गतिज ऊर्जा तथा स्थितिज ऊर्जा
यान्त्रिक ऊर्जा दो प्रकार की होती है- गतिज ऊर्जा तथा स्थितिज ऊर्जा
गतिज ऊर्जा (Kinetic Energy)
प्रत्येक गतिशील वस्तु में उसकी गति के कारण कार्य करने की क्षमता होती है । इसे वस्तु की 'गतिज ऊर्जा' कहते हैं।
उदाहरण के लिये, बन्दूक से छूटी गोली में लक्ष्य को भेदने की क्षमता होती है, आँधी में टीन उड़ाने की क्षमता होती है, गतिशील हथौड़े में कील गाड़ने की क्षमता होती है। अतः इन सभी में गतिज ऊर्जा है ।
गतिज ऊर्जा की माप : किसी गतिशील वस्तु की गतिज ऊर्जा की माप 'कार्य' के उस परिमाण से की जाती है जो उस वस्तु को विरामावस्था से वर्तमान अवस्था में लाने में किया गया है (अथवा जो वह वस्तु अपनी वर्तमान अवस्था से विरामावस्था में आने तक कर सकती है)
मान लो कि कोई वस्तु, जिसका द्रव्यमान m है, विराम अवस्था में है। इस पर एक अचर बल F लगाने पर इसमें a त्वरण उत्पन्न हो जाता है। तब न्यूटन के द्वितीय नियम के अनुसार,
a = F/m
माना कि s दूरी चलने में वस्तु की चाल v हो जाती है। गति के समीकरण v² = u² + 2as के अनुसार (यहाँ u = 0), चूँकि वस्तु प्रारम्भ में विरामावस्था में थी)
v² = 2a s = 2 × (F / m) × s
अथवा F × s = 1/2 mv²
परन्तु F×s वह कार्य है जो कि बल F ने वस्तु पर s दूरी चलने के दौरान किया है। इसी के कारण वस्तु की चाल शून्य बढ़कर v हुई है तथा वस्तु को कार्य करने की क्षमता प्राप्त हुई है। अतः यही वस्तु की गतिज ऊर्जा की माप है। यदि हम गतिज ऊर्जा को K से प्रदर्शित करें तब
K = F x s= 1 / 2 mv²
गतिज ऊर्जा = 1 / 2 × द्रव्यमान × ( चाल )²
स्थितिज ऊर्जा (Potential Energy)
वस्तुयें अपनी स्थिति' (position) अथवा 'विकृत अवस्था' (state of strain) के कारण भी कार्य कर सकती हैं। किसी वस्तु में उसकी स्थिति अथवा विकृत अवस्था के कारण जो ऊर्जा होती है उसे उसकी 'स्थितिज ऊर्जा' कहते हैं। किसी वस्तु में स्थितिज ऊर्जा कई रूपों में निहित हो सकती है : जैसे गुरुत्वीय, प्रत्यास्थ, स्थिरवैद्युत चुम्बकीय, रासायनिक इत्यादि ।
(i) गुरुत्वीय स्थितिज ऊर्जा (Gravitational Potential Energy) : हम किसी हथौड़े को ऊँचाई से गिराकर उससे किसी वस्तु को तोड़ सकते हैं। हथौड़े में कार्य करने की यह क्षमता अर्थात् ऊर्जा उसकी पृथ्वी तल से 'ऊँची' स्थिति के कारण है। हथौड़े को पृथ्वी के गुरुत्वीय आकर्षण बल के विरुद्ध ऊपर उठाने में जो कार्य किया जाता है वह उसमें स्थितिज ऊर्जा के रूप में संचित हो जाता है। यह हथौड़े की 'गुरुत्वीय स्थितिज ऊर्जा' है। हथौड़ा पृथ्वी तल से जितना अधिक ऊँचा होगा, उसमें गुरुत्वीय स्थितिज ऊर्जा उतनी ही अधिक होगी।
गुरुत्वीय स्थितिज ऊर्जा की माप : मान लो कि द्रव्यमान m के एक पिंड को पृथ्वी तल से ऊँचाई h तक उठाया जाता है। इसके लिए गुरुत्व-बल के विरुद्ध कार्य किया जाता है तथा यही कार्य पिंड में गुरुत्वीय स्थितिज ऊर्जा के रूप में संचित हो जाता है। अतः पिंड की गुरुत्वीय स्थितिज ऊर्जा
U = गुरुत्व-बल (पिंड के भार) के विरुद्ध किया गया कार्य
= पिंड का भार X ऊँचाई
= (m × g) × h = m g h
गुरुत्वीय स्थितिज ऊर्जा = द्रव्यमान × गुरुत्वीय त्वरण × ऊँचाई
