परागण (Pollination) किसे कहते हैं?: परिभाषा, प्रकार|hindi


परागण (Pollination) किसे कहते हैं?

परागण (Pollination) किसे कहते हैं?: परिभाषा, प्रकार|hindi

परागण (Pollination) की परिभाषा

पुष्पों में पुंकेसर (stamen) तथा स्त्रीकेसर (pistil) प्रजनन क्रिया के लिये एक आवश्यक अंग हैं। पुंकेसरों में परागकणों (pollen grains) का निर्माण होता है जो नर युग्मक अथवा शुक्राणु (sperms) उत्पन्न करते हैं। वहीं स्त्रीकेसरों में अण्डाशय का निर्माण होता है जिसमें मादा युग्मक अथवा अण्डाणु (egg) बनता है। प्रजनन क्रिया का पूरा होने के लिए नर तथा मादा युग्मकों का संयुग्मन (fusion) होना आवश्यक है। 

चूँकि अधिकांश पौधों में परागकणों (pollen grains) के संचालन (locomotion) का अभाव होता है, इस कारण परागकणों के gynoecium तक पहुँचने के लिये इन्हें विभिन्न ढंग अपनाने पड़ते हैं। परागकणों के परागकोश (anther) से वर्तिकाग्र (stigma) तक पहुँचने की इस क्रिया को ही परागण (pollination) कहते हैं। परागण के पश्चात् पुंकेसर (stamen) और दल (Petals) गिर जाते हैं, बाह्यदल या तो गिर जाते हैं या फल में चिरलग्न रहते हैं।

परागण (pollination) दो प्रकार का होता है-
  1. स्व-परागण (Self-pollinations)
  2. पर-परागण (Cross-pollinations)

स्व-परागण (Self-pollinations Or Autogamy)

स्व-परागण एक ऐसी प्रक्रिया है जिसमें एक पुष्प के परागकण उसी पुष्प अथवा उसी पौधे के किसी दूसरे पुष्प के वर्तिकाग्र (stigma) पर पहुँचते हैं। अतः स्व-परागण के दो भेद किये जा सकते हैं-

1. पहली वह अवस्था जिसमें एक द्विलिंगी (bisexual) पुष्प के परागकण, उसी पुष्प के वर्तिकाग्र पर पहुँचते हैं।

2. दूसरी वह अवस्था जिसमें एक ही पौधे के पुष्प (चाहे एकलिंगी नर पुष्प हों या द्विलिंगी पुष्प हों) के परागकण उसी पौधे के दूसरे पुष्प (मादा पुष्प या दूसरा द्विलिंगी पुष्प) के वर्तिकाग्र पर पहुँचते हैं। स्व-परागण के अंतर्गत आने वाली इस विशेष अवस्था को सजातपुष्पी परागण (geitonogamy) कहते हैं।

उपरोक्त वर्णन से स्पष्ट होता है कि स्व-परागण की क्रिया दोनों ही प्रकार के पुष्पों (द्विलिंगी तथा एकलिंगी) में पाई जाती है, जबकि दोनों प्रकार के पुष्प केवल एक ही पौधे पर निकलते हैं। स्व-परागण का मुख्य लक्षण यह होता है कि इसमें बीज उत्पन्न करने में केवल एक पौधा काम आता है। दो भिन्न-भिन्न पौधों पर उत्पन्न होने वाले एकलिंगी पुष्पों, अर्थात् dioecious plants के पुष्पों में यह क्रिया बिल्कुल नहीं होती है। अधिकांश पुष्पों में पर-परागण ही हो जाता है। स्व परागण तो बहुधा उसी समय होता है जब पर-परागण विफल हो जाता है।

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स्व-परागण के लिये युक्तियाँ (Contrivances for Self-pollination)

स्व-परागण को सफल बनाने के लिये पौधों में निम्नलिखित युक्तियाँ या साधन पाये जाते हैं-
  1. द्विलिंगता
  2. सहपक्वता या समकालपक्वता
  3. निमीलिता

1. द्विलिंगता (Bisexuality or hermaphroditism)
द्विलिंगी पुष्प वे पुष्प होते हैं जिसमें दोनों जननांग एक ही पुष्प में विद्यमान होते हैं। ऐसा होने से इनमें स्व-परागण (self pollination) के अवसर अधिक हो जाते हैं। जबकि एकलिंगी पुष्पों में स्व-परागण की प्रक्रिया हो ही नहीं सकती है।

