ऑक्सिन (auxin) वे कार्बनिक पदार्थ हैं जो तने की कोशिकाओं का दीर्घीकरण करते हैं। ऐसे सभी कार्बनिक पदार्थ जो इण्डोल ऐसीटिक अम्ल (Indole Acetic Acid = IAA) के समान कार्य करते हैं ऑक्सिन (auxin) कहलाते हैं। यदि ऊपर दी गयी परिभाषा का अधिक विस्तृत रूप में अध्ययन किया जाये तो हमें ज्ञात होगा कि ऑक्सिन की सान्द्रता का पौधे के विभिन्न भागों की वृद्धि पर भिन्न प्रकार से प्रभाव होता है।
ऑक्सिन की खोज (Discovery of Auxin) — डारविन (Darwin, 1880) ने कैनरी घास (canary grass = Phalaris canariensis) के अंधेरे में उगे नवांकुरों (seedlings) में देखा कि यदि प्रांकुर-चोल (plumule sheath or coleoptile) को एक पार्श्व दिशा से प्रकाशित किया जाये तो प्रांकुर-चोल प्रकाश की ओर झुक जाता है। परन्तु प्रांकुर चोल का शीर्ष काटकर हटा देने से यह प्रकाश की ओर नहीं मुड़ता है।
बायसेन- जेन्सन (Boysen-Jensen, 1910-1913) ने देखा कि यदि प्रांकुर चोल के शीर्ष को काटकर फिर से कटे भाग पर रख दिया जाये अथवा दोनों भागों के बीच जिलेटिन अथवा अगार का एक घनाकार टुकड़ा रख दिया जाये और एक पार्श्व दिशा (lateral side) से प्रकाश डाला जाये तो प्रांकुर चोल प्रकाश की ओर मुड़ जाता है। दूसरे प्रयोगों में उन्होंने शीर्ष के नीचे एक पक्ष में चीरा लगाकर (अर्थात् आधे भाग में) उस स्थान पर अबरक (mica) की पतली प्लेट रख दी।
इसके पश्चात् शीर्ष पर पार्श्व दिशा से प्रकाश डाला तो देखा कि यदि चीरा और अबरक की प्लेट छाया की ओर लगाये गये हों तो प्रांकुर चोल प्रकाश की ओर नहीं मुड़ता। परन्तु यदि चीरा और अबरक की प्लेट प्रकाशित पक्ष की ओर लगाये गये हों तब प्रांकुर चोल प्रकाश की ओर मुड़ जाता है। पाल (1919) ने प्रांकुर चोल के शीर्ष को काटकर केन्द्र से कुछ हटाकर रखा और प्रयोग प्रकाशहीन स्थान पर किया गया। प्रांकुर चोल का झुकाव उधर होता है जिधर शीर्ष नहीं रखा गया था। इन सभी प्रयोगों से स्पष्ट हुआ कि प्रांकुर-चोल में एक रासायनिक पदार्थ बनता है और उसी के नीचे की ओर आने से प्रांकुर-चोल एक ओर से पड़ने वाले प्रकाश की ओर झुकता है।
ऑक्सिन के वृद्धि नियन्त्रक कार्य
(i) प्रकाशानुवर्तन एवं गुरुत्वानुवर्तन (Phototropism and Geotropism) — कोलोडनी तथा वेण्ट (Cholodny and Went 1918) ने प्रकाशानुवर्तन (phototropism) तथा गुरुत्वानुवर्तन (geotropism) के बारे में अपना मत दिया ।
प्रकाशानुवर्तन में ऐसा माना जाता है कि एक पार्श्व से प्रकाश पड़ने पर पौधों के प्ररोह में ऑक्सिन का विभाजन इस प्रकार से होता है कि प्रकाशित भाग में ऑक्सिन की कम मात्रा रह जाती है और अप्रकाशित भाग में अधिक मात्रा हो जाती है जिसके कारण अप्रकाशित भागों की कोशिकाओं का अधिक विस्तारण (elongation) हो जाता है और प्ररोह प्रकाश की ओर मुड़ जाता है। इसी प्रकार ऑक्सिन का प्रभाव गुरुत्वानुवर्तन (geotropism) पर होता है। यदि एक पौधे को क्षैतिज स्थिति में रखा जाये तब गुरुत्वाकर्षण के प्रभाव के कारण ऑक्सिन नीचे की ओर वाले भाग में अधिक मात्रा में एकत्र हो जाता है, परन्तु जैसा कि नीचे चित्र में दिखलाया गया है ऑक्सिन की अधिक मात्रा तने के लिए वृद्धिवर्धक (promotional) होती है, परन्तु जड़ के लिए वृद्धिरोधक (inhibition) प्रभाव रखती है।
