उत्सर्जन (excretion) एक regulatory क्रिया होती है। इससे हीमोलिम्फ में उत्सर्जी पदार्थों, जल और लवणों की एक सन्तुलित मात्रा बनी रहती है और इसका आयनिक संयोजन (ionic composition) तथा परासरणी दाब (osmotic pressure) शरीर की कोशिकाओं की आवश्यकता के अनुरूप बने रहते हैं। कॉकरोच में उत्सर्जन मुख्यतः मैल्पीघी नलिकाएँ करती हैं। fat body, देहभित्ति की Cuticle तथा नर की सहायक जनन ग्रन्थियाँ सहायक उत्सर्जी अंगों का काम करती हैं।
1. मैल्पीघी नलिकाएँ (Malpighian Tubules) : Midgut के पीछे के छोर से, छः समूहों में बँटी, 60 से 150, पीली एवं महीन धागेनुमा एक्टोडर्मी मैल्पीघी नलिकाएँ निकलकर हीमोसील में स्वतन्त्र फैली रहती हैं। प्रत्येक नलिका लगभग 26 मिमी लम्बी, 0.5 मिमी मोटी तथा स्वतन्त्र छोर पर बन्द होती है। इसकी दीवार मोटी और गुहा सँकरी होती है। दीवार का प्रमुख भाग बड़ी - बड़ी घनाकार ग्रन्थिल कोशिकाओं की इकहरी एपिथीलियम का बना होता है। एपिथीलियम के बाहर पेशी तन्तुओं और लचीले संयोजी ऊतक का महीन आवरण होता है। कोशिकाओं के स्वतन्त्र, भीतरी तल पर छोटे-छोटे सूक्ष्मांकुर (microvilli) होते हैं जिससे यह तल ब्रुश-सदृश (brush-border) दिखाई देता है। पेशीय खोल के संकुचन और शिथिलन से नलिकाओं में क्रमाकुंचन अर्थात् तरंगगति (peristalsis) उत्पन्न होती है।
कॉकरोच में शरीर की कोशिकाएँ नाइट्रोजनीय अपजात पदार्थ को मुख्यतः घुलनशील पोटैशियम यूरेट (potassium urate) के रूप में हीमोलिम्फ में मुक्त करती हैं। मैल्पीघी नलिकाएँ हीमोलिम्फ के कुछ तरल का निरन्तर अवशोषण करती रहती हैं। इस तरल में मुख्यतः जल, पोटैशियम यूरेट तथा कुछ लवण, ऐमीनो अम्ल आदि होते हैं। नलिकाओं के दूरस्थ भाग की कोशिकाएँ अवशोषी होने के साथ-साथ स्रावी भी होती हैं। ये पोटैशियम यूरेट की जल और CO2 से प्रतिक्रियाएँ करके इससे यूरिक अम्ल और पोटैशियम बाइकार्बोनेट बनाती हैं और इन्हें नलिकाओं द्वारा अवशोषित तरल में स्रावित कर देती हैं।
Microvilli की गति एवं क्रमाकुंचन अर्थात् तरंगगति के कारण नलिकाओं में तरल का बहाव दूरस्थ भाग से समीपस्थ भाग की ओर तथा यहाँ से Hindgut की ओर होता है। नलिकाओं के समीपस्थ भाग की कोशिकाएँ मुख्यतः अवशोषी होती हैं। ये नलिकाओं के तरल से पोटैशियम बाइकार्बोनेट, लवणों, ऐमीनो अम्लों आदि लाभदायक पदार्थों का, जल की काफी मात्रा के साथ, reabsorption करके इन्हें वापस हीमोसील के हीमोलिम्फ में मुक्त कर देती हैं। इस प्रकार, मैल्पीघी नलिकाएँ, कशेरुकियों के वृक्कों की भाँति, उत्सर्जन एवं परासरण नियन्त्रण (osmoregulation) का काम करती हैं।
स्पष्ट है कि नलिकाओं के समीपस्थ भाग में तरल मुख्यतः यूरिक अम्ल के एक गाढ़े से घोल के रूप में ही रह जाता है। इसे अब मूत्र (urine) कहा जा सकता है। Hindgut में पहुँचने पर इसमें से जल की अधिकांश, या आवश्यकता हो तो सारी बची हुई मात्रा का reabsorption हो जाता है। अतः यहाँ मूत्र यूरिक अम्ल के एक गाढ़े पेस्ट (paste) या इसके ठोस रवों (crystals) में बदल जाता है और इसी रूप में मल के साथ बाहर निकल जाता है। स्पष्ट है कि कॉकरोच यूरिकोटीलिक (uricotelic) होता है। उत्सर्जन की उपरोक्त विशिष्ट विधि का उद्देश्य शरीर से जल की क्षति को रोकना होता है। यह कॉकरोच जैसे स्थलीय कीटों के लिए अत्यावश्यक होता है, क्योंकि बाह्य कंकाल के कारण, इनके शरीर में जल की आमद बहुत कम होती है। इन्हें मुख्यतः अपचय (catabolism) में बने जल पर ही निर्भर रहना पड़ता है।
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3. देहभित्ति की उपचर्म (Cuticle) : शिशु से वयस्क बनने तक की वृद्धि प्रावस्था के दौरान कॉकरोच 10-12 बार बाह्य कंकाल का moulting करता है। बाह्य कंकाल में प्रोटीन्स की काफी मात्रा होती है, और सम्भवतः इनमें से कुछ हीमोलिम्फ से ग्रहण किए गए उत्सर्जी पदार्थ से बनती हैं। कुछ अनावश्यक लवणों का भी बहिष्कार moulting के माध्यम से होता है।
4. नर की सहायक जनन ग्रन्थि (Male Accessory Gland) : पेरिप्लैनेटा अमेरिकाना में तो नहीं, परन्तु कुछ अन्य जातियों के नर कॉकरोचों की सहायक जनन या छत्ररूपी ग्रन्थि (mushroom gland) की कोशिकाएँ सम्भवतः हीमोलिम्फ से नाइट्रोजनीय पदार्थ ग्रहण करके यूरिक अम्ल का संश्लेषण करती हैं। कहते हैं कि मैथुन के समय नर अपने शुक्राणुधरों, अर्थात् स्परमैटोफोर्स (spermatophores) की सुरक्षा के लिए इन पर यूरिक अम्ल उड़ेल देता है।
उपरोक्त रचनाओं के अतिरिक्त हृदय की दीवार से चिपकी नेफ्रोसाइट कोशिकाएँ हीमोलिम्फ से कुछ उत्सर्जी पदार्थ लेकर इनका विघटन करती रहती हैं। यूरिक अम्ल एवं कैल्सियम लवणों की कुछ मात्रा का उत्सर्जन सम्भवतः आहारनाल की एपिथीलियमी कोशिकाएँ करती हैं।
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