लिपिड का वर्गीकरण (Classification of Lipids)|hindi


लिपिड का वर्गीकरण (Classification of Lipids)

लिपिड का वर्गीकरण (Classification of Lipids)|hindi


लिपिड (Lipid) का वर्गीकरण कई प्रकार के आधारों पर किया जा सकता है, परन्तु इनका वर्गीकरण इनके रासायनिक संयोजन, या जैव अणुओं के रूप में इनके महत्त्व के आधार पर किया जाता है-
  1. सरल लिपिड (Simple Lipids)
  2. संयुक्त या संयुग्मित लिपिड (Compound or Conjugated Lipids)
  3. व्युत्पन्न लिपिड्स (Derived Lipids)

(1) सरल लिपिड (Simple Lipids)
वसीय अम्लों से बने ये सबसे सरल (simple) और storage lipids होते हैं। इनकी दो श्रेणियाँ होती हैं-

(A) वास्तविक वसा (True fats)
(B) प्राकृतिक मोम (natural wax)



(A) वास्तविक वसा (True fats)
  1. एक ग्लिसरॉल (glycerol or glycerine) अणु से तीन वसीय अम्ल अणुओं के तीन सहसंयोजी बन्धों (covalent bonds) द्वारा जुड़ने से वास्तविक वसा का एक अणु बनता है। इन बन्धों को एस्टर बन्ध (ester bonds) कहते हैं।
  2. ग्लिसरॉल एक ट्राइहाइड्रिक ऐल्कोहॉल (trihydric alcohol) होता है, क्योंकि इसकी कार्बन श्रृंखला के तीनों कार्बन परमाणुओं से एक-एक हाइड्रॉक्सिल समूह (hydroxyl group, OH) जुड़ा होता है।
  3. एस्टर बन्ध प्रत्येक हाइड्रॉक्सिल समूह तथा एक वसीय अम्ल के कार्बोक्सिल समूह (-COOH) के बीच बनता है। इसीलिए वसा अणु को ट्राइग्लिसराइड या ट्राइऐसिलग्लिसरॉल (triglyceride or triacylglycerol) कहते हैं।
  4. प्रत्येक एस्टर बन्ध के बनने में जल का एक अणु मुक्त होता है। अतः वसा के अणुओं का संश्लेषण भी निर्जलीकरण संघनन संश्लेषण (dehydration condensation synthesis) होता है।
  5. इससे स्पष्ट है कि यदि जल का अपघटन (hydrolysis) किया जाए तो वसीय अम्ल के अणु एक-एक करके ग्लिसरॉल अणु से अलग होते हैं जिससे कि इस प्रक्रिया में ट्राइग्लिसराइड अणु का पहले डाइग्लिसराइड (diglyceride) और फिर मोनोग्लिसराइड (monoglyceride) अणु में निम्नीकरण होता है।
  6. ट्राइग्लिसराइड अणु में ग्लिसरॉल से जुड़े तीन वसीय अम्ल अणु समान या असमान हो सकते हैं।
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वास्तविक वसाओं के भौतिक लक्षण (Physical Properties of True Fats )
  1. मूलतः ये तरल,रंगहीन, गन्धहीन और स्वादहीन होती हैं, परन्तु जन्तु वसाओं तथा कुछ पादप वसाओं (सरसों, लौंग आदि के तैल) में हल्का रंग और स्वाद तथा कुछ गन्ध होती है।
  2. जलरोधी (hydrophobic) होने के कारण ये जल में नहीं, बल्कि अध्रुवीय कार्बनिक विलायकों (non-polar organic solvents) में घुलनशील होती हैं। अतः जल में वसा सूक्ष्म बिन्दुओं (droplets) के रूप में अलग रहती और एक emulsion बनाए रहती है। जाड़ों में गीले बालों में तैल लगाकर कंधी करने पर कंधी पर ऐसा ही पायस दिखाई देता है।
  3. वसाओं का आपेक्षिक घनत्व (specific gravity) जल के घनत्व से कम होता है। अतः वसा के अणु प्रायः जल की सतह पर रहते और एक साथ अणु का स्तर (monomolecular layer) बनाने की प्रवृत्ति रखते हैं।
  4. प्रत्येक प्रकार की वसा का एक निश्चित गलनांक (melting point) होता है जो इसके घटक वसीय अम्लों में कार्बन शृंखला की लम्बाई और दोहरे बन्धों के होने-न होने तथा होने पर इनकी संख्या पर निर्भर करता है।
अधिकांश पादप वसाओं में असंतृप्त वसीय अम्लों की अधिकता होती है। अतः इनके गलनांक कम होते हैं। इसीलिए सामान्य ताप (25°C) पर ये तरल बनी रहती हैं और इन्हें तेल (oils) कहा जाता है। सरसों, तिल, सूरजमुखी, जैतून, कुसुंभ (safflower), सोयाबीन, तौरिया (rape-seed), मकई, मूंगफली, बिनौले (cottonseeds), अलसी (linseed) आदि के तेल ऐसे ही तेल होते हैं। इन्हें पचाना सरल होता है। कुछ पादप वसाओं का गलनांक, जैसे कि नारियल (coconut) के तैल का, संतृप्त वसाओं की अधिकता के कारण, अधिक होता है जिससे ये वसाएँ कम ताप पर जम जाती हैं।