(ii) शीर्ष प्रभाविता (Apical dominance) — प्रायः पौधों में तने के शीर्ष पर स्थित कलिका, पार्श्वीय कक्षीय कलिकाओं (lateral axillary buds) की वृद्धि को रोकती है। शीर्ष कलिका के इस प्रभाव को शीर्ष प्रभाविता (apical dominance) कहते हैं। यदि मुख्य स्तम्भ पर लगी शीर्ष कलिका को काट दिया जाये तो कक्षीय कलिकाओं में वृद्धि होने लगती है और पार्श्वीय शाखायें निकलती हैं। यही कारण है कि माली चारदीवारी के रूप में लगी मेंहदी व अन्य झाड़ियों को सघन करने के लिये ऊपर से काटता रहता है। शीर्ष प्रभाविता की क्रिया ऑक्सिन के कारण होती है। यदि मुख्य स्तम्भ के ठूंठ पर (जिस स्थान से कलिका काटी गयी थी) ऑक्सिन युक्त अगार का घनाकार टुकड़ा (block) रखा जाये तो कलिकाओं की वृद्धि उसी प्रकार रुक जाती है जैसे कि मुख्य स्तम्भ के शीर्ष पर कलिका लगी हो।
(iii) विलगन (Abscission) — बहुत-से पौधों में कुछ फल पूर्णरूप से परिपक्व होने से पूर्व ही पेड़ से गिर जाते हैं और खाने के प्रयोग में नहीं लाये जा सकते, जैसे सेब और नाशपाती आदि में। यह विलगन पुष्पवृन्त के नीचे की ओर एक विलगन परत (abscission layer) बन जाने के कारण होता है। यदि किसी ऑक्सिन की विशेष सान्द्रता का विलयन ऐसे पेड़ों के ऊपर छिड़क दिया जाये तब इन अपरिपक्व फलों का विलगन नहीं होता है। पत्तियों व फलों के झड़ने को भी ऑक्सिन छिड़कने से काफी समय तक रोका जा सकता है।
विलगन पर ऑक्सिन का प्रभाव निम्न प्रयोग द्वारा दिखलाया जा सकता है -
एक पौधे की दो पत्तियों के पर्णवृन्तों (leaf petioles) को पर्णफलक (lamina) के पास से चित्र के अनुसार ब्लेड द्वारा काटकर एक पर्णवृन्त के कटे भाग पर अगार + ऑक्सिन का ब्लाक तथा दूसरे कटे पर्णवृन्त पर केवल अगार का ब्लाक लगा देते हैं। प्रयोग के कुछ दिन बाद हम देखते हैं कि जिस पर्णवृन्त पर अगार + ऑक्सिन का ब्लाक लगाया गया था वह पर्णवृन्त तने पर लम्बे समय तक लगा रहता है परन्तु जिस पर्णवृन्त पर केवल अगार ब्लाक लगाया गया था वह शीघ्र ही गिर जाता है।
विलगन पर ऑक्सिन का प्रभाव निम्न प्रयोग द्वारा दिखलाया जा सकता है -
एक पौधे की दो पत्तियों के पर्णवृन्तों (leaf petioles) को पर्णफलक (lamina) के पास से चित्र के अनुसार ब्लेड द्वारा काटकर एक पर्णवृन्त के कटे भाग पर अगार + ऑक्सिन का ब्लाक तथा दूसरे कटे पर्णवृन्त पर केवल अगार का ब्लाक लगा देते हैं। प्रयोग के कुछ दिन बाद हम देखते हैं कि जिस पर्णवृन्त पर अगार + ऑक्सिन का ब्लाक लगाया गया था वह पर्णवृन्त तने पर लम्बे समय तक लगा रहता है परन्तु जिस पर्णवृन्त पर केवल अगार ब्लाक लगाया गया था वह शीघ्र ही गिर जाता है।
(iv) अनिषेकफलन (Parthenocarpy) — सन्तरा, नींबू, अंगूर, केला, आदि के फलों में बिना परागण (pollination) व निषेचन (fertilization) के भी फल का विकास हो सकता है। ये फल बीजरहित (seedless) होते हैं। यदि पुष्पों की कली से पुंकेसरों को निकालकर, वर्तिकाग्र के ऊपर ऑक्सिन का लेपन कर दिया जाये तब बीजरहित फल बन जाते हैं।
(v) अपतॄण-निवारण (Weed destruction) - प्रायः खेतों में फसल के साथ कुछ अनावश्यक पौधे (अपतॄण = weeds) भी उग आते हैं, जो जल, खनिज पदार्थों, प्रकाश, इत्यादि के लिये फसल से प्रतिस्पर्धा करने लगते हैं और फसल की अच्छी वृद्धि नहीं हो पाती है। इन अनावश्यक पौधों को किसान अपने खेत से निकाल देता है। हॉर्मोन के द्वारा इन अनावश्यक पौधों को खेत में ही नष्ट किया जा सकता है। इस कार्य के लिए 2,4-डाइक्लोरो-फीनॉक्सी ऐसीटिक अम्ल (2,4-dichlorophenoxy acetic acid = 2,4-D) नामक संश्लेषी ऑक्सिन विशेष रूप से उपयोगी सिद्ध हुआ है।
