पौधों का वह भाग जो भ्रूण के मूलांकुर (radicle) से विकसित होता है प्राथमिक मूल (primary root) कहलाता है। प्राथमिक मूल से शाखाएँ व उपशाखाएँ भी निकलती हैं। ये सभी सम्मिलित रूप से मूल तन्त्र (root system) बनाते हैं। जड़ें सामान्यतः भूमिगत होती हैं। इनका मुख्य कार्य पौधे को भूमि पर स्थिर रखना तथा भूमि से जल व खनिज लवणों का अवशोषण करना है।
जड़ों के विशिष्ट लक्षण (Special Character of Roots)
- जड़ें बीज में स्थित भ्रूण के मूलांकुर (radicle) से विकसित होती हैं।
- जड़ों पर पर्व (nodes) व पर्वसन्धियों (intermodes) नहीं पायी जाती तथा इन पर पत्तियों, पुष्प व कलिकाओं का भी अभाव होता है।
- जड़ों में chlorophyll नहीं पाया जाता, इनका रंग भूरा होता है।
- जड़ों के शीर्ष पर एक टोपी पायी जाती है जिसे मूलगोप (root cap) कहते हैं। इसका कार्य कोमल वृद्धि प्रदेश (growing region) की रक्षा करना है।
- जड़ों के शीर्ष पर एककोशीय लम्बी पतली रचनाएँ पायी जाती हैं जिन्हें मूलरोम (root hairs) कहते हैं। ये भूमि से जल व खनिजों का अवशोषण करते हैं।
- जड़ें प्रकाश से दूर (negatively phototrophic) तथा भूमि की आकर्षण शक्ति की ओर (positively geotropic) जाती हैं।
- पार्श्व (side) जड़ों की उत्पत्ति अन्तर्जात (endogenous) होती है।
जड़ों के प्रकार (Types of Roots)
जड़ें साधारणतः दो प्रकार की होती हैं-
(a) मूसला जड़ें (Tap roots)
(b) अपस्थानिक जड़ें (Adventitious roots)
- मूसला जड़ें (Tap roots) — इन जड़ों में मूलांकुर (radicle) से विकसित प्राथमिक जड़ वृद्धि करके मुख्य जड़ के रूप में होती है, इससे द्वितीयक व तृतीयक जड़ें निकलती हैं। इन सभी को मिलाकर मूसला जड़ तन्त्र (tap root system) कहते हैं। ये जड़ें प्रायः द्विबीजपत्री पौधों में पायी जाती हैं।
- अपस्थानिक जड़ें (Adventitious roots) - ये जड़ें प्रायः एकबीजपत्री पौधों में पायी जाती हैं। इन पौधों में मूलांकुर, अंकुरण के पश्चात् शीघ्र ही नष्ट हो जाता है, अर्थात् प्राथमिक जड़ बहुत ही अल्पकालिक होती है। बाद में पौधे के किसी अन्य स्थान जैसे तने की निचली nodes से जड़ें उत्पन्न होती हैं। इस प्रकार की जड़ों के समूह को रेशेदार जड़ तन्त्र (fibrous root system) कहते हैं।
जड़ की आन्तरिक रचना (Internal Structure of Reeot)
द्विबीजपत्री (dicotyledonous) अथवा एकबीजपत्री (monocotyledonous) जड़ों की आन्तरिक रचना का अध्ययन करने से पहले जड़ के लक्षणों का ज्ञान होना आवश्यक है। ये निम्नलिखित हैं-
- इसकी बाह्यत्वचा को मूलीय त्वचा (epiblema) अथवा पिलीफेरस परत (piliferous layer=rhizodermis) कहते हैं, जिस पर असंख्य एककोशीय (unicellular) कम समय तक जीवित मूलरोम (root hairs) पाये जाते हैं। मूलीय त्वचा पर उपत्वचा (cuticle) तथा रन्ध्र (stomata) नहीं पाये जाते हैं।
- इनमें अधस्त्वचा (hypodermis) अनुपस्थित होती है।
- वल्कुट (cortex) मृदूतक (parenchyma) कोशाओं का बना होता है।
- अन्तस्त्वचा (endodermis) विकसित होती है।
- परिरम्भ (pericycle) मृदूतक (parenchyma) कोशाओं की बनी होती है।
- संवहन बण्डल ( vascular bundles) अरीय (radial) प्रकार के होते हैं।
- जाइलम की एक्सार्क (exarch) अवस्था होती है अर्थात् प्रोटोजाइलम केन्द्र से दूर तथा मेटाजाइलम केन्द्र की ओर स्थित होते हैं।
