फीताकृमि - टीनिया सोलियम (Tapeworm) : वर्गीकरण, लक्षण, चित्र का वर्णन|hindi


फीताकृमि - टीनिया सोलियम  (Tapeworm - Taenia)

फीताकृमि - टीनिया सोलियम (Tapeworm) : वर्गीकरण, लक्षण, चित्र का वर्णन|hindi

फीताकृमि - टीनिया सोलियम (Tapeworm - Taenia solium)

टीनिया प्लैटीहेल्मिन्थीज (Platyhelminthes) के अंतर्गत आने वाला एक फीताकृमि है। इसकी  श्रेणी की लगभग 1000 जातियों का वैज्ञानिक पता लगा चुके हैं। इनमें से टीनिया सोलियम (T.  solium) तथा टीनिया सैजिनैटा (T. saginata) मनुष्य की आँत के सबसे व्यापक परजीवी होते हैं। टीनिया के सदस्यों का जीवन-चक्र द्विपोषदीय (digenetic) होता है, अर्थात् यह दो पोषदों (hosts) में पूरा होता है। मनुष्य इनका प्राथमिक पोषद (primary host) होता है, क्योंकि इसमें इनकी वयस्क प्रावस्था पाई जाती है। टी० सोलियम का द्वितीयक पोषद (secondary host) सूअर होता है। इसकी शिशु प्रावस्था सूअर के मांस में पाई जाती है। अतः इसे सूअर मांस फीताकृमि (pork tapeworm) कहते हैं। टी० सैजिनैटा के द्वितीयक पोषद पशु होते हैं। इसकी शिशु प्रावस्था पशुओं के मांस में पाई जाती है। अतः इसे गोमांस फीताकृमि (beef tapeworm) कहते हैं।


वर्गीकरण (Classification):


जगत (Kingdom)              -         जन्तु (Animalia)
शाखा (Branch)                 -         यूमेटाजोआ (Eumetazoa)
प्रभाग (Division)               -         बाइलैटरिया (Bilateria)
उपप्रभाग (Subdivision)    -         प्रोटोस्टोमिया  (Protostomia)
खण्ड (Section)                 -          ऐसीलोमैटा (Acoelomata)
संघ (Phylum)                   -          प्लैटीहेल्मिन्थीज  Platyhelminthes)
वर्ग (Class)                        -           सिस्टोडा (Cestoda)
उपवर्ग (Subclass)            -           यूसिस्टोडा (Eucestoda)
गण (Order)                       -         साइक्लोफाइलिडिया  (Cyclophyllidea)
श्रेणी (Genus)                    -         टीनिया (Taenia)
जाति (species)                 -         सोलियम (solium)

फीताकृमि - टीनिया सोलियम (Tapeworm) : वर्गीकरण, लक्षण, चित्र का वर्णन|hindi

लक्षण (Characteristic)

टीनिया के प्रमुख लक्षण इस प्रकार हैं-

1. इसका शरीर मुख्यतः 18 से 45 मीटर लंबा तथा 1 सेंटीमीटर चौड़ा होता है। यह सफेद या हल्के पीले रंग का होता है। इसका पीछे का भाग सबसे चौड़ा होता है तथा आगे की ओर बढ़ते हुए यह धीरे-धीरे पतला होता जाता है। इसका शरीर मुख्यतः तीन भागों में विभाजित रहता है- शीर्ष अर्थात स्कोलेक्स, ग्रीवा तथा प्रश्रृंखल अर्थात स्ट्रोबिला।