घी तथा सूअर एवं पशुओं की चर्बी (lard, tallow) जन्तु वसाएँ होती हैं। संतृप्त वसीय अम्लों की अधिकता के कारण इनका गलनांक अधिक होता है जिसके कारण ये सामान्य ताप में अर्धठोस, स्नेही (greasy) अवस्था में बनी रहती हैं। इनका पाचन अपेक्षाकृत कठिन होता है। इन्हें कठोर वसाएँ (hard fats) कहते हैं। कुछ जन्तु वसाओं का गलनांक, जैसे कि मछली के तैल का, असंतृप्त वसीय अम्लों की अधिकता के कारण कम होता है जिससे ये कम ताप पर भी तरल बनी रहती हैं।


वास्तविक वसाओं के रासायनिक गुण (Chemical Properties of True Fats)
  1. तनु कास्टिक सोडा (NaOH) या कास्टिक पोटाश (KOH) द्वारा वसाओं का जल-अपघटन (hydrolysis) करने पर ग्लिसरॉल अलग हो जाता है और साबुन (soap) के रूप में, वसीय अम्लों के सोडियम या पोटैशियम लवण बन जाते हैं। इसे वसाओं का साबुनीकरण (saponification) कहते हैं।
  2. वसाओं के वसीय अम्लों के ऑक्सीकरण (oxidation) से ऐसीटिल सहएन्जाइम ए (acetyl CoA) बनता है जो क्रैब्स चक्र (Krebs' cycle) में सम्मिलित होकर ऊर्जा उत्पादन के काम आता है।
  3. पादप वसाओं के हाइड्रोजनीकरण (hydrogenation) से इनके वसीय अम्लों के double bond समाप्त हो जाते हैं जिससे ये वनस्पति घी में बदल जाती हैं।
  4. वसा-प्रधान भोजन वायु में अधिक समय खुला रहे तो वायु की ऑक्सीजन से वसाओं की अभिक्रिया के कारण भोजन बदबूदार और खट्टा हो जाता है।

वसा-भण्डारण का महत्त्व (Importance of Fat Storage)
जीवों में ऊर्जा के लिए, कार्बोहाइड्रेट्स की तुलना में, वसा के अधिक भण्डारण के कई कारण होते हैं जो इस प्रकार हैं-
  1. कार्बोहाइड्रेट्स की तुलना में वसा से दुगुनी से भी अधिक ऊर्जा प्राप्त होती है।
  2. निर्जल (anhydrous) होने के कारण वसा भण्डार आरक्षित ऊर्जा का संघनित भण्डार होता है।
  3. निर्जल होने के कारण वसा का भार भी कम होता है। अतः इसका वहन सुगम होता है। 
  4. जल में अघुलनशील होने के कारण वसा से परासरणीयता (osmolality) की समस्या उत्पन्न नहीं होती।
warm-blooded जन्तुओं (पक्षियों तथा स्तनियों), मुख्यतः स्तनियों, का वसा स्तर, वसा भण्डार का काम करने के अतिरिक्त, एक तापरोधी (insulating) स्तर का भी काम करता है, अर्थात् यह शरीर के ताप को बाहर निकलने से रोकता है और शरीर को वातावरणीय ताप के प्रभाव से बचाता है। इसीलिए, बड़े (उदा०, हाथी) तथा ठण्डे प्रदेशों के (व्हेल, पेग्विन, भालू, सील आदि) पक्षियों और स्तनियों में यह स्तर मोटा होता है और ब्लंबर (blubber) कहते हैं। यह वसा स्तर शरीर को आकृति और प्लावकता (buoyancy) प्रदान करने तथा गद्दी की भाँति आंतरिक अंगों की बाहरी दबाव एवं आघातों से सुरक्षा करने का भी काम करता है। ऊँट के कूबड़ में वसा भण्डार होता है। इस वसा का ऊर्जा के लिए ऑक्सीकरण करने से जो जल बनता है उसका उपयोग करके ऊँट कुछ दिन जल पिए बिना रह जाता है।


