मध्योद्भिद्(Mesophytes) तथा लवणोद्भिद् (Halophytes) पौधे:परिभाषा, लक्षण|hindi


मध्योद्भिद् (समोद्भिद्) (Mesophytes) तथा लवणोद्भिद् (Halophytes) पौधे

मध्योद्भिद्(Mesophytes) तथा लवणोद्भिद् (Halophytes) पौधे:परिभाषा, लक्षण|hindi


मध्योद्भिद् पौधे उन स्थानों पर उगते हैं, जहाँ की जलवायु न तो बहुत शुष्क है और न ही बहुत नम है तथा ताप व वायुमण्डल की आपेक्षिक आर्द्रता (relative humidity) भी साधारण होती हैं। ये पौधे शाक, झाड़ी तथा वृक्ष सभी रूपों में होते हैं, उदा० गेहूँ, चना, मक्का, गुड़हल, आम, शीशम, जामुन आदि। यद्यपि इन पौधों में जलोद्भिद् तथा मरुद्भिद् पौधों की भाँति विशिष्ट रचनात्मक या क्रियात्मक अनुकूलन तो नहीं होता है, परन्तु कुछ अर्थों में ये जलोद्भिद् व मरुद्भिद् पौधों के बीच की स्थिति रखते हैं। इनके प्रमुख लक्षण निम्नलिखित हैं -

  1. जड़ तन्त्र सुविकसित होता है। जड़ें सामान्यतः शाखित होती हैं, इनमें मूलरोम (root hairs) व मूलगोप (root caps) पाये जाते हैं।
  2. तना वायवीय, ठोस तथा जाति के अनुसार स्वतन्त्र रूप से शाखित होता है।
  3. पत्तियाँ प्राय: बड़ी, चौड़ी तथा विभिन्न आकृतियों की होती हैं, प्रायः क्षैतिज दिशा में रहती हैं तथा इन पर रोम व मोमीय परत आदि नहीं होती है।
  4. बाह्यत्वचा (epidermis) सुविकसित होती है। सभी वायवीय भागों की बाह्यत्वचा पर उपत्वचा (cuticle) का पतला स्तर होता है।
  5. रन्ध्र (stomata) प्रायः पत्तियों की दोनों सतहों पर होते हैं, यद्यपि इनकी संख्या निचली सतह पर अधिक होती है।
  6. पर्णमध्योतक (mesophyll tissue), खम्भ ऊतक (palisade tissue) व स्पंजी मृदूतक (spongy parenchyma) में विभेदित होता है।
  7. संवहन ऊतक (vascular tissue) तथा यान्त्रिक ऊतक (mechanical tissue) विकसित होते हैं तथा भली प्रकार विभेदित होते हैं।
  8. इन पौधों में प्रायः दोपहर के समय अस्थायी म्लानता (temporary wilting) देखी जा सकती है।


लवणोद्भिद् (Halophytes) पौधे


लवणोद्भिद् विशेष प्रकार के मरुद्भिद् पौधे हैं, जो ऐसे स्थानों पर उगते हैं जहाँ पर जल अथवा मिट्टी में लवणों, जैसे NaCl, MgCl2 तथा MgSO4 की अधिक सान्द्रता होती है। इस प्रकार की भूमि कार्यिकी की दृष्टि से शुष्क (physiologically dry) होती है। अधिक लवण पौधों के लिये हानिकारक होते हैं। 

अतः लवणोद्भि पौधों में ऐसे अनुकूलन होते हैं जिनके कारण इनमें वरणात्मक अवशोषण (selective reabsorption) अधिक होता है, सोडियम क्लोराइड की अधिकता (0.5% या अधिक सान्द्रता) को सहने की सामर्थ्य होती है तथा अधिक लवणों वाली उस भूमि में उगने व वृद्धि करने की क्षमता होती है, जिसमें अन्य सामान्य पौधों का रह पाना असम्भव है। हमारे देश में मुम्बई, केरल तथा अण्डमान व निकोबार द्वीपसमूहों के समुद्रतटीय वेलांचली अनूप बनों (littoral swamp forest) को मेन्ग्रोव वनस्पति (mangrove vegetation) कहते हैं। 

इन पौधों के मुख्य अनुकूलन इस प्रकार हैं-


(A) लवणोद्भिद पौधों में आकारिकीय अनुकूलन (Morphological Adaptations in Halophytes)

लवणोद्भिद् पौधों के विभिन्न भागों की बाह्य रचना में निम्नलिखित विशेषताएँ अथवा अनुकूलन प्रमुख हैं—