2. सहपक्वता या समकालपक्वता (Homogamy)द्विलिंगी पुष्पों में नर तथा मादा जननांगों के एक साथ परिपक्व होने को सहपक्वता (homogamy) कहते हैं। सहपक्व पुष्पों (homogamous flowers) में स्व-परागण, परागकणों के परागकोश से वायु या कीटों द्वारा वर्तिकाग्र (stigma) पर पहुँचने से होता है।कभी-कभी पुंकेसरों के पकने पर उनके पुंतन्तु मुड़कर वर्तिकाग्र (stigma) के निकट पहुँच जाते हैं और परागकोश फटकर अपना पराग उस पर बिखेर देते हैं, जैसे गुलाबॉस (Mirabilis), पीली-कटेली (Argemone), आदि में।

3. निमीलिता (Cleistogamy) - कुछ द्विलिंगी पुष्प ऐसे होते हैं जो कभी भी नहीं खिलते हैं। इन पुष्पों को निमीलित पुष्प (cleistogamous flowers) कहते हैं। ऐसे पुष्पों में बन्द अवस्था में ही परागकोश फट जाते हैं जिससे परागकण पुष्प के वर्तिकाग्र पर बिखर जाते हैं और स्व-परागण हो जाता है, जैसे कनकौआ (Commelina), गुलमेंहदी (Impatiens), बनफसा (Viola), मूँगफली (Arachis), खट्टी-बूटी (Oxalis), जैसे पुष्प। इनमें परागण इसी प्रक्रिया द्वारा होता है।


स्व-परागण के लिये अनुकूलित पृथक्पक्व पुष्प (Dichogamous Flowers Adapted for Self-pollination)

द्विलिंगी पुष्पों में नर तथा मादा जननांगों के अलग-अलग समय पर परिपक्व होने को पृथपक्वता (dichogamy) कहते हैं। पृथपक्व पुष्पों में सामान्यतया कीटों द्वारा पर-परागण होता है। लेकिन पर-परागण के असफल होने पर इन पुष्पों में स्व-परागण की व्यवस्था भी रहती है। ऐसे कुछ पुष्प जिनमें स्व-परागण निम्न प्रकार से होता है इनका वर्णन इस प्रकार है-

1. संकीर्ण दलपुंज नलिका (narrow corolla tube) वाले पुष्पों में स्व-परागण — कुछ पुष्पों में परागकोश संकीर्ण दलपुंज नलिका (narrow corolla tube) के मुख पर स्थित होते हैं और वर्तिकाग्र नलिका के मुख के नीचे स्थित होता है। परागण क्रिया के समय वर्तिकाग्र के नलिका के बाहर निकलने पर ये परागकोश फट जाते हैं जिसके फलस्वरूप परागकण वर्तिकाग्र के ऊपर बिखर जाते हैं, जैसे सदाबहार (Catharanthus), गन्धराज (Gardenia), इक्जोरा (Ixora), आदि में।

2. सूर्यमुखी (Helianthus) में स्व-परागण - सूर्यमुखी अर्थात् कम्पोजिटी (Compositae) कुल के पौधों में सामान्यतया पर-परागण ही होता है। इनके पुष्पों के पुंकेसर, स्त्रीकेसर से पहले पकते हैं, अर्थात् ये protandrous होते हैं। सूर्यमुखी में वर्तिकाग्र bilobed होता है और यह anther tube में छिपा रहता है। परिपक्व होने पर anther pollen grains को नाल के अन्दर बिखेर देते हैं। इस समय स्व-परागण सम्भव नहीं होता क्योंकि stigma की receptive surface अपरिपक्व होती है और साथ ही साथ ढकी रहती है। 

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परिपक्व होने पर bilobed stigma ऊपर वृद्धि करके परागकोश नाल के बाहर निकल जाता है और इसकी दोनों पालियाँ खुल जाती हैं। इसी प्रकार कीटों द्वारा पर परागण क्रिया होती है। लेकिन पर-परागण के असफल रहने पर stigma की दोनों पालियाँ बाहर की ओर मुड़ती हैं जिससे इनकी संग्रहण सतह रोमयुक्त वर्तिका (hairy style) के स्पर्श में आ जाती है जिस पर परागकण चिपके रहते हैं। इस प्रकार स्व-परागण सम्पन्न हो जाता है।

स्व- परागण से लाभ (Advantages of Self-pollination)

1. पुष्पों में स्व-परागण का होना निश्चित होता है जिसके कारण पौधों का वंश चलता रहता है। 