(ii) प्रत्यास्थ स्थितिज ऊर्जा (Elastic Potential Energy) : जब हम घड़ी में चाबी भर देते हैं तो घड़ी के भीतर की स्प्रिंग दब जाती है अर्थात् विकृत हो जाती है। यह दबी हुई स्प्रिंग ही धीरे-धीरे खुलकर घड़ी को चलाती रहती है। इस प्रकार यह अपनी 'विकृत' (दबी हुई) अवस्था के कारण कार्य करती है, अर्थात् इसमें विकृत अवस्था के कारण स्थितिज ऊर्जा होती है। स्प्रिंग को दबाने में उसकी प्रत्यास्थता के कारण, जो कार्य किया जाता है वही स्प्रिंग में स्थितिज ऊर्जा के रूप में संचित हो जाता है। यह स्प्रिंग की 'प्रत्यास्थ' स्थितिज ऊर्जा है ।
(iii) स्थिरवैद्युत स्थितिज ऊर्जा (Electrostatic Potential Energy): वैद्युत आवेश भी एक दूसरे को आकर्षित अथवा प्रतिकर्षित करते हैं। अतः आवेशों के निकाय में भी स्थितिज ऊर्जा होती है जिसे 'स्थिरवैद्युत स्थितिज ऊर्जा' कहते हैं। यदि आवेश विपरीत प्रकार के हैं (जैसे इलेक्ट्रॉन तथा प्रोटॉन) तो उनके बीच आकर्षण बल होता है। तब उन्हें एक दूसरे से दूर ले जाने में आकर्षण बल के विरुद्ध कार्य करना पड़ता है जिससे निकाय की स्थिरवैद्युत स्थितिज ऊर्जा बढ़ती है। यदि आवेश समान प्रकार के हैं (जैसे इलेक्ट्रॉन-इलेक्ट्रॉन अथवा प्रोटॉन-प्रोटॉन) तो वे एक दूसरे को प्रतिकर्षित करते हैं। अब उन्हें एक दूसरे के समीप लाने में प्रतिकर्षण बल के विरुद्ध कार्य करना पड़ता है जिससे निकाय की स्थिरवैद्युत स्थितिज ऊर्जा बढ़ती है।
(iv) चुम्बकीय स्थितिज ऊर्जा (Magnetic Potential Energy) : चुम्बकीय क्षेत्र में स्थित किसी गतिमान आवेश अथवा धारावाही चालक पर लगने वाले चुम्बकीय बल के कारण उसमें कार्य करने की क्षमता उत्पन्न हो जाती है। इसे 'चुम्बकीय स्थितिज ऊर्जा' कहते हैं।
(v) रासायनिक ऊर्जा (Chemical Energy) : विभिन्न प्रकार के ईंधनों में स्थितिज ऊर्जा रासायनिक ऊर्जा के रूप में संचित रहती है, जैसे: कोयले, पैट्रोल, मिट्टी के तेल, इत्यादि में ।
(vi) नाभिकीय ऊर्जा (Nuclear Energy) : यूरेनियम, रेडियम तथा थोरियम आदि तत्वों के नाभिकों में मूल कणों (प्रोटॉनो तथा न्यूट्रॉनों) की विशेष अवस्था के कारण जो स्थितिज ऊर्जा निहित होती है उसे नाभिकीय ऊर्जा कहते हैं। परमाणु बम, हाइड्रोजन बम, सूर्य तथा अन्य नक्षत्रों में नाभिकीय ऊर्जा का रूपान्तरण प्रकाश व ऊष्मा के रूप में होता रहता है।
(vii) ऊर्जा के मूल स्त्रोत के रूप में सूर्य : सूर्य लगातार प्रकाश तथा ऊष्मा के रूप में अति उच्च दर से ऊर्जा का उत्सर्जन कर रहा है। सूर्य की इस अपार ऊर्जा का स्त्रोत उसमें विद्यमान हल्के नाभिकों का संलयन (fusion) है। सूर्य के द्रव्यमान का लगभग 90% अंश हाइड्रोजन तथा हीलियम है, शेष 10% अंश में अन्य तत्व हैं जिनमें से अधिकांश हल्के तत्व हैं। सूर्य आग का एक गोला है, अतः अति उच्च ताप के कारण सूर्य में विद्यमान सभी तत्वों के परमाणुओं से बाहरी इलेक्ट्रॉन निकल जाते हैं। अतः वे तत्व नाभिकीय अवस्था में होते हैं। इन नाभिकों का वेग इतना अधिक होता इनके परस्पर टकराने से इनका संलयन स्वत: होता रहता है। इस अभिक्रिया में द्रव्यमान की कुछ क्षति हो जाती है और यह द्रव्यमान क्षति ऊर्जा में बदल जाती है। इस प्रकार, अपार ऊर्जा उत्पन्न होती रहती है। उपरोक्त के अतिरिक्त, ऊर्जा का एक निम्न स्वरूप भी है जो है द्रव्यमान ऊर्जा।
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