ग्रासनली की संरचना (Structure of Esophagus) तथा कार्य|hindi


ग्रासनली की संरचना (Structure of Oesophagus) तथा कार्य
ग्रासनली की संरचना (Structure of Oesophagus) तथा कार्य|hindi

ग्रसनी (pharynx) हलक या निगलद्वार (gullet) से आहारनाल के दूसरे भाग-ग्रासनली में खुलती है। हमारी ग्रासनली लगभग 25 सेन्टीमीटर लम्बी और 25 से 30 मिलीमीटर मोटी होती है। यह ग्रीवा तथा वक्ष भाग से गुजरती हुई, डायफ्राम (diaphragm) से होती हुई, उदरगुहा में प्रवेश करते ही बाईं ओर स्थित आमाशय में खुल जाती है। ग्रीवा में यह श्वासनाल के पीछे तथा वक्ष भाग में हृदय के पीछे, मध्यावकाश अर्थात् मिडिआस्टिनम (mediastinum) में स्थित होती है। 

इसकी दीवार मोटी एवं मांसल तथा भीतरी सतह पर उपस्थित अनुलम्ब भंजों (longitudinal folds) के कारण बहुत फैलने वाली अर्थात् distensible होती है। भोजन के आने पर ही इसकी गुहा फैलती है, अन्यथा यह folds के कारण सिकुड़ी रहती है। इसकी दीवार में पाचन ग्रन्थियाँ नहीं होतीं, लेकिन मोटी submucosa तथा mucosa के आधार पटल में छोटी श्लेष्म ग्रन्थियाँ होती हैं। श्लेष्म के कारण, नली में भोजन सुगमता से पीछे फिसलता हुआ आमाशय में पहुँच जाता है।


ग्रासनली की संरचना (Structure of Oesophagus) तथा कार्य|hindi

ग्रासनली की दीवार पर बाहर पेरिटोनियम की मीसोथीलियम का आवरण नहीं होता, केवल ढीले अन्तराली संयोजी ऊतक का खोल होता है जिसे इसीलिए लस्य स्तर (serosa) न कहकर
बाह्य स्तर (adventitia externa) कहते हैं। इसके नीचे पेशी स्तर मोटा होता है। ग्रासनली के ऊपरी एक-तिहाई भाग में पेशियाँ रेखित, एक-तिहाई मध्य भाग में रेखित एवं अरेखित तथा अन्तिम एक-तिहाई भाग में केवल अरेखित होती हैं। 

जुगाली करने वाले (ruminating or cud-chewing) चौपायों में पूरी दीवार में रेखित पेशियाँ होती हैं और इनका संकुचन ऐच्छिक नियन्त्रण (voluntary control) में होता है। पेशी स्तर के नीचे, submucosa मोटी होती है। mucosa पेशी स्तर में अरेखित पेशी तन्तु होते हैं। mucosa में आधार पटल मोटा होता है। mucosa कला मोटी स्तृत शल्की एपिथीलियम (stratified squamous epithelium) होती है।

ग्रासनली का ऊपरी अर्थात् ग्रसनी में खुलने वाला छिद्र उच्च ग्रासनालीय संकोचक पेशी (upper esophageal sphincter muscle) द्वारा तथा निचला आमाशय में खुलने वाला छिद्र निम्न ग्रासनालीय संकोचक पेशी (lower esophageal sphincter muscle) द्वारा नियन्त्रित होता है।




ग्रसनी तथा ग्रासनली के कार्य (Functions of Pharynx and Esophagus)


निगरण क्रिया (Swallowing or Deglutition)


भोजन का swallowing मुखगुहिका, ग्रसनी तथा ग्रासनली का संयुक्त कार्य होता है। इसमें भोजन के निवाले को मुखगुहा से आमाशय तक पहुँचाने की क्रिया होती है।

यह निम्नलिखित दो चरणों में पूरी होती है-

  1. ऐच्छिक, मुखगुहीय चरण (Voluntary, Oral phase)
  2. अनैच्छिक, ग्रसनीय चरण (Involuntary, Pharyngeal phase)

1. ऐच्छिक, मुखगुहीय चरण (Voluntary, Oral phase) 

इस चरण में जीभ पहले चबे हुए भोजन की लसदार लुगदी को एकत्रित करके इसका निवाला (bolus) बनाती है और फिर ऊपर उठकर ऊपरी तालु पर पीछे की ओर दबाव डालती है जिससे निवाला ग्रसनी के मुखग्रसनी (oropharynx) भाग में पहुँच जाता है।


2. अनैच्छिक, ग्रसनीय चरण (Involuntary, Pharyngeal phase) 

