ग्रसनी या गलतनी गुहा (Pharynx Or Throat Cavity) : परिभाषा, संरचना, कार्य|hindi


ग्रसनी या गलतनी गुहा (Pharynx Or Throat Cavity) : परिभाषा, संरचना, कार्य

ग्रसनी या गलतनी गुहा (Pharynx Or Throat Cavity) : परिभाषा, संरचना, कार्य|hindi

परिभाषा (definition)
कठोर तालु के विकास के कारण लम्बे श्वास मार्ग बन जाने से हमारे अन्त:नासाद्वार अर्थात् कोएनी (internal nares or choanae) काफी पीछे, ग्रसनी में खुलते हैं। अतः ग्रसनी में मुखगुहिका एवं नासामार्ग मिलते हैं। इस प्रकार ग्रसनी भोजन एवं वायु के लिए सहमार्ग (common passage) का काम करती है, अर्थात् यह पाचन एवं श्वसन, दोनों तन्त्रों का अंग होती है। इसके अतिरिक्त यह बोलने में ध्वनि की गूँज (resonance) उत्पन्न करती है और इसमें शरीर के सुरक्षा तन्त्र से सम्बन्धित एक जोड़ी अण्डाकार tonsils स्थित होती हैं। यह लगभग 13 सेमी लम्बी कीप के आकार की होती है। मांसल uvula इसके अगले चौड़े भाग को ऊपरी नासाग्रसनी (nasopharynx) तथा निचले मुखग्रसनी (oropharynx) नामक कक्षों में बाँटती हैं। नासाग्रसनी में अन्त: नासाद्वार खुलते हैं। इसकी पार्श्व दीवारों पर, एक-एक दरारनुमा छिद्रों द्वारा, मध्य कर्णों से आने वाली दो कण्ठ-कर्ण नलियाँ (eustachian tubes) भी इसमें खुलती हैं।
मुखग्रसनी छोटी और गलद्वार (fauces) द्वारा मुखगुहिका से जुड़ी होती है। ग्रसनी के पिछले व निचले सँकरे भाग को कण्ठग्रसनी (laryngopharynx) कहते हैं। इसमें सबसे पीछे ऊपर की ओर ग्रासनली का द्वार होता है जिसे हलक या निगलद्वार (gullet) कहते हैं।

ग्रसनी या गलतनी गुहा (Pharynx Or Throat Cavity) : परिभाषा, संरचना, कार्य|hindi


इसके ठीक नीचे, आगे की ओर श्वासनाल (trachea) के छोर पर स्थित कण्ठ (larynx) का कण्ठद्वार या ग्लॉटिस (glottis) होता है। मुखग्रसनी के तल पर जिह्वा का ग्रसनीय भाग होता है।
कण्ठद्वार पर, श्लेष्मिका से ढका एवं लचीली उपास्थि का बना, पत्तीनुमा, चल ढक्कन-सा epiglottis होता है। gullet सामान्यतः बन्द रहता है। केवल भोजन निगलते समय यह खुलता है। इस समय कोमल तालु और uvula ऊपर की ओर उठकर nasopharynx को ढक लेते हैं। साथ ही स्वर- यन्त्र कुछ आगे और ऊपर की ओर उठ जाता है जिससे epiglottis पीछे और नीचे की ओर झुककर glottis को ढक लेता है। अतः भोजन epiglottis पर से फिसलता हुआ ग्रासनली में चला जाता है।
कभी-कभी भोजन निगलने में गड़बड़ी से भोजन कण श्वासनाल में चले जाते हैं। इसी को फन्दा लगना कहते हैं। सामान्य दशा में कोमल तालु, uvula एवं स्वर-यन्त्र नीचे झुके रहते हैं और glottis epiglottis से हटा रहता है। अतः बाहरी हवा स्वतन्त्रतापूर्वक बाह्य नासाछिद्रों में होकर श्वासमार्गों, ग्रसनी, कण्ठ एवं वायुनाल में, श्वास-क्रिया के अन्तर्गत आती जाती रहती है।

ग्रसनी की दीवार में चार स्तर होते हैं—गुहा की ओर इस पर महीन श्लेष्मिका (mucosa) का स्तर होता है और इसके बाहर की ओर क्रमशः अध:श्लेष्मिका (submucosa), पेशी स्तर तथा संयोजी ऊतक स्तर होते हैं। नासाग्रसनी की श्लेष्मिका की श्लेष्मिक कला स्यूडोस्तृत रोमाभि स्तम्भी एपिथीलियम (pseudostratified ciliated columnar epithelium) होती है तथा शेष भाग में स्तृत शल्की एपिथीलियम (stratified squamous epithelium)।




ग्रसनी तथा ग्रासनली के कार्य (Functions of Pharynx and Oesophagus)

निगरण क्रिया (Swallowing or Deglutition)

भोजन का swallowing मुखगुहिका, ग्रसनी तथा ग्रासनली का संयुक्त कार्य होता है। इसमें भोजन के निवाले को मुखगुहा से आमाशय तक पहुँचाने की क्रिया होती है।
यह निम्नलिखित दो चरणों में पूरी होती है-
  1. ऐच्छिक, मुखगुहीय चरण (Voluntary, Oral phase)
  2. अनैच्छिक, ग्रसनीय चरण (Involuntary, Pharyngeal phase)