2. स्व-परागित पुष्पों को परागण क्रिया के लिये दूसरे पुष्पों पर निर्भर नहीं रहना पड़ता है। 

3. स्व -परागित पुष्पों को रंग, सुगन्ध तथा मधु उत्पन्न करने की आवश्यकता नहीं पड़ती है। 

4. स्व- परागण में अधिक परागकणों की आवश्यकता नहीं पड़ती जिससे परागकण व्यर्थ नष्ट नहीं होते हैं। 

5. स्व-परागित बीज शुद्ध नस्ल के होते हैं, अर्थात् इनके पैतृक गुण वही रहते हैं जो उस पौधे के होते हैं।


स्व-परागण से हानियाँ (Disadvantages of Self-pollination)

  1. स्व-परागण से उत्पन्न बीजों से बने पौधे कमजोर होते हैं।
  2. स्व-परागण से उत्पन्न बीज संख्या में कम, भार में हल्के तथा आकार में छोटे होते हैं। 
  3. ऐसे बीज शीघ्र नहीं पकते है। 
  4. ऐसे बीज उत्तम श्रेणी के नहीं होते जिसके कारण नई जातियों की उत्पत्ति नहीं हो सकती है।

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पर-परागण (CROSS-POLLINATION OR ALLOGAMY)

पर-परागण में एक पुष्प के परागकण उसी जाति के दूसरे पौधे के पुष्प के वर्तिकाग्र (stigma) पर पहुँचते हैं। यहाँ पर दोनों पुष्प दो अलग-अलग पौधों पर लगे रहते हैं चाहें वे एकलिंगी हों या द्विलिंगी। पर-परागण क्रिया का मुख्य लक्षण यह है कि इसमें बीज उत्पन्न करने के लिये एक ही जाति के दो पौधे काम में आते हैं। dioecious plants के पुष्पों में केवल पर-परागण ही सम्भव होता है। द्विलिंगी पुष्पों में यह सामान्यतया पाया जाता है।


पर-परागण के लिये युक्तियाँ (Contrivances for Cross-pollination)

पौधे में स्व-परागण (self-pollination) की क्रिया को रोकने तथा पर-परागण (cross-pollination) की क्रिया को सफल बनाने के लिये निम्नलिखित युक्तियाँ पाई जाती हैं-

1. एकलिंगता (Unisexuality or dicliny) - एकलिंगी पुष्पों में नर तथा मादा जननांग अलग-अलग पुष्पों पर पाए जाते हैं। एकलिंगता दो प्रकार की होती है-
  • एकक्षयक या उभयलिंगाश्रयी (monoecious) - जब नर तथा मादा पुष्प एक ही पौधे पर लगे होते हैं, ऐसे पौधे को monoecious कहते हैं, जैसे लौकी, कद्दू, खीरा, मक्का, अरण्डी, एरम, आदि। monoecious पौधों में बहुधा नर पुष्प शीर्ष की ओर तथा मादा पुष्प नीचे की ओर लगे रहते हैं। इनमें स्व-परागण हो सकता है। 
  • द्विक्षयक या एकलिंगाश्रयी (dioecious)– जब नर तथा मादा पुष्प दो भिन्न पौधों पर लगे होते हैं, ऐसे पौधों को dioecious कहते हैं, जैसे पपीता, शहतूत, भाँग, केवड़ा, आदि। dioecious पौधों में केवल पर-परागण ही सम्भव है।

2. स्व बन्ध्यता (Self-sterility or incompatibility) - यह वह स्थिति होती है जिसमें एक पुष्प का निषेचन (fertilization) उसके ही परागकणों द्वारा नहीं हो सकता, जैसे झुमकलता (Passiflora), आलू, तम्बाकू, माल्वा (Malva), आदि। इन पौधों में जब एक पुष्प के परागकण उसी पुष्प के वर्तिकाग्र (stigma) पर पहुँचते हैं तो उनका अंकुरण (germination) नहीं हो पाता है। लेकिन जब ये परागकण उसी जाति के दूसरे पुष्पों के वर्तिकाग्र (stigma) पर पहुँचते हैं तो अंकुरित हो जाते हैं।

3. स्व-दूषण (Self-poisoning)—कुछ पौधों, जैसे ऑर्किड्स (Orchids) में जब एक पुष्प के परागकण उसी पुष्प के वर्तिकाग्र (stigma) पर पहुँचते हैं तो विष का काम करते हैं जिससे ये पुष्प तुरन्त सूख जाते हैं।

