दिष्ट-धारा डायनामो (Direct-Current Dynamo) : परिभाषा, रचना|hindi


दिष्ट-धारा डायनामो (Direct-Current Dynamo) : परिभाषा, रचना
दिष्ट-धारा डायनामो (Direct-Current Dynamo) : परिभाषा, रचना|hindi

विद्युतचुम्बकीय प्रेरण की क्रिया का सबसे महत्वपूर्ण उपयोग विद्युत जनित्र अथवा डायनामो में किया गया है। यह एक ऐसी विद्युतचुम्बकीय मशीन है जिसके द्वारा यान्त्रिक ऊर्जा को वैद्युत ऊर्जा में बदला जाता है। प्रत्यावर्ती धारा को उत्पन्न करने के लिये प्रत्यावर्ती-धारा डायनामो तथा दिष्ट धारा को उत्पन्न करने के लिये दिष्ट-धारा डायनामो का उपयोग होता है। नीचे हम दिष्ट-धारा डायनामो के बारे में पढ़ेंगे। 

दिष्ट-धारा डायनामो (Direct-Current Dynamo)
:  इसकी रचना प्रत्यावर्ती धारा डायनामो के समान ही होती हैं। अन्तर केवल इतना होता है कि इसमें सर्पी वलयों (slip rings) के स्थान पर विभक्त वलयों (split rings) को उपयोग में लाते हैं।

रचना : इसके भी तीन मुख्य भाग होते हैं

(1) क्षेत्र चुम्बक : यह एक शक्तिशाली चुम्बक NS होता है। इसके द्वारा उत्पन्न चुम्बकीय क्षेत्र की बल रेखायें N से S की ओर होती हैं।
(2) आर्मेचर : चुम्बक के ध्रुवों के बीच में पृथक्कृत तारों की एक कुण्डली ABCD होती है जिसे 'आर्मेचर - कुण्डली कहते हैं। कुण्डली कई फेरों की होती है तथा ध्रुवों के बीच क्षैतिज अक्ष पर जल के टरबाइन से घुमाई जाती है।
(3) विभुक्त-वलय तथा ब्रुश (Split Rings and Brushes) : विभक्त-वलय पीतल का एक बेलन होता है जिसको लम्बाई में काटकर दो भाग कर देते हैं। कुण्डली का एक सिरा एक भाग से तथा दूसरा सिरा दूसरे भाग से जोड़ते हैं। इन भागों को अलग-अलग दो कार्बन ब्रुश X तथा Y स्पर्श करते हैं। इन ब्रुशों का सम्बन्ध बाह्य परिपथ से कर दिया जाता है। कुण्डली के प्रत्येक आधे चक्कर के पश्चात् विभक्त-वलय के भाग आपस में ब्रुशों को बदल लेते हैं। इस प्रकार एक ब्रुश आधे चक्कर में विभक्त-वलय के एक भाग को स्पर्श करता है तथा अगले आधे चक्कर में जबकि कुण्डली में धारा की दिशा बदल जाती है, विभक्त-वलय के दूसरे भाग को स्पर्श करने लगता है।

दिष्ट-धारा डायनामो (Direct-Current Dynamo) : परिभाषा, रचना|hindi


कार्य-विधि : जब आर्मेचर- कुण्डली ABCD घूमती है तो कुण्डली से गुजरने वाले चुम्बकीय फ्लक्स में परिवर्तन होता है और कुण्डली में एक वि० वा० ब० प्रेरित हो जाता है तथा वैद्युत धारा प्रवाहित होने लगती है। कुण्डली के पहले आधे चक्कर में कुण्डली में प्रेरित वि० वा० ब० शून्य से बढ़कर अधिकतम होता है तथा पुनः घटकर शून्य हो जाता है। आधा चक्कर पूरा होने पर, दूसरे आधे चक्कर में वि० वा० ब० विपरीत दिशा में शून्य से अधिकतम मान तक बढ़ता है तथा पुनः घटकर शून्य हो जाता । इस प्रकार आर्मेचर - कुण्डली के एक पूरे चक्कर में वि० वा० ब० दो बार विपरीत दिशाओं में अधिकतम होता है और दो बार शून्य होता है। यह क्रिया प्रत्येक चक्कर में दोहरायी जाती है । परन्तु चूँकि प्रत्येक आधे चक्कर के पश्चात् विभक्त-वलय के भाग आपस में ब्रुशों को बदल लेते हैं, अतः बाह्य परिपथ में धारा सदैव एक ही दिशा में (ब्रुश X से ब्रुश Y की ओर) बहती है।



दिष्ट धारा एवं प्रत्यावर्ती धारा में अन्तर

दिष्ट धारा (Direct Current) : दिष्ट धारा वह वैद्युत धारा है जिनका परिमाण नियत रहता है तथा परिपथ के किसी बिन्दु में से एक ही दिशा में प्रवाहित होती रहती है। प्राथमिक तथा संचायक सेलों द्वारा प्राप्त धारा, दिष्ट धारा ही होती है।

प्रत्यावर्ती धारा (Alternating Current) : प्रत्यावर्ती धारा वह धारा है जिसका परिमाण आवर्त्त रूप रहता है तथा दिशा बार-बार उत्क्रमित होती रहती से बदलता है । वैद्युत जनित्र अथवा डायनामो द्वारा प्राप्त धारा प्रत्यावर्ती धारा ही होती है। यदि प्रत्यावर्ती धारा के परिमाण व समय के बीच ग्राफ खींचे तो वह एक ज्या-वक्र (sine curve) के रूप में आता है। इस वक्र का भाग ABCDE, विद्युत जनित्र की कुण्डली के एक चक्कर को निरूपित करता है। इससे स्पष्ट है कुण्डली के प्रत्येक चक्कर में धारा की दिशा दो बार उत्क्रमित होती है।

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