संघ प्लैटीहेल्मिन्थीज (Platyhelminthes): परिचय एवं परिभाषा,लक्षण,वर्गीकरण|hindi


संघ प्लैटीहेल्मिन्थीज (Phylum Platyhelminthes) : परिचय एवं परिभाषा, लक्षण, वर्गीकरण
संघ प्लैटीहेल्मिन्थीज (Platyhelminthes): परिचय एवं परिभाषा,लक्षण,वर्गीकरण|hindi

संघ प्लैटीहेल्मिन्थीज के जंतु संघ प्रोटोजोआ, पोरिफेरासीलेन्ट्रैटा , सभी से भिन्न होते हैं। नीचे हम इनके बारे में विस्तार से जानेंगे। 

परिचय एवं परिभाषा (Introduction and Definition)
अंगीय स्तर के द्विपार्श्वीय एवं प्रोटोस्टोमी यूमेटाजोआ जिनमें देहगुहा नहीं होती (ऐसीलोमेट)।

"प्लैटीहेल्मिन्थीज" का अर्थ है "चपटे-कृमि" (flatworms) अर्थात इनका शरीर ऊपर-नीचे, अर्थात् पृष्ठ-अधर अक्ष (dorso-ventral axis) पर चपटा होता है। इसकी लगभग 10,000 जातियाँ ज्ञात है।


संक्षिप्त इतिहास (Brief History)
मनुष्य एवं अन्य जन्तुओं के शरीर में भीतर रहने वाले चपटे कृमियों से प्राचीनकालीन वैज्ञानिक दार्शनिक परिचित थे। फिर भी इनका वैज्ञानिक अध्ययन 18वीं सदी में ही प्रारम्भ हुआ। इसके बाद गेगेनवॉर (Gegenbaur, 1858) ने इन्हें अन्य जन्तुओं से पृथक् करके इनके लिए इस संघ की स्थापना की।

लक्षण (Characters)
इस संघ के जंतुओं के प्रमुख लक्षण इस प्रकार हैं -
  1. प्लैटीहेल्मिन्थीज संघ के अधिकांश सदस्य अन्य जन्तुओं, मुख्यतः कशेरुकियों के शरीर में परजीवी के रूप में रहते हैं। इनमें से कुछ रोगोत्पादक (pathogenic) होते हैं।
  2. मेटाजोआ में, जैव उद्विकास (organic evolution) के दौरान, सिर (head) का विभेदीकरण अर्थात् मुण्डिकरण (cephalization) यूमेटाजोआ में इन्हीं से प्रारम्भ हुआ।
  3. इस संघ के अनेक सदस्यों का शरीर खण्डों में बँटा रहता है किंतु यह विखण्डन वास्तविक नहीं होता है। 
  4. परजीवी होने के कारण जंतु या मनुष्य (पोषद) के शरीर में भीतर या बाहर चिपके रहने के लिए चूषकों (suckers), कण्टिकाओं, आदि के रूप में, आसंजक अंग (attachment organs) विकसित रहते हैं।
  5. इस संघ के जंतुओं का कोमल व चपटा, द्विपार्वीय शरीर तीन प्राथमिक भ्रूणीय स्तरों (primary germinal layers) से बनता है। यूमेटाजोआ में यह त्रिस्तरीय (triploblastic) गठन तथा द्विपार्श्वीय सममिति भी इन्हीं जन्तुओं से प्रारम्भ हुई।
  6. इनमें स्पष्ट अंगों एवं अंग-तन्त्रों का विकास हुआ रहता है, अर्थात् अंगीय स्तर के शरीर-संघठन (organ grade of organization) का प्रारम्भ भी यूमेटाजोआ में इन्हीं कृमियों से हुआ था। इनके शरीर में स्पष्ट उत्सर्जी तंत्र तथा जनन-तन्त्र उपस्थित रहते हैं लेकिन कंकाल, संवहनी एवं श्वसन तन्त्रों का अभाव रहता है। पाचन तन्त्र उपस्थित या अनुपस्थित मुख (यदि उपस्थित) एवं जनन छिद्र प्रायः अधरतल पर उपस्थित रहता है।
  7. इनमें उत्सर्जन विशेष प्रकार की नलिका-सदृश शिखा कोशिकाएँ (flame cells) द्वारा होता है। इन्हें प्रोटोनेफ्रीडिया (protonephridia) या सोलीनोसाइट्स (solenocytes) भी कहते हैं।
  8. इनमें देहगुहा अनुपस्थित रहती है। इनके शरीर में देहभित्ति एवं आन्तरांगों के बीच एक ठोस, ढीला-ढाला मीसोडर्मल ऊतक भरा रहता जिसे पैरेन्काइमा (parenchyma) कहते हैं।
  9. परजीवी जीव होने के कारण इनके जीवन के अनुकूल इनका जनन-तन्त्र बहुत विकसित और द्विलिंगी होता है। अकेले इन्हीं कृमियों के शुक्राणु में दो पूँछ होती हैं। इनमें निषेचन आन्तरिक होता है तथा इनमें जनन क्षमता अधिक होती है। इसी कारण इनका जीवन-वृत्त (life cycle) भी प्रायः जटिल होता है।

