आपेक्षिक आर्द्रता - आर्द्रता से सम्बन्धित कुछ घटनाएँ|hindi


आपेक्षिक आर्द्रता का दैनिक जीवन पर प्रभाव
आपेक्षिक आर्द्रता - आर्द्रता से सम्बन्धित कुछ घटनाएँ|hindi

आपेक्षिक आर्द्रता  के बारे में हम पहले ही पढ़ चुके हैं तथा इसके द्वारा होने वाले कई लाभों को भी जान चुके हैं। आज हम आपेक्षिक आद्रता का हमारे दैनिक जीवन पर क्या प्रभाव पड़ता है इसके बारे में जानेंगे तथा आद्रता से संबंधित कुछ घटनाओं पर प्रकाश डालेंगे।

(1) गर्मियों में वर्षा होने से पहले हमें व्याकुलता होने लगती है : गर्मियों में जब आकाश स्वच्छ होता है तब आपेक्षिक आर्द्रता कम होती है। अतः हमारे शरीर से निकला पसीना वाष्पीकरण द्वारा सूखता रहता है और इस प्रकार हमारे शरीर की अतिरिक्त ऊष्मा (जो कि शरीर में रासायनिक क्रियाओं द्वारा प्रत्येक समय उत्पन्न होती रहती है) बाहर निकलती रहती है। अतः वायुमण्डल का ताप अधिक होते हुए भी हमें व्याकुलता नहीं होती। परन्तु वर्षा होने से पहले वायु नम हो जाती है अर्थात् उसकी आपेक्षिक आर्द्रता बढ़ जाती है, जिससे वाष्पन की दर अत्यन्त कम हो जाती है। अत: पसीना नहीं सूखता तथा शरीर में चिपचिपाहट हो जाती है (इसीलिये यह कहा जाता है कि बरसात में सड़ी गर्मी पड़ती है)। तब हम शरीर की अतिरिक्त ऊष्मा के कारण व्याकुलता का अनुभव करने लगते हैं।

(2) बरसात में जाड़े की अपेक्षा वायुमण्डल का ताप अधिक होता है परन्तु फिर भी गीले कपड़े देर से सूखते हैं : गीले कपड़े वाष्पन द्वारा सूखते हैं। बरसात में जाड़े की अपेक्षा आपेक्षिक आर्द्रता अधिक होती है, जिससे कि वाष्पन की दर बहुत कम रहती है। अत: कपड़े देर से सूखते हैं।


आर्द्रता से सम्बन्धित कुछ घटनाएँ
ओस, पाला, कुहरा, बादल तथा वर्षा आदि प्राकृतिक घटनाएँ वायु में उपस्थित जल वाष्प के भिन्न-भिन्न रूपों में संघनन होने के कारण होती हैं। इनका वर्णन नीचे किया गया है-

(1) ओस (Dew) : गर्मियों में प्रातःकाल के समय पृथ्वी, पत्थर के टुकड़ों घास, पौधों, इत्यादि पर जल की छोटी-छोटी बूँदें चमकती रहती है। इसी को 'ओस' कहते हैं। दिन के समय समुद्र, तालाब, नदियों इत्यादि का जल वाष्प बनकर वायु में मिलता रहता है। परन्तु ताप अधिक होने के कारण वायु फिर भी असंतृप्त रहती है। रात को पृथ्वी तथा उस पर स्थित वस्तुयें विकिरण द्वारा ठण्डी होने लगती हैं। अतः इनके सम्पर्क में आयी वायु का ताप गिरने लगता है, यहां तक कि (ओसांक पर ) वायु में उपस्थित वाष्प उसे संतृप्त कर देती है। ताप के तनिक भी और गिरने पर कुछ वाष्प ओस की बूंदों के रूप में ठण्डी वस्तुओं पर संघनित हो जाती है।
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ओस बनने के लिये निम्न बातों का होना आवश्यक है :

स्वच्छ आकाश: आकाश स्वच्छ होने पर विकिरण तेजी से होता है। परन्तु यदि रात के समय आकाश में बादल है तो पृथ्वी से चले ऊष्मा के विकिरण, बादलों से टकराकर पृथ्वी पर लौट आते हैं जिससे पृथ्वी ठण्डी नहीं हो पाती है। अतः ओस नहीं गिरती है।

शान्त वायु: यदि वायु में प्रवाह होगा तो ठण्डी पृथ्वी के सम्पर्क में वायु की भिन्न-भिन्न पर्तें आती रहेंगी जिससे वायु का ताप ओसाँक के नीचे नहीं गिरेगा।