(B) प्राकृतिक मोम (Natural Waxes)
ये कार्बन परमाणुओं की लम्बी श्रृंखलाओं (14 से 36 कार्बन) वाले प्रायः संतृप्त वसीय अम्लों के, ग्लिसरॉल से नहीं, बल्कि लम्बी कार्बन शृंखलाओं (30 कार्बन) वाले ऐल्कोहॉलों से जुड़ने से बनते हैं। ये जल में अघुलनशील होते हैं। इनके गलनांक अधिक (60°C से 100°C) होने के कारण ये सदैव ठोस या अर्धठोस अवस्था में होते हैं। इनकी कुछ प्रमुख किस्में और कार्य निम्नलिखित हैं-
  1. स्तनियों की त्वचा में उपस्थित तेल ग्रन्थियों (sebaceous glands) द्वारा स्रावित sebum त्वचा एवं बालों को कोमल, चिकना और जलरोधी बनाता है तथा इन्हें जीवाणुओं (bacteria) के आक्रमण से बचाता है। ऊनी बालों वाले स्तनियों, मुख्यतः भेड़ों, की त्वचा की ग्रन्थियों द्वारा स्रावित sebum को लैनोलिन (lanolin) या "ऊन तैल (wool oil)" कहते हैं। सूखी त्वचा के उपचार में इसका उपयोग होता है।
  2. स्तनियों की बाह्य कर्ण की नलियों की त्वचा की तैल ग्रन्थियों द्वारा स्रावित sebum को ear wax कहते हैं। यह वायु के साथ आए धूल के कणों आदि को उलझाकर भीतर जाने से रोकता है।
  3. कई प्रकार के जलपक्षी अपनी प्रीन ग्रन्थियों (preen glands) से sebum को स्रावित करते हैं जो इनके परों को जलरोधी बनाता है।
  4. मधुमक्खियाँ अपनी उदरीय ग्रन्थियों से स्रावित मोम (beeswax) से अपना छत्ता बनाती हैं। 
  5. पेड़ों की कॉर्क में सुबेरिन (suberin) नामक sebum की अधिकता होती है। लैनोलिन, मधुमक्खी के छत्ते के मोम आदि प्राकृतिक मोमों का उपयोग सौंदर्य प्रसाधनों के उत्पादन में किया जाता है।


(2) संयुक्त या संयुग्मित लिपिड (Compound or Conjugated Lipids)
ये वसीय अम्लों, ऐल्कोहॉलों तथा कुछ अन्य पदार्थों से बने यौगिक होते हैं। क्रियात्मक रूप से ये संरचनात्मक लिपिड (structural lipids) होते हैं जो जैव कलाओं (biological membranes) की रचना में प्रमुख रूप से भाग लेते हैं। याद रखो कि प्रत्येक जीव कोशिका (cell) एक कोशिकाकला (plasma membrane) से घिरी होती है जो इसे इसके बाहरी निर्जीव तरल वातावरण से अलग करती है। ऐसी ही एक या दो membrane अधिकांश कोशिकीय अंगकों (cell organelles) को कोशिकाओं के तरल जीव पदार्थ अर्थात् साइटोसॉल (cytosol) से अलग करती हैं। क्योंकि अन्तःकोशिकीय (intracellular) तथा बाह्यकोशिकीय (extracellular) दोनों ही पदार्थ जलीय तरल होते हैं। इनकी दो प्रमुख श्रेणियां होती है-

(A) फॉस्फोलिपिड्स (phospholipids)
(B) स्फिंगोलिपिड्स (sphingolipids)

(A) फॉस्फोलिपिड्स (Phospholipids) 
  1. ये कई प्रकार के होते हैं, परन्तु सबके अणुओं का प्रमुख भाग एक ही, समान पूर्ववर्ती (precursor) अणु का बना होता है जिसे फॉस्फैटिडिक अम्ल (phosphatidic acid) कहते हैं। 
  2. इस अणु के tail में ग्लिसरॉल अणु से जुड़े केवल दो वसीय अम्लों के अणु होते हैं। 
  3. head में ग्लिसरॉल अणु तथा इसके तीसरे कार्बन (C3) परमाणु से एक ऋणात्मक आवेशित (negatively charged) फॉस्फेट समूह (phosphate group-PO4) जुड़ा होता है। 
  4. इस फॉस्फेटिडिक अम्ल से मुख्यतः चार प्रकार के फॉस्फोलिपिड्स व्युत्पन्न (derived) होते हैं—लिसाइथिन्स (licithins), सिफैलिन्स ( cephalins), कार्डिओलिपिन्स (cardiolipins), तथा प्लाज्मैलोजेन्स (plasmalogens)
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(B) स्फिंगोलिपिड्स (Sphingolipids)
  1. ये जीव membranes की रचना में भाग लेने वाले दूसरी बड़ी श्रेणी के अणु होते हैं।
  2. ये सब सिरैमाइड (ceramide) नाम के एक ही, अणु से व्युत्पन्न (derive) होते हैं।
  3. सिरैमाइड अणु का प्रमुख भाग स्फिंगोसीन (sphingosine) नाम के एक ऐमीनो ऐल्कोहॉल का बना होता है।
  4. स्फिंगोसीन अणु सिरैमाइड का head भाग ही बनाता है, परन्तु इसमें एक वसीय अम्ल का अणु भी होता है।
  5. इसमें वसीय अम्ल के एक और अणु के जुड़ने से यह सिरैमाइड अणु बनता है। इस प्रकार, इसके tail भाग में दो वसीय अम्ल श्रृंखलाएँ हो जाती हैं। फिर स्फिंगोसीन के शेष कार्बन परमाणु से भिन्न-भिन्न प्रकार के अणुओं के जुड़ने से भिन्न-भिन्न प्रकार के स्फिंगोलिपिड्स बनते हैं। इनकी दो प्रमुख श्रेणियाँ होती हैं—स्किंगोमायलिन्स (sphingomyelins) तथा ग्लाइकोलिपिड्स (glycolipids)