वर्गीकरण (Classification)
इस संघ के जीवो का वर्गीकरण मुख्यतः जीवन-विधि, देहभित्ति पर रोमाभों और शरीर में पाचन तन्त्र की उपस्थिति अनुपस्थिति के आधार पर किया गया है। इन वर्गों का वर्णन इस प्रकार है-
1. वर्ग टर्बीलेरिया (Class Turbellaria) : इस वर्ग के जंतुओं के लक्षण इस प्रकार हैं -
  • इस वर्ग के अधिकांश सदस्य जल में स्वाश्रयी (free-living) रहते हैं जबकि कुछ बाह्य परजीवी ( ectoparasites) के रूप में रहते हैं। 
  • स्वाश्रयी सदस्यों के जीवो में पत्तियों, आदि पर रेंगने और तैरने के लिए देहभित्ति पर रोमाभ (cilia) उपस्थित रहते हैं। भित्ति में उपस्थित एपीडर्मिस की अनेक कोशिकाएँ श्लेष्म का स्रावण करती हैं और अनेक में हैन्डाइट (rhabdites) नामक लम्बे-लम्बे निर्जीव कण होते हैं। 
  • इनमें मुखद्वार प्रायः सिरों से दूर, अधरतल पर उपस्थित रहता है। 
  • शरीर अखण्डीय रहता है। इसके अग्र सिरे पर संवेदांग उपस्थित रहते हैं परन्तु चूषकों का अभाव रहता है। 
  • इस वर्ग के कुछ जंतुओं में जनन लैंगिक तथा कुछ में जनन अलैंगिक होता है। इनमें से अधिकांश द्विलिंगी होते हैं तथा इनमें पुनरुत्पादन (regeneration) की  क्षमता अधिक रहती है। उदाहरण मीजोस्टोमा (Mesostoma), डुगेसिया (Dugesia = प्लैनैरिया Planaria।

2. वर्ग ट्रीमैटोडा (Class Trematoda) : इस वर्ग के जंतु पर्णकृमि (flukes) होते हैं। इस वर्ग के जंतुओं के लक्षण इस प्रकार हैं -
  • इस वर्ग के सभी जीव परजीवी होते हैं जिनमें से कुछ बाह्य परजीवी होते हैं, परन्तु अधिकांश जीव अन्तः परजीवी होते हैं।
  • इनका शरीर प्रायः पत्तीनुमा व अखण्डीय होता है। 
  • देहभित्ति का बाहरी स्तर रोमाभि एपीथीलियम (ciliated epithelium) के स्थान पर टेगूमेण्ट (tegument) नाम का एक सिन्साइसियल एवं प्रतिरोधक (resistant) मोटा स्तर रहता है। 
  • पोषद (host) के शरीर में ऊतकों से चिपकने के लिए चूषक (suckers) और प्रायः कण्टक (spines or hooks) उपस्थित रहते हैं।
  • वयस्क में संवेदांग प्रायः अनुपस्थित रहते हैं। 
  • इनमें मुखद्वार अग्र सिरे पर होता है। (vii) इनमें पाचन तन्त्र उपस्थित रहता है जबकि गुदा अनुपस्थित रहता है। 
  • इस वर्ग के अधिकांश जीव द्विलिंगी होते हैं तथा इनका जीवन-वृत्त सरल अथवा जटिल दोनों प्रकार का होता है। उदाहरण-पॉलीस्टोमम (Polystomum), फैशिओला (Fasciola), सिस्टोसोमा (Schis tosoma-मनुष्य तथा अन्य स्तनियों की रुधिरवाहिनियों का परजीवी होता है)।


3. वर्ग सिस्टोडा (Class Cestoda) : इस वर्ग के जंतु फीताकृमि (tapeworms) होते हैं। इस वर्ग के जंतुओं के लक्षण इस प्रकार हैं -
  • इस वर्ग के सभी जीव अन्तः परजीवी (endoparasites) होते हैं। जिनमें से अधिकतर कशेरुकियों की आहारनाल में पाए जाते हैं। 
  • अधिकांश सदस्यों में शरीर फीते (tape) के समान लम्बा एवं देहखण्डों (segments or proglottids) में बँटा रहता है। 
  • देहभित्ति पर मोटा टेगूमेण्ट उपस्थित रहता है। 
  • इस वर्ग के जीवो के अग्र सिरे पर चूषक या अन्य आसंजक अंग (attachment organs) उपस्थित रहते हैं।
  • इनमें मुख्यद्वार अनुपस्थित रहता है क्योंकि पाचन तन्त्र नहीं होता है। यह पोषद (host) के शरीर से पचा-पचाया तरल भोजन शरीर की सतह से प्रसरण द्वारा ग्रहण कर लेते है। 
  • इनमें संवेदांग अनुपस्थित रहते हैं। 
  • प्रत्येक देहखण्ड में एक पूर्ण द्विलिंगी (bisexual) जनन तन्त्र रहता है। जीवन-वृत्त प्रायः जटिल होता है। उदाहरण—टीनिया (Taenia), एकाइनोकोकस (Echinococcus), हाइमिनोलेपिस (Hymenolepis)।
इस संघ के जंतुओं द्वारा मनुष्यों में कई प्रकार के रोग होते हैं जिसके कारण कई बार मनुष्यों की मृत्यु भी हो जाती है। इसे रोकने के लिए मनुष्य को अपने आसपास साफ-सफाई रखने चाहिए तथा साफ व स्वच्छ भोजन का ही सेवन करना चाहिए।


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