जैसे ही निवाला ग्रसनी में पहुँचता है, swallowing की शेष प्रक्रिया अनैच्छिक और प्रतिवर्ती (reflex) हो जाती है। निवाले के सम्पर्क में आते ही मुखग्रसनी की दीवार में उपस्थित संवेदांग (receptors) संवेदित हो जाते हैं। 

यह संवेदना मस्तिष्क के मेड्यूला में स्थित निगरण केन्द्र (swallowing center) में पहुँचती है। इस केन्द्र से निर्गमित (issued) चालक संवेदना (motor impulse) के कारण, कोमल तालु तथा uvula ऊपर उठकर नासाग्रसनी (nasopharynx) को मुखग्रसनी (oropharynx) भाग से पृथक् कर देते हैं। इसी के साथ-साथ स्वरकोष्ठक अर्थात् कण्ठ (larynx) भी आगे तथा ऊपर की ओर उठता है जिससे epiglottisपीछे तथा नीचे की ओर खिसककर कण्ठद्वार पर ढक जाता है।

इस प्रकार, वायुमार्ग बन्द हो जाता है, परन्तु कण्ठग्रसनी (laryngopharynx) भाग तथा ग्रासनली के बीच स्थित ऊपरी या उच्च ग्रासनालीय संकोचक पेशी (upper oesophageal sphincter muscle) के शिथिलन से निगलद्वार चौड़ा फैलकर निवाले को ग्रासनली में जाने का मार्ग दे देता है। निवाले के ग्रासनली में जाते ही श्वसन मार्ग खुल जाता है और श्वसन पुनः प्रारम्भ हो जाता है।

अनैच्छिक निगरण की ग्रासनालीय प्रावस्था में भोजन का निवाला कण्ठग्रसनी से ग्रासनली द्वारा आमाशय में पहुँचता है। जैसे ही निवाला ग्रासनली की दीवार के सम्पर्क में आता है, दीवार में एक ऐसी गति उत्पन्न हो जाती है जिससे निवाला ग्रासनली में तेजी से नीचे खिसकता हुआ 4 से 8 सैकण्ड में ही आमाशय में पहुँच जाता है। 
दीवार की इस गति को क्रमाकुंचन अर्थात् तरंगगति (peristalsis) कहते हैं, क्योंकि इसमें दीवार की वर्तुल तथा अनुलम्ब पेशियों के एकान्तरित संकुचन एवं शिथिलन से दीवार के छोटे-छोटे खण्ड ऊपर से नीचे की ओर, एक लहर की भाँति क्रमवार फूलते और पिचकते हैं। स्पष्ट है कि यह क्रमाकुंचन भी स्वायत्त तन्त्रिका तन्त्र के नियन्त्रण में एक प्रतिवर्ती प्रतिक्रिया (reflex reaction) के रूप में होता है। इसका नियन्त्रण केन्द्र भी मस्तिष्क की मेड्यूला में ही होता है।

ग्रासनली का यह क्रमाकुंचन ऊपरी ग्रासनालीय संकोचक पेशी (upper esophageal sphincter muscle) के शिथिलन से प्रारम्भ होकर निचली अर्थात् निम्न ग्रासनालीय संकोचक पेशी (lower esophageal, or cardiac, or gastro-esophageal sphincter muscle) के शिथिलन पर समाप्त होती है। जल तथा अन्य पेय तरल तो एक या दो सैकण्डों में ही ग्रसनी से ग्रासनली में होते हुए आमाशय में पहुँच जाते हैं।

ग्रासनली की दीवार में उपस्थित श्लेष्म ग्रन्थियाँ श्लेष्म का स्रावण करती हैं जिसमें कोई पाचन एन्जाइम नहीं होता। श्लेष्म भोजन को चिकना (फिसलना) बनाने के अतिरिक्त ग्रासनली की श्लेष्मिका को भोजन कणों के घर्षण (abrasion) और इसके ऊपर महीन स्तर के रूप में फैलकर इसे लार के पाचन एन्जाइमों के दुष्प्रभाव से बचाता है।

यदि निचला ग्रासनालीय संकोचक का शिथिलन ठीक से नहीं होता तो भोजन ग्रासनली में रुककर इसे फैला देता है जिससे हमारे वक्ष भाग में पीड़ा होने लगती है। इसे शूलरोग अर्थात् ऐकैलैसिया (achalasia) कहते हैं। प्रायः इसके कारण हृदय शूल (heart pain) की भ्रान्ति हो जाती है। 

इसके विपरीत, यदि निचला ग्रासनालीय संकोचक समय से बन्द नहीं होता तो आमाशय का उच्च अम्लीय तरल ग्रासनली में चढ़ जाता है जिससे हमें जलन-सी होने लगती है। इसे हृद्-दाह या अम्लशूल अर्थात् फोरोसिस (heartburn or pharoses) कहते हैं। इसमें अम्लरोधी (antacid) औषधियों से लाभ होता है।


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