(3) व्युत्पन्न लिपिड्स (Derived Lipids)
ये लिपिड उपापचय (lipid metabolism) के दौरान बनने वाले विविध पदार्थों से व्युत्पन्न विशेष प्रकार के लिपिड सदृश (resembling) यौगिक होते हैं। इनकी दो प्रमुख श्रेणियाँ होती हैं—

(A) टर्पीन्स (terpenes)
(B) आइकोसैनॉइड्स (icosanoids)

(A) टर्पीन्स (Terpenes)
ऐसीटिल सहएन्जाइम ए (acetyl CoA) के संघनन (condensation) से एक 5-कार्बनीय हाइड्रोकार्बन का अणु,
                     CH3
                         |
             (CH2=C–CH=CH2) (Isoprene)

बनता है जिसे आइसोप्रीन (isoprene) कहते हैं। आइसोप्रीन अणु अनेक विभिन्न प्रकार के जैव अणुओं का पूर्ववर्ती (pre cursor) होता है जिन्हें टर्पीन्स या टर्पिनॉइड्स (terpenoids) या आइसोप्रीनॉइड्स (isoprenoids) कहते हैं। विविध टर्पीन्स के संश्लेषण में आइसोप्रीन के दो या इससे अधिक अणु भाग लेते हैं। स्टीरॉइड (steroid) हॉरमोन्स तथा अन्य स्टीरॉइड पदार्थ, वसा में घुलनशील विटामिन (fat-soluble vitamins), कई प्रकार के वर्णक पदार्थ (pigments) तथा पादपों के गन्ध पदार्थ (fragrant compounds) टर्पीन्स ही होते हैं।


(B) आइकोसैनॉइड्स (Icosanoids) : लाइनोलीक (linoleic) तथा लाइनोलीनिक (linolenic) नाम के दो वसीय अम्ल मनुष्य तथा अन्य स्तनियों के लिए essential होते हैं, अर्थात् इन्हें केवल भोजन से ही प्राप्त किया जाता हैं। इनमें से लाइनोलीक अम्ल का विशेष महत्त्व होता है, क्योंकि इससे ऐरैकिडोनिक (arachidonic) नाम के वसीय अम्ल का संश्लेषण किया जाता है। ऐरैकिडोनिक अम्ल से फिर मुख्यतः निम्नलिखित तीन प्रकार के महत्त्वपूर्ण यौगिक–आइकोसैनॉइड्स– बनते हैं जो कोशिकाओं से ऊतक द्रव्य में स्रावित होकर स्थानीय हॉरमोन्स का काम करते हैं। यह तीन यौगिक इस प्रकार है-

1. थ्रॉम्बोक्सेन्स (Thromboxanes) : ये रुधिर की प्लेटलेट्स (platelets) में बनकर स्रावित होते हैं और blood clotting में सहायता करते हैं।

2. ल्यूकोट्रीन्स (Leucotrienes) : ये श्वेत रुधिर कणिकाओं (ल्यूकोसाइट्स— leucocytes— WBCs) में बनकर स्रावित होते हैं और वायु नलियों की दीवार की पेशियों में contraction को प्रेरित करके श्वास क्रिया में सहायता करते हैं। शरीर में इनकी अधिकता से दमा (asthma) हो सकता है।

3. प्रोस्टैग्लैंडिन्स (Prostaglandins) : ये वीर्य, स्त्रियों के menstrual fluid तथा कई ऊतकों के ऊतक द्रव्य में स्रावित होते हैं। चक्रीय AMP (cyclic AMP : cAMP) के बनने, menstruation तथा प्रसव के समय गर्भाशय की पेशियों के संकुचन, सोने-जागने, शरीर ताप को बढ़ाने तथा स्थानीय पीड़ा की उत्पत्ति आदि प्रक्रियाओं में इनका महत्त्वपूर्ण योगदान होता है। 

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