Artificial skin का अविष्कार
Burke और Yannas ने 1970 के दशक में गंभीर रूप से जले हुए पीड़ितों के लिए artificial skin के रूप में एक नई उम्मीद दी।
मनुष्यों की त्वचा अपने आप में ही एक चमत्कार है। यह थोड़ी सख्त होने के साथ-साथ लचीला भी होती है, और संक्रमण और सूर्य की पराबैंगनी (यूवी) किरणों से कोशिका क्षति के खिलाफ एक अवरोधक के रूप में कार्य करता है। त्वचा में इतने सारे गुण पाए जाते हैं जिसके कारण इसकी नकल करना बहुत कठिन है।
ऐसे में संयुक्त राज्य अमेरिका में Massachusetts general hospital के एक सर्जन John F. Burke, जले हुए पीड़ितों के इलाज के लिए एक विश्वसनीय त्वचा प्रतिस्थापन की तलाश कर रहे थे। आमतौर पर ऐसी स्थिति में त्वचा रोगी के शरीर के अन्य हिस्सों से ली जाती है, लेकिन जब शरीर 50 प्रतिशत या उससे अधिक जल जाता है तो क्षतिग्रस्त क्षेत्र को कवर करने के लिए पर्याप्त स्वस्थ त्वचा नहीं बचती है।
अपनी इसी तलाश के दौरान इन्होंने 1970 के दशक में Massachusetts Institute of Technology (MIT) में रसायन विज्ञान के प्रोफेसर Loannis V. Yannas के साथ मिलकर काम किया, जो कोलेजन नामक एक stretchy प्रोटीन का अध्ययन कर रहे थे जो जानवरों के Tendon में होता है। Burke और Yannas ने गाय की खाल से लिए गए कोलेजन फाइबर को शार्क की Cartilage के साथ मिलाकर एक ग्रिड जैसी polymer membrane बनाई। इन्होनें इस झिल्ली को सुखाकर चिपचिपी प्लास्टिक की एक परत पर चिपका दिया।
इसकी दो परतें, लगभग एक paper towel जितनी मोटी, एक surface के रूप में कार्य करती है और संक्रमण और निर्जलीकरण के खिलाफ बाधा उत्पन्न करती हैं, जिस पर नई त्वचा कोशिकाएं विकसित हो सकती हैं। जैसे-जैसे रोगी की त्वचा वापस बनने लगती है, कृत्रिम झिल्ली अपने आप टूट हो जाती है। नई त्वचा पर कोई दाग नहीं होता है और यह सामान्य त्वचा की तरह ही दिखती है, लेकिन इसमें पसीने की ग्रंथियां या बाल नहीं होते हैं।
इस तरह से 1981 में Burke और Yannas ने बताया कि कृत्रिम त्वचा 50 से 90 प्रतिशत जले हुए मरीजों पर काम कर सकती है, जिससे उनके ठीक होने की संभावना बढ़ जाती है।
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