1. ऐच्छिक, मुखगुहीय चरण (Voluntary, Oral phase) : इस चरण में जीभ पहले चबे हुए भोजन की लसदार लुगदी को एकत्रित करके इसका निवाला (bolus) बनाती है और फिर ऊपर उठकर ऊपरी तालु पर पीछे की ओर दबाव डालती है जिससे निवाला ग्रसनी के मुखग्रसनी (oropharynx) भाग में पहुँच जाता है।

2. अनैच्छिक, ग्रसनीय चरण (Involuntary, Pharyngeal phase) : जैसे ही निवाला ग्रसनी में पहुँचता है, swallowing की शेष प्रक्रिया अनैच्छिक और प्रतिवर्ती (reflex) हो जाती है। निवाले के सम्पर्क में आते ही मुखग्रसनी की दीवार में उपस्थित संवेदांग (receptors) संवेदित हो जाते हैं। यह संवेदना मस्तिष्क के मेड्यूला में स्थित निगरण केन्द्र (swallowing centre) में पहुँचती है। इस केन्द्र से निर्गमित (issued) चालक संवेदना (motor impulse) के कारण, कोमल तालु तथा uvula ऊपर उठकर नासाग्रसनी (nasopharynx) को मुखग्रसनी (oropharynx) भाग से पृथक् कर देते हैं। इसी के साथ-साथ स्वरकोष्ठक अर्थात् कण्ठ (larynx) भी आगे तथा ऊपर की ओर उठता है जिससे epiglottisपीछे तथा नीचे की ओर खिसककर कण्ठद्वार पर ढक जाता है।
इस प्रकार, वायुमार्ग बन्द हो जाता है, परन्तु कण्ठग्रसनी (laryngopharynx) भाग तथा ग्रासनली के बीच स्थित ऊपरी या उच्च ग्रासनालीय संकोचक पेशी (upper oesophageal sphincter muscle) के शिथिलन से निगलद्वार चौड़ा फैलकर निवाले को ग्रासनली में जाने का मार्ग दे देता है। निवाले के ग्रासनली में जाते ही श्वसन मार्ग खुल जाता है और श्वसन पुनः प्रारम्भ हो जाता है।

अनैच्छिक निगरण की ग्रासनालीय प्रावस्था में भोजन का निवाला कण्ठग्रसनी से ग्रासनली द्वारा आमाशय में पहुँचता है। जैसे ही निवाला ग्रासनली की दीवार के सम्पर्क में आता है, दीवार में एक ऐसी गति उत्पन्न हो जाती है जिससे निवाला ग्रासनली में तेजी से नीचे खिसकता हुआ 4 से 8 सैकण्ड में ही आमाशय में पहुँच जाता है। दीवार की इस गति को क्रमाकुंचन अर्थात् तरंगगति (peristalsis) कहते हैं, क्योंकि इसमें दीवार की वर्तुल तथा अनुलम्ब पेशियों के एकान्तरित संकुचन एवं शिथिलन से दीवार के छोटे-छोटे खण्ड ऊपर से नीचे की ओर, एक लहर की भाँति क्रमवार फूलते और पिचकते हैं। स्पष्ट है कि यह क्रमाकुंचन भी स्वायत्त तन्त्रिका तन्त्र के नियन्त्रण में एक प्रतिवर्ती प्रतिक्रिया (reflex reaction) के रूप में होता है। इसका नियन्त्रण केन्द्र भी मस्तिष्क की मेड्यूला में ही होता है।
ग्रासनली का यह क्रमाकुंचन ऊपरी ग्रासनालीय संकोचक पेशी (upper oesophageal sphincter muscle) के शिथिलन से प्रारम्भ होकर निचली अर्थात् निम्न ग्रासनालीय संकोचक पेशी (lower oesophageal, or cardiac, or gastro-oesophageal sphincter muscle) के शिथिलन पर समाप्त होती है। जल तथा अन्य पेय तरल तो एक या दो सैकण्डों में ही ग्रसनी से ग्रासनली में होते हुए आमाशय में पहुँच जाते हैं।
ग्रसनी या गलतनी गुहा (Pharynx Or Throat Cavity) : परिभाषा, संरचना, कार्य|hindi


ग्रासनली की दीवार में उपस्थित श्लेष्म ग्रन्थियाँ श्लेष्म का स्रावण करती हैं जिसमें कोई पाचन एन्जाइम नहीं होता। श्लेष्म भोजन को चिकना (फिसलना) बनाने के अतिरिक्त ग्रासनली की श्लेष्मिका को भोजन कणों के घर्षण (abrasion) और इसके ऊपर महीन स्तर के रूप में फैलकर इसे लार के पाचन एन्जाइमों के दुष्प्रभाव से बचाता है।

यदि निचला ग्रासनालीय संकोचक का शिथिलन ठीक से नहीं होता तो भोजन ग्रासनली में रुककर इसे फैला देता है जिससे हमारे वक्ष भाग में पीड़ा होने लगती है। इसे शूलरोग अर्थात् ऐकैलैसिया (achalasia) कहते हैं। प्रायः इसके कारण हृदय शूल (heart pain) की भ्रान्ति हो जाती है। इसके विपरीत, यदि निचला ग्रासनालीय संकोचक समय से बन्द नहीं होता तो आमाशय का उच्च अम्लीय तरल ग्रासनली में चढ़ जाता है जिससे हमें जलन-सी होने लगती है। इसे हृद्-दाह या अम्लशूल अर्थात् फोरोसिस (heartburn or phorosis) कहते हैं। इसमें अम्लरोधी (antacid) औषधियों से लाभ होता है।



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