पौधों द्वारा वाष्पोत्सर्जन की क्रिया को दर्शाने तथा दर मापने के लिये निम्नलिखित प्रयोग किये जाते हैं
बेलजार प्रयोग (Bell-jar Experiment)
एक गमले में एक पौधा लगाकर इसकी मिट्टी को रबर की चादर से ढक दिया जाता है जिससे मिट्टी से वाष्पीकरण न हो सके। इस गमले को एक बड़े बेलजार से ढक देते हैं। गमले को धूप में रख दिया जाता है। हम देखते हैं कि कुछ समय पश्चात् जल की बूँदे बेलजार की दीवार पर इकट्ठी हो जाती हैं। इससे सिद्ध होता है कि जल की बूँदे पौधों से वाष्पोत्सर्जन द्वारा निकलती हैं।
बेलजार प्रयोग (Bell-jar Experiment)
एक गमले में एक पौधा लगाकर इसकी मिट्टी को रबर की चादर से ढक दिया जाता है जिससे मिट्टी से वाष्पीकरण न हो सके। इस गमले को एक बड़े बेलजार से ढक देते हैं। गमले को धूप में रख दिया जाता है। हम देखते हैं कि कुछ समय पश्चात् जल की बूँदे बेलजार की दीवार पर इकट्ठी हो जाती हैं। इससे सिद्ध होता है कि जल की बूँदे पौधों से वाष्पोत्सर्जन द्वारा निकलती हैं।
पोटोमीटर द्वारा (By Potometers)
इस विधि में वाष्पोत्सर्जन की दर पोटोमीटर नामक यन्त्र से ज्ञात की जाती है। पोटोमीटर विभिन्न प्रकार के होते हैं। इनमें से प्रायः निम्न प्रकार के पोटोमीटर अधिक प्रचलित हैं-
1. फार्मर का पोटोमीटर (Farmer's potometer) —इस पोटोमीटर में एक चौड़े मुँह वाली बोतल के मुख में तीन छिद्रों वाली कॉर्क लगी होती है। एक छिद्र में शाखा लगायी जाती है। दूसरे छिद्र में जलाशय की नली लगाते हैं। तीसरे छिद्र में एक मुड़ी हुई केश नली (capillary tube) लगायी जाती है जिस पर चिन्ह लगे होते हैं। इस नली का अन्तिम सिरा एक जलयुक्त बीकर में डुबो दिया जाता है। वायु का एक बुलबुला इस नली के अन्तिम सिरे से प्रवेश करा दिया जाता है। यन्त्र को प्रकाशयुक्त स्थान पर रख दिया जाता है। वायु के बुलबुले द्वारा एक निश्चित समय में चली गयी दूरी की सहायता से वाष्पोत्सर्जन की दर ज्ञात की जाती है।
2. गैनांग का पोटोमीटर (Ganong's potometer) – इसके मुख पर लगे कॉर्क में एक शाखा लगा दी जाती है। सारे यन्त्र को वायु अवरुद्ध (air-tight) करके धूप में रख दिया जाता है। इसमें क्षैतिज नली पर चिन्ह लगे होते हैं। जिसका एक सिरा जल से भरे बीकर में डुबो दिया जाता है। क्षैतिज नली के अन्तिम भाग की घुण्डी पर एक छिद्र होता है जिसके द्वारा वायु का एक बुलबुला नली में प्रवेश करा दिया जाता है। कुछ समय पश्चात् बुलबुला नली में आगे चला जाता है। नली पर लगे चिन्हों में बुलबुले द्वारा चली गयी दूरी ज्ञात कर ली जाती है। इस प्रकार एक निश्चित समय में क्षैतिज नली में वायु के बुलबुले द्वारा चली गयी दूरी की सहायता से वाष्पोत्सर्जन की दर ज्ञात कर लेते हैं।
3. डार्विन का साधारण पोटोमीटर (Darwin's simple potometer) — इस पोटोमीटर में शीशे की बनी एक नलिका होती है जिसके एक ओर से चित्रानुसार एक दूसरी नलिका जुड़ी होती है। साथ वाली नलिका के ऊपर के मुख में एक कॉर्क द्वारा एक पौधे की शाखा लगा दी जाती है। मुख्य नलिका के ऊपर के सिरे को एक कॉर्क द्वारा बन्द कर दिया जाता है तथा नीचे के सिरे को एक कॉर्क से होती हुई पतली नलिका (capillary tube) से जोड़ा जाता है जिसका नीचे का सिरा चित्रानुसार जल से भरे बीकर में डुबोया जाता है। पतली नलिका में वायु का एक बुलबुला प्रवेश कराकर उसकी गति के द्वारा वाष्पोत्सर्जन मापन किया जाता है।
प्रयोग 3. पत्ती की दोनों सतहों से बाष्पोत्सर्जन की मात्रा का तुलनात्मक अध्ययन