- कैम्बियम का अभाव होता है यद्यपि द्विबीजपत्री जड़ों में यह द्वितीयक वृद्धि के समय बन जाती है।
- जाइलम तथा फ्लोएम समूह के मध्य मृदूतक (parenchyma) पाया जाता है। इसको संयोजी ऊतक (connective tissue) कहते हैं।
द्विबीजपत्री जड़ों में द्वितीयक वृद्धि (Secondary growth in Dicot Roots)
सभी काष्ठीय द्विबीजपत्री पौधों की जड़ों में द्वितीयक वृद्धि होती है। तने की ही भाँति जड़ की मोटाई में वृद्धि रम्भ (stele) के अन्दर और बाहर द्वितीयक ऊतकों के निर्माण से होती है। यह वृद्धि जड़ के शीर्ष भाग से कुछ सेमी पीछे से आरम्भ होती है।
1. एधा अथवा कैम्बियम की उत्पत्ति और सक्रियता (Origin and Activity of the Cambium)
द्विबीजपत्री जड़ों में अरीय (radial) संवहन बण्डलों की संख्या सीमित होती है और जाइलम एक्सार्क (exarch) होती है। सबसे प्रथम प्रत्येक फ्लोएम पूल में नीचे की मृदूतक (parenchyma) कोशाएँ विभज्योतकी (meristematic) हो जाती हैं और इस प्रकार से कैम्बियम पट्टियाँ (strips) उतनी ही बनती हैं जितने फ्लोएम पूल होते हैं। ये पट्टियाँ वक्राकार होती हैं। कैम्बियम की ये कोशाएँ बाह्यत्वचा में समानान्तर विभाजित होकर द्वितीयक ऊतक बनाती हैं। शीघ्र ही परिरम्भ (pericycle) की वे कोशाएँ जो प्रोटोजाइलम के ठीक सामने होती हैं विभज्योतकी (meristematic) हो जाती हैं और कोशाओं की कुछ परतें बनाती हैं। ये परतें कुछ समय पूर्व बनी कैम्बियम की पट्टियों से मिल जाती हैं और इस प्रकार कैम्बियम की एक लहरियेदार (wavy) पूर्ण वलय (ring) बन जाती है। यह वलय फ्लोएम समूहों के अन्दर की ओर तथा जाइलम समूहों के ऊपर की ओर स्थित होता है। इस प्रकार उत्पन्न हुआ कैम्बियम वलय पूर्ण रूप से द्वितीयक विभज्योतकी (secondary meristem) होता है।
प्रारम्भ में कैम्बियम वलय का वह भाग जो फ्लोएम के नीचे होता है अधिक क्रियाशील हो जाता है और अन्दर की ओर द्वितीयक जाइलम का निर्माण करता है जिसके फलस्वरूप लहरियेदार कैम्बियम गोलाकार हो जाता है। अब कैम्बियम का पूर्ण घेरा विभज्योतकी (meristematic) हो जाता है और ठीक द्विबीजपत्री तने की भाँति ही अन्दर की ओर अधिक मात्रा में द्वितीयक जाइलम तथा बाहर की ओर कम मात्रा में द्वितीयक फ्लोएम बनाता है। द्वितीयक संवहन ऊतक (secondary vascular tissue) द्वारा एक पूर्ण घेरा बन जाता है और इसी के अन्दर प्राथमिक जाइलम धँसा रहता है। साधारणतया प्राथमिक फ्लोएम कुचली हुई अवस्था में दिखलायी पड़ता है। परिरम्भ से उत्पन्न कैम्बियम की वे कोशिकाएँ जो प्रोटोजाइलम समूहों से ऊपर पायी जाती हैं, चौड़ी संवहन किरणें = मेड्युलरी किरणें (vascular rays = medullary rays) बनाती हैं। ये किरणें मृदूतकीय कोशाओं की बनी होती हैं और पट्टियों के रूप में प्रोटोजाइलम से लेकर द्वितीयक फ्लोएम तक फैली रहती हैं।
2. काग एधा (कॉर्क कैम्बियम) की उत्पत्ति और सक्रियता (Origin and Activity of Cork Cambium)
परिरम्भ (pericycle) की एक परत विभज्योतकी (meristematic) होकर काग एधा (cork cambium) अथवा कागजन (phellogen) बनाती है। phellogen बाहर की ओर कत्थई रंग की कुछ काग कोशिकाएँ (cork cells) अथवा काग (phellem) की परतें बनाती हैं और अन्दर की ओर कागस्तर (phelloderm) अथवा द्वितीयक बल्कुट (secondary cortex) बनाती है। phelloderm की कोशिकाएँ मृदूतक की बनी होती हैं परन्तु इनमें तनों के द्वितीयक वल्कुट की भाँति हरितलवक (chloroplast) नहीं पाये जाते हैं। द्वितीयक ऊतकों के निर्माण के दबाव के कारण अन्तस्त्वचा (endodermis) सहित cortex फट जाती है। मूलीयत्वचा (epiblema) कोशिकाएँ पहले ही नष्ट हो जाती हैं। कुछ स्थानों पर वातरन्ध्र (lenticels) भी बन जाते हैं। cork cambium, phellem तथा phelloderm को सम्मिलित रूप से परिचर्म (periderm) भी कहते हैं। काग कोशाएँ जड़ के अन्दर की कोशाओं को जल की हानि और सूक्ष्म जन्तुओं से जड़ की रक्षा करती हैं।