4. पृथकूपक्वता या भिन्नकालपक्वता (Dichogamy) - बहुत से द्विलिंगी (bisexual) पुष्पों में नर तथा मादा जननांगों के अलग-अलग समय पर पकने को पृथक्पक्वता (dichogamy) कहते हैं। स्पष्टतः इन पुष्पों में स्व-परागण सम्भव नहीं हो पाता। पृथक्पक्वता दो प्रकार की होती है-

  • पूर्वपुँपक्वता (protandry) - इस दशा में पुष्प में परागकोश अण्डाशय से पहले पकते हैं और फटकर अपने परागकण गिरा देते हैं जो दूसरे पुष्पों के वर्तिकाग्र (stigma) पर पहुँचकर परागण करते हैं। ऐसे पुष्पों को पूर्वपुँपक्व (protandrous) कहते हैं, जैसे गुड़हल, कपास, सूर्यमुखी, गैंदा, धनिया, सौंफ, बेला (Jasminum), आदि। यह दशा पूर्वस्त्रीपक्वता की अपेक्षा अधिक सामान्य है।
  • पूर्वस्त्रीपक्वता (protogyny) - इस दशा के पुष्प का अण्डाशय परागकोश से पहले पकता है और वर्तिकाग्र दूसरे पुष्प से आये परागकणों को ग्रहण कर परागण क्रिया सम्पन्न करता है। ऐसे पुष्पों को पूर्वस्त्रीपक्च (protogynous) कहते हैं, जैसे बरगद, पीपल, अशोकन (Polyalthia), शरीफा (Anona), चम्पा (Michelia), अर्कमूल (Aristolochia), गुलाब, तम्बाकू, आदि।

5. विषमरूपता (Heteromorphism) - कुछ पौधों में परागकोश तथा वर्तिकाग्र (stigma) की स्थिति के आधार पर पुष्प दो प्रकार के (द्विरूपी = dimorphic) अथवा तीन प्रकार के (त्रिरूपी =trimorphic) हो सकते हैं। पुष्पों में यह विषमरूपता दो कारणों से होती है-

  • विषमपरागकोशता (heteroanthy) - जब विभिन्न पुष्पों के परागकोश भिन्न-भिन्न प्रकार के हों।
  • विषमवर्तिकात्व (heterostyly) - जब विभिन्न पुष्पों के वर्तिकाग्र अलग-अलग लम्बाई के हों। उदाहरणार्थ, द्विरूपता प्रिमरोज (Primula), अलसी (Linum), कूटू (Fagopyrum), आदि के पुष्पों में तथा त्रिरूपता खट्टी-बूटी (Oxalis), लाइथ्रम (Lythrum), आदि के पुष्पों में पायी जाती है।

6. अनात्मपरागणता (Herkogamy) - कुछ विशेष संरचना वाले समकालपक्व पुष्पों के पुष्पीय भागों में कुछ ऐसे अनुकूलन (adaptations) होते हैं जिससे कि उनमें स्व-परागण (self-pollination) नहीं हो पाता। दशा को अनात्मपरागणता कहते हैं। कुछ प्रमुख अनुकूलन निम्न प्रकार हैं-

नर तथा मादा जननांग एक-दूसरे से कुछ दूरी पर स्थित हों।

• परागकोश दलपुंज नलिका के भीतर घुसे (inserted) हों तथा वर्तिका बाहर निकले (exserted) हों।  

• परागकोश बाहर निकले (exserted) हों तथा वर्तिका अन्दर घुसे (inserted) हों।

• परागकोश बाहर की ओर मुँह किये (extrorse) हों, जैसे ग्लोरिओसा (Gloriosa) में।

• परागकोश दलों या दलाभ वर्तिका (style) द्वारा ढके हों, जैसे आइरिस (Iris) में।

• परागकोश तथा वर्तिकाग्र की सापेक्षिक स्थिति ऐसी हो जो स्व-परागण में बाधक हो, जैसे मदार (Calotropis), ऑर्किड्स (orchids), आदि।


पर-परागण की विधियाँ (Modes of Cross-pollination)

परागकणों को किसी दूसरे पुष्प के वर्तिकाग्र तक पहुँचने के लिये कुछ साधनों (agencies) की आवश्यकता होती है। ये साधन वायु, जन्तु तथा जल हैं। इन्हीं साधनों के आधार पर, परागण तीन प्रकार का होता है-
  1. वायु परागण
  2. जन्तु परागण
  3. जल परागण

