्ति बादलों की गरजन तथा तूफानों के रूप में होती है। यह पृथ्वी का जलीय चक्र (hydrological cycle of earth) कहलाता है, इससे वायुमण्डल की सफाई होती है और पृथ्वी का ताप कम होता रहता है।
Read Also-

No comments:

Post a Comment