➤  जड़ (Root) — जड़ें दो प्रकार की होती हैं— वायवीय (aerial) तथा भूमिगत् (subterranean)। वायवीय जड़ें दलदल से बाहर सीधी निकल जाती हैं और खूँटों जैसी रचनाओं के रूप में दिखायी देती हैं। ये जड़ें ऋणात्मक गुरुत्वाकर्षी (negatively geotropic) होती हैं इन पर अनेक छिद्र होते हैं। ये जड़ें श्वसन का कार्य करती हैं, इन्हें श्वसन मूल (pneumatophores) कहते हैं, जैसे सोनेरेशिया (Sonneratia), तथा एवीसीनिया (Avicennia) आदि। श्वसन मूलों द्वारा ग्रहण की गयी ऑक्सीजन न केवल जल निमग्न जड़ों के काम आती है, बल्कि इसे उस रुके लवणीय जल में रहने वाले जन्तु भी प्रयुक्त करते हैं। राइजोफोरा में प्रॉप मूल (prop roots) होती है, जो पौधे को दलदल वाली भूमि में स्थिर रखती है।

➤  तना (Stem) – तने प्रायः मोटे, माँसल व सरस होते हैं।

➤  पत्तियाँ (Leaves) – पत्तियाँ प्रायः मोटी व सरस होती हैं। ये सदाहरित (evergreen) होती हैं। कुछ पौधों में ये पतली तथा छोटी होती हैं।

➤  पितृस्थ अंकुरण (Vivipary) — मेन्ग्रोव पौधों में पितृस्थ अंकुरण एक विशिष्ट अनुकूलन है। प्रायः बीजों को अंकुरित होने के लिये ऑक्सीजन की आवश्यकता होती है। लवणीय दलदल में ऑक्सीजन की कमी होती है। अतः बीज, मातृ पौधे पर फल के अन्दर रहते हुए ही अंकुरित हो जाते हैं। इस गुण को पितृस्थ अंकुरण (vivipary) कहते हैं।


मध्योद्भिद्(Mesophytes) तथा लवणोद्भिद् (Halophytes) पौधे:परिभाषा, लक्षण|hindi



(B) लवणोद्भिद् पौधों में शारीरिकीय अनुकूलन (Anatomical Adaptations in Halophytes)

(1) जड़ - जड़ की आन्तरिक रचना में निम्न अनुकूलन पाये जाते हैं -
◾  भूमिगत् जड़ों में चारों ओर बहुस्तरीय कॉर्क पायी जाती हैं।

◾  जड़ की वल्कुट (cortex) की कोशाएँ ताराकृति (star-shaped) की होती हैं और परस्पर पार्श्वीय भुजाओं sun (lateral arms) द्वारा सम्बन्धित रहती हैं। कुछ कोशाएँ तेल व टैनिन युक्त होती हैं।

◾  पिथ कोशाएँ मोटी भित्ति की होती हैं और इनमें भी तेल व टैनिन संचित रहता है।


(2) तना (Stem) - तने की आन्तरिक रचना में निम्न विशेषताएँ हैं-

◾  बाह्यत्वचा की कोशाएँ मोटी भित्ति वाली होती हैं। तरुण तने में भी बाह्यत्वचा के चारों ओर उपत्वचा (cuticle) का मोटा स्तर होता है। बाह्यत्वचा की कोशाएँ तेल व टैनिन युक्त होती हैं।

◾  बाह्यत्वचा के नीचे बहुस्तरीय, मोटी भित्ति वाली कोशाओं की बनी अधोत्वचा होती है।

◾  प्राथमिक वल्कुट (cortex) में अनेक बड़े स्थान (lacunae) होते हैं, इनकी कोशाओं में टैनिन व तेल होता है। कुछ कोशाओं में कैल्सियम ऑक्सेलेट (calcium oxalate) के रवे होते हैं। H की आकृति की कंटिकाएँ (spicules) भी होती हैं, जो वल्कुट को यान्त्रिक शक्ति (mechanical strength) प्रदान करती है।

◾  परिरम्भ (pericycle) बहुस्तरीय तथा दृढ़ोतकीय (sclerenchymatous) होता है।

◾  पिथ में भी 'H' की आकृति की कंटिकाएँ होती हैं।

◾  संवहन बण्डल सुविकसित होते हैं।



(3) पत्तियाँ (Leaves) — पत्ती की आन्तरिक रचना में निम्न विशेषताएँ होती हैं -
◾  ऊपरी तथा निचली बाह्यत्वचा पर उपत्वचा की मोटी परत होती है।

◾  बाह्यत्वचा की कोशाएँ अधिक मोटी होती हैं और उनमें कैल्सियम ऑक्सेलेट के रवे होते हैं।

◾  रन्ध्र (stomata) प्रायः पत्ती की निचली सतह पर होते हैं तथा गड्ढों में स्थित होते हैं (sunken stomata)।

◾  ऊपरी बाह्यत्वचा के नीचे पतली भित्ति वाली कोशाओं के अनेक स्तर होते हैं, जिनमें पानी भरा होता है, बाहरी स्तरों की कोशाओं में तेल व टैनिन भी होता है।

◾  पर्णमध्योतक, भली प्रकार भिन्नित होता है।

◾  पत्ती की निचली सतह पर कॉर्क क्षेत्र (corky areas) पाये जाते हैं।


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