पर-परागण से लाभ (Advantages of Cross-pollination)

1. पर-परागित पुष्पों से बनने वाले फल बड़े भारी एवं स्वादिष्ट होते हैं तथा इनमें बीजों की संख्या अधिक होती है। 

2. पर-परागण से उत्पन्न बीज भी बड़े, भारी, स्वस्थ एवं अच्छी नस्ल वाले होते हैं।

3. इन बीजों से उत्पन्न पौधे भी बड़े, भारी, स्वस्थ एवं सक्षम होते हैं तथा इनमें प्रतिकूल परिस्थितियों का सामना करने की अधिक क्षमता होती है।

4. पर-परागण द्वारा रोग अवरोधक (disease resistant) जातियाँ तैयार की जा सकती हैं। 

5. पर-परागण द्वारा पौधों की नई जातियाँ (new varieties) उत्पन्न होती हैं जिनमें नये गुणों का समावेश होता है।

पर-परागण से हानियाँ (Disadvantages of Cross-pollination)

1. पर-परागण की क्रिया बाह्य साधनों, जैसे वायु, जन्तु, जल, आदि पर निर्भर करती है जिसके कारण यह अनिश्चित (uncertain) होता है। समय पर परागण न होने तथा साधनों के अप्राप्य होने पर अधिकांश पुष्प परागित होने से रह जाते हैं।

2. पर-परागण के लिये पुष्पों को दूसरे पुष्पों पर निर्भर रहना पड़ता है।

3. कीटों को आकर्षित करने के लिये पुष्पों को चटकीले रंग, बड़े दल, सुगन्ध तथा मकरन्द उत्पन्न करना पड़ता है जिन सबमें अधिक पदार्थ का अपव्यय होता है तथा अधिक ऊर्जा का ह्रास होता है।

4. पर-परागित पुष्पों, विशेषकर वायु परागित पुष्पों में परागकण अधिक संख्या में नष्ट होते हैं क्योंकि पुष्पों को परागित करने में केवल थोड़े से ही परागकण काम में आते हैं एवं इनका अधिकांश भाग वायु में इधर-उधर उड़कर व्यर्थ हो जाता है।

5. पर-परागित बीज सदैव संकर (hybrid) होते हैं।



FAQs

1. पॉलिनेशन का मतलब क्या होता है? 
परागण एक ऐसी प्रक्रिया है जिसमें परागकणों (नर युग्मक) को एक पौधे के पुंकेसर से दूसरे पौधे के वर्तिकाग्र तक स्थानांतरित किया जाता है। यह प्रक्रिया निषेचन, बीज उत्पादन और पौधे के प्रजनन के लिए आवश्यक होती है।


2. बच्चों के लिए परागण क्या है?
बच्चों के लिए, परागण को इस तरह समझाया जा सकता है:

  • फूलों में रंगीन पाउडर होता है जिसे पराग कहते हैं।
  • मधुमक्खियां, तितलियां और पक्षी जैसे जीव फूलों से पराग को इकट्ठा करते हैं।
  • जब यह कीट एक फूल से दूसरे फूल पर जाते हैं, तो पराग उनके पैरों या पंखों पर चिपक जाता है।
  • जब पराग दूसरे फूल के वर्तिकाग्र (मादा भाग) पर पहुंचता है, तो यह निषेचन की प्रक्रिया शुरू होती है।
  • निषेचन के बाद, फूल बीज और फल बनाता है।


3. पॉलिनेशन का दूसरा नाम क्या है?
परागण को "पराग संचरण" भी कहा जाता है।


4. पौधे में परागण कहाँ होता है?
पौधे में परागण उसके फूलों में होता है। फूल के नर भाग को पुंकेसर और मादा भाग को स्त्रीकेसर कहते है। पुंकेसर पराग का उत्पादन करते हैं, और स्त्रीकेसर में वर्तिकाग्र और अंडाशय होते हैं।


5. स्व और पर परागण क्या है?

1. स्व-परागण: जब एक ही पौधे के पुंकेसर से परागकण उसी पौधे के वर्तिकाग्र तक पहुँचता हैं, तो इसे स्व-परागण कहा जाता है।

2. पर-परागण: जब एक पौधे के पुंकेसर से परागकण दूसरे पौधे के वर्तिकाग्र तक पहुँचता हैं, तो इसे पर-परागण कहा जाता है।

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