(vi) कटे तनों पर जड़-विभेदन (Root-differentiation on stem cutting) - बहुत-से पौधों जैसे गुलाब, बोगेनवीलिया, आदि में, कलम लगाकर नया पौधा तैयार किया जाता है। यदि गुलाब की कलम के नीचे के सिरे को ऑक्सिन के उचित सान्द्रता के घोल में डुबोकर गमले में लगाया जाये तब देखा जाता है कि कटे भाग पर बहुत शीघ्र ही जड़ें निकल आती हैं। इस कार्य के लिये इण्डोल ब्यूटाइरिक अम्ल (IBA) विशेष रूप से उपयोगी सिद्ध हुआ है।
(vii) फसलों के गिरने का नियंत्रण (Control of lodging) — बहुत-सी फसलें, जैसे गेहूँ में, तने की दुर्बलता के कारण तेज हवा चलने पर पेड़ जड़ के पास से मुड़ जाता है और बाल (ear) भूमि पर गिर जाती है और कभी-कभी वर्षा के जल में भीगकर गल जाती है। ऑक्सिन का विलयन छोटे पौधों के ऊपर छिड़कने से पौधों का नीचे का भाग अधिक शक्तिशाली हो जाता है और हवा में इनके गिरने की कम सम्भावना रहती है।
(vii) प्रसुप्तता नियन्त्रण (Control of dormancy) - आलू की खेती पूरे वर्ष नहीं होती, इसलिये यह आवश्यक हो जाता है कि आलू का संग्रह इस प्रकार किया जाये कि आलू का कन्द हमें पूरे वर्ष उपलब्ध हो सके। ऐसा करने के लिये आलू के कन्द की कलिकाओं का प्रस्फुटन नहीं होना चाहिये क्योंकि प्रस्फुटन होने से कन्द में संचित मण्ड (starch) समाप्त हो जाता है। ऑक्सिन का विलयन कन्द पर छिड़कने से आलू संग्रह किया जा सकता है, क्योंकि ऐसा करने से कलिकाओं का वृद्धिरोधन हो जाता है।
(v) अपतॄण-निवारण (Weed destruction) - प्रायः खेतों में फसल के साथ कुछ अनावश्यक पौधे (अपतॄण = weeds) भी उग आते हैं, जो जल, खनिज पदार्थों, प्रकाश, इत्यादि के लिये फसल से प्रतिस्पर्धा करने लगते हैं और फसल की अच्छी वृद्धि नहीं हो पाती है। इन अनावश्यक पौधों को किसान अपने खेत से निकाल देता है। हॉर्मोन के द्वारा इन अनावश्यक पौधों को खेत में ही नष्ट किया जा सकता है। इस कार्य के लिए 2,4-डाइक्लोरो-फीनॉक्सी ऐसीटिक अम्ल (2,4-dichlorophenoxy acetic acid = 2,4-D) नामक संश्लेषी ऑक्सिन विशेष रूप से उपयोगी सिद्ध हुआ है।
(vi) कटे तनों पर जड़-विभेदन (Root-differentiation on stem cutting) - बहुत-से पौधों जैसे गुलाब, बोगेनवीलिया, आदि में, कलम लगाकर नया पौधा तैयार किया जाता है। यदि गुलाब की कलम के नीचे के सिरे को ऑक्सिन के उचित सान्द्रता के घोल में डुबोकर गमले में लगाया जाये तब देखा जाता है कि कटे भाग पर बहुत शीघ्र ही जड़ें निकल आती हैं। इस कार्य के लिये इण्डोल ब्यूटाइरिक अम्ल (IBA) विशेष रूप से उपयोगी सिद्ध हुआ है।
(vii) फसलों के गिरने का नियंत्रण (Control of lodging) — बहुत-सी फसलें, जैसे गेहूँ में, तने की दुर्बलता के कारण तेज हवा चलने पर पेड़ जड़ के पास से मुड़ जाता है और बाल (ear) भूमि पर गिर जाती है और कभी-कभी वर्षा के जल में भीगकर गल जाती है। ऑक्सिन का विलयन छोटे पौधों के ऊपर छिड़कने से पौधों का नीचे का भाग अधिक शक्तिशाली हो जाता है और हवा में इनके गिरने की कम सम्भावना रहती है।
(vii) प्रसुप्तता नियन्त्रण (Control of dormancy) - आलू की खेती पूरे वर्ष नहीं होती, इसलिये यह आवश्यक हो जाता है कि आलू का संग्रह इस प्रकार किया जाये कि आलू का कन्द हमें पूरे वर्ष उपलब्ध हो सके। ऐसा करने के लिये आलू के कन्द की कलिकाओं का प्रस्फुटन नहीं होना चाहिये क्योंकि प्रस्फुटन होने से कन्द में संचित मण्ड (starch) समाप्त हो जाता है। ऑक्सिन का विलयन कन्द पर छिड़कने से आलू संग्रह किया जा सकता है, क्योंकि ऐसा करने से कलिकाओं का वृद्धिरोधन हो जाता है।
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