जड़ों द्वारा संग्रह (Storage By Roots)
(1) जल का संग्रह (Storage of water) - शुष्क स्थानों में पाये जाने वाले कुछ पौधों में जड़ें माँसल होती हैं और जल संग्रह का कार्य करती हैं, जैसे सतावर (Asparagus)।
(2) भोजन का संग्रह (Storage of food) - कुछ पौधों के हरे भागों में प्रकाश-संश्लेषण क्रिया द्वारा निर्मित भोजन जड़ में पहुँचकर उनकी वल्कुट (cortex) की मृदूतक कोशाओं (parenchyma cells) में संचित हो जाता है। ऐसी जड़ें फूलकर मोटी तथा माँसल (fleshy) हो जाती हैं तथा विभिन्न आकृतियों में रूपान्तरित (modified) हो जाती हैं। ये रूपान्तरण मूसला व अपस्थानिक दोनों प्रकार की जड़ों में होते हैं।
(A) मूसला जड़ों के रूपान्तरण (Modification of tap roots)
मूसला जड़ें मूलांकुर (radicle) से विकसित होती हैं और प्रायः द्विबीजपत्री पौधों में पायी जाती हैं। कुछ पौधों में ये भोजन संचय के कारण निम्न प्रकार से रूपान्तरित हो जाती हैं -
- तर्कुरूप (Fusiform)— इस प्रकार की जड़ें भोजन संचय के कारण बीच में मोटी तथा दोनों किनारों की ओर पतली होती हैं। इनसे द्वितीयक तथा तृतीयक जड़ें निकलती हैं, जैसे मूली (Raphanus sativus)।
- शंकुरूप (Conical) — ये जड़ें भोजन संचय के कारण ऊपर से मोटी तथा नीचे की ओर क्रमशः पतली होती चली जाती हैं, जैसे गाजर (Daucus carota)।
- कुम्भीरूप (Napiform) — ये जड़ें भोजन संचय के कारण ऊपर से बहुत मोटी गोलाकार हो जाती हैं तथा नीचे का भाग एकाएक पतला हो जाता है, जैसे शलजम (Brassica rapa), चुकन्दर (Beta vulgaris)।
- कन्दिल (Tuberous) — इस प्रकार की जड़ें किसी स्थान पर फूलकर मोटी हो जाती हैं और इनकी कोई निश्चित आकृति नहीं होती, जैसे मिरेबिलिस (Mirabilis)।
(B) माँसल अपस्थानिक जड़ों के रूपान्तरण (Modifications of fleshy adventitious roots)
- कन्दिल जड़ें (Tuberous roots) — ये जड़ें तने की गाँठ (nodes) से निकलकर भूमि में प्रवेश करती हैं और भोज्य पदार्थों के एकत्रित होने से ये फूलकर अनियमित आकार की हो जाती हैं, जैसे शकरकन्द (Ipomea batatas)।
- कदगुच्छ या पुलिकित जड़ें (Fasciculated roots) — ये अपस्थानिक जड़ें तने के आधार से गुच्छे के रूप में निकलती हैं और कन्दिल जड़ों की भाँति अनियमित आकार की होती हैं, जैसे डहेलिया (Dahlia), सतावर (Asparagus)।
- ग्रन्थिल जड़ें (Nadulose roots) — इस प्रकार की जड़ों में प्रायः जड़ का अग्र भाग फूलकर ग्रन्थि समान हो जाता है, जैसे आमाहल्दी (Curcuma amada)।
- मणिकामय (Beaded or monitiform) - ये जड़ें थोड़ी-थोड़ी दूरी पर फूलकर एक मणिका समान रचना बना लेती हैं, जैसे वाइटिस (Vitis trifolia)।
- वलयाकार जड़ें (Annular roots) — इस प्रकार की जड़ें पास पास फूलकर छल्लों (rings) के समान रचना बना लेती हैं, जैसे साइकोर्टिया (Psychortia)।
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