गर्म दिन: जब दिन गर्म होता है तो वाष्पन अधिक होने के कारण वायु में वाष्प अधिक रहती है। अतः आने वाली रात में ओस अधिक पड़ती है।
घास तथा पौधों की पत्तियों पर ओस जमने का एक अन्य कारण भी है। पौधे पृथ्वी से केशिका क्रिया (capillary action) द्वारा जल खींचते रहते हैं तथा उसे वाष्प के रूप में वायु में भेजते रहते हैं। परन्तु जब वायु संतृप्त होती है तो यह वाष्प वायु में न जाकर पत्तियों पर ही ओस के रूप में जम जाती है।


(2) पाला (Hoar frost): जाड़े के दिनों में कभी-कभी पृथ्वी व पौधों पर बर्फ के अत्यन्त महीन रखे बैठ जाते हैं। इसे 'धवल तुषार' या 'पाला' कहते हैं। जाड़ों में वाष्पन बहुत धीमा होने से, वायु में वाष्प बहुत कम होती है। अतः वायु बहुत नीचे ताप पर संतृप्त हो जाती है, अर्थात् ओसाँक बहुत नीचा (यहाँ तक कि 0°C से भी कम) हो जाता है। जब पृथ्वी तथा अन्य पदार्थों का ताप ओसांक से भी कम होता है तो उनके सम्पर्क में आयी वायु की वाष्प 0°C पर पहुँचने पर (अर्थात्, ओसांक से पहले ही) सीधे बर्फ के रूप में जम जाती है। अतः धवल तुषार में वाष्प का सीधे बर्फ में परिवर्तन होता है। कभी-कभी वायु में वाष्प की मात्रा इतनी कम होती है कि ताप के 0°C से कम हो जाने पर भी वायु संतृप्त नहीं होती तथा बर्फ के रवे नहीं जमते। इस दशा को 'काला-तुषार' (black-frost) कहते हैं।
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किसान अपनी फसल को पाले से बचाने के लिये कई उपाय करता है। वह खेत के चारों तरफ उपले इत्यादि जलाकर धुआँ कर देता है जिसमें कार्बन के कण होते हैं। तब पृथ्वी से निकलने वाली ऊष्मा इन कणों से परावर्तित होकर वापस लौट जाती है जिससे कि पृथ्वी का ताप अधिक नहीं गिरने पाता। वह पौधों को सूखी घास तथा पत्तियों से ढक कर भी पाले से बचाता है। पौधों को पाले से बचाने की सबसे अच्छी विधि खेत में सिंचाई कर देना है।

(3) कुहासा तथा कुहरा (Mist and Fog): कभी-कभी जाड़ों की स्वच्छ रात्रि में पृथ्वी की सतह के साथ-साथ पृथ्वी से कुछ ऊँचाई तक की वायु का ताप भी ओसांक से नीचे गिर जाता है। तब वाष्प वायु में उपस्थित धूल तथा धुयें के कणों पर ही संघनित हो जाती है। इससे वायुमण्डल धुधंला-सा हो जाता है। इसी को 'कुहासा' कहते हैं। जब यह इतना अधिक बढ़ जाता है कि उसके आर-पार देखना कठिन हो जाता है तब इसे 'कुहरा' कहते हैं। व्यवसायी शहरों में जहाँ कारखाने बहुत होते है, वायुमण्डल में घुये तथा धूल के कणों के कारण, जाड़ों में बहुदा कुहरा छा जाता है। धूप निकलने पर वायु का ताप बढ़ने लगता है यहाँ तक कि वाष्प असंतृप्त अवस्था में आ जाती है। अत: कुहरा वाष्पन के द्वारा अदृश्य हो जाता है।
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(4) बादल तथा वर्षा (Cloud and Rain) : जब पृथ्वी के समीप की वायु गर्म तथा नम होती है तो यह ऊपर की वायु की अपेक्षा हल्की होने के कारण, ऊपर उठती है। ऊपर वायुमण्डल का दाब कम होता है, अतः यह वायु फैलती है। इससे इस वायु का ताप गिरने लगता है। जैसे-जैसे वायु ऊपर उठती जाती है, वैसे- वैसे ताप गिरता जाता है। जब ताप ओसांक तक गिर जाता है तो वायु में उपस्थित वाष्प धूल व धुयें इत्यादि के कणों पर संघनित हो जाती है तथा छोटी-छोटी बूँदें बन जाती हैं। प्रारम्भ में ये बूंदें छोटी होने के कारण दिखाई नहीं देतीं तथा वायु इन्हें अपने साथ ऊपर उठाती रहती है। ऊपर जाने में इनका आकार बढ़ता रहता है। जैसे ही बूंदों की त्रिज्या लगभग 0.0001 सेमी हो जाती है, वैसे ही ये दिखाई देने लगती हैं। इन्हीं को 'बादल' कहते हैं। (कुहरा और बादल में केवल यह अन्तर है कि कुहरा पृथ्वी के निकट बनता है जबकि बादल ऊँचाई पर बनते हैं)।


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