1. गैरयू के यन्त्र द्वारा (By Garreau 'sapparatus) — इस पोटोमीटर के द्वारा पत्ती की दोनों सतहों से होने वाले वाष्पोत्सर्जन की मात्रा का तुलनात्मक अध्ययन किया जाता है। यह यन्त्र दो छोटे बेलजारों का बना होता है जो चित्र में दशयि अनुसार एक-दूसरे से सटाकर रखे जाते हैं। दोनों बेलजारों के मध्य में गमले में लगे पौधे की एक पत्ती रख देते हैं और ग्रीस लगाकर उसे वायु-अवरुद्ध (air-tight) कर देते हैं। प्रत्येक जार में जल-रहित (anhydrous) कैल्सियम क्लोराइड (CaCl2) की ज्ञात मात्रा दो छोटी परखनलियों में भरकर रखते हैं। दोनों बेलजारों के सिरों पर चित्र में दिखाये ढंग से दो मेनोमीटर लगा दिये जाते हैं। इनमें पारा भरा रहता है। ये मेनोमीटर बेलजार के अन्दर वाष्पदाब को स्थापित रखते हैं। पत्ती की दोनों सतहों से निकली वाष्प कैल्सियम क्लोराइड द्वारा सोख ली जाती है। कुछ समय पश्चात् दोनों परखनलियों को फिर से तोल लेते हैं। इस प्रकार पत्ती की दोनों सतहों से उत्सर्जित वाष्प की मात्रा ज्ञात हो जाती है। पत्ती की निचली सतह से होने वाली वाष्पोत्सर्जन की मात्रा अधिक होगी क्योंकि इस सतह पर रन्ध्र (stomata) प्रायः अधिक मात्रा में होते हैं।
2. कोबाल्ट क्लोराइड प्रयोग (Cobalt chloride experiment) - इस यन्त्र का उपयोग पत्ती की दोनों सतहों से होने वाले वाष्पोत्सर्जन की मात्रा का तुलनात्मक अध्ययन करने के लिए करते हैं। इस प्रयोग में एक फिल्टर कागज की छोटी पट्टियाँ काट ली जाती हैं। इनको 3% कोबाल्ट क्लोराइड (CoCl2) के विलयन में डुबोकर सुखा लिया जाता है। सूखने पर इनका रंग नीला होता है, परन्तु जिस समय ये नम होती हैं तो इनका रंग गुलाबी (pink) हो जाता है। इनमें से एक शुष्क पट्टी को पत्ती की ऊपरी सतह तथा दूसरी पट्टी को पत्ती की नीचे की सतह पर लगाकर दोनों ओर दो स्लाइडों को क्लिपों के द्वारा पत्ती पर लगा देते हैं। कुछ समय पश्चात् देखने पर ज्ञात होता है कि पत्ती की निचली सतह की ओर का फिल्टर कागज गुलाबी हो गया है और ऊपरी सतह की ओर लगा कागज या तो हल्का गुलाबी हुआ है अथवा बिल्कुल नहीं। इससे सिद्ध होता है कि ऊपर की अपेक्षा नीचे की सतह से अधिक वाष्पोत्सर्जन हुआ। यह इस कारण होता है कि पत्ती की निचली सतह पर प्रायः अधिक रन्ध्र (stomata) होते हैं।
प्रयोग 4. वाष्पोत्सर्जन तथा जल-अवशोषण में सम्बन्ध (Relation Between Transpiration and Absor ption of Water)
वाष्पोत्सर्जन तथा जल-अवशोषण में सम्बन्ध दिखाने के लिये चित्रानुसार यन्त्र का प्रयोग करते हैं। यन्त्र के एक ओर लगी अंकित नली में तेल की कुछ बूँदे जल के ऊपर डाल देते हैं जिससे जल वाष्पित होकर न उड़ सके। बोतल के चौड़े मुख में कॉर्क इस विधि से लगाते हैं कि पौधे की जड़ बोतल के जल में रहे तथा वायवीय भाग कॉर्क के ऊपर रहे। बोतल तथा निकट वाली नली में जल भर देते हैं। पूरे यन्त्र को तोलकर धूप में रख देते हैं, जिससे वाष्पोत्सर्जन अच्छी प्रकार से हो सके। कुछ घण्टे पश्चात् यन्त्र का भार फिर लेते हैं। अंकित नली में तेल नीचे चला जाता है और हमें ज्ञात हो जाता है कि कितने घन सेन्टीमीटर जल पौधे द्वारा अवशोषित किया गया। दोनों की तुलना करने पर ज्ञात होता है कि अवशोषित जल की मात्रा वाष्पोत्सर्जित जल की मात्रा से अधिक है, क्योंकि कुछ जल पौधों की जैव-क्रियाओं में प्रयोग होता है।
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