2. इसके शरीर के अग्र छोर एक छोटा-सा गोल घुण्डीनुमा स्कोलेक्स होता है। इसके चौड़े मध्य भाग पर, एक-दूसरे से बराबर दूरी पर स्थित, चार प्यालेनुमा मांसल चूषक (suckers) होते हैं। चूषकों के आगे का भाग शंक्वाकार होता है। इसे तुण्डक या शीर्षाग्र अर्थात् रोस्टेलम (rostellum) कहते हैं। तुण्डक अर्थात् रोस्टेलम की वृत्ताकार आधार सीमा पर दो एकान्तरित रेखाओं में व्यवस्थित 28 से 32 नुकीले, मुड़े हुए तथा काइटिनयुक्त हुक (hooks) होते हैं। अग्र रेखा के हुक, पश्च रेखा के हुकों से कुछ बड़े होते हैं। प्रत्येक हुक में तीन भाग होते हैं-मूल या आधार भाग (root or base) जिसके द्वारा हुक शीर्ष से जुड़ा होता है। चूषकों तथा हुकों द्वारा फीताकृमि का शीर्ष पोषद की आँत की दीवार में धँसा रहता है जिसके कारण यह पोषद की आँत के क्रमाकुंचन (peristalsis) के बल का प्रतिकार करके मल के साथ बाहर धकेल दिए जाने से बच जाता है।

3. इसके शीर्ष के पीछे का कुछ हिस्सा अत्यधिक महीन भाग होता है जिसे ग्रीवा कहते हैं। यह खंडों में बांटा नहीं होता है तथा यह अत्यधिक क्षत्रिय कोशिका विभाजन का भाग होता है इसलिए इसे मुकुलन क्षेत्र कहते हैं क्योंकि इसमें प्रतिदिन लगभग 7 से 8 खंड लगातार बनते हैं।

4. ग्रीवा के पीछे का पूरा शरीर प्रोमिला कहलाता है। यह लगभग 800 से 1000 चपटे तथा आयताकार देह खंडों की रेखीय श्रंखला के रूप में होता है क्योंकि यह ग्रीवा भाग से बनकर धीरे-धीरे पीछे की ओर खिसकते रहते हैं। इसके शरीर के पीछे का हिस्सा सबसे बड़ा होता है।
इनके शरीर की देहभित्ति में बाहरी सतह पर कोशिकीय बाह्यत्वचा या अधिचर्म (epidermis) नहीं होती, वरन् इसके स्थान पर कोशिकाद्रव्य का एक मोटा एवं चीमड़ अविच्छिन्न स्तर अर्थात् सिन्सीशियम (syncytium) होता है जिसे आच्छादक (tegument) कहते हैं।

5. यह जीव द्विलिंगी होते हैं अर्थात इनमें नर व मादा दोनों जननांग पाए जाते हैं। जब यह लगभग 200 खंडों के पीछे पहुंचता है तो चौकोर सा हो जाता है और इसमें केवल नर जननांग परिपक्व होकर क्रियाशील हो जाते हैं फिर जब यह 300 से 350 खंडों के पीछे पहुंचता है तो इसमें मादा जननांग भी परिपक्व होकर क्रियाशील हो जाते हैं अतः इन खंडों को परिपक्व खंड कहते हैं।

6. टीनिया के नर जननांगों के अंतर्गत वृषण (testes), अपवाही शुक्रनलिकाएं (Vasa Efferentia), शुक्र वाहिका (Vas Deferens), शिशन एवं स्खलन नलिका(Penis or Cirrus and Ejaculatory Duct), जननांकुर एवं जनन छिद्र (Genital Papilla and pores) आते हैं तथा मादा जननांगों के अंतर्गत अंडाशय (Ovary), अंडवाहिनी (Oviduct),  ओअटाइप (Ootype), योनि (Vagina), विटेलाइन ग्रंथि (Vitelline Gland) तथा गर्भाशय (Uterus) आते हैं।

7. इनमें जनन स्वः निषेचन द्वारा होता है। क्योंकि सामान्यतः एक मानव पोषद में एक ही फीताकृमि होता है।

8. यह पोषद की आंत में रहने के कारण सक्रिय गमन नहीं करते हैं।

9. इनमें मुख, गुदा तथा पाचन तंत्र नहीं होता है। यह तरल पोषक पदार्थों को पोषद की काईम (Chyme) से अपने शरीर की सतह पर विसरण (Diffusion) द्वारा ग्रहण करते हैं। पाचनांगों की अनुपस्थिति फीताकृमिर्यों का अद्वितीय लक्षण होता है।

10. इन जंतुओं में शेषनाग श्वसन अंग भी नहीं होते हैं। इनमें मुख्यतः अनाक्सी अर्थात अवायवीय श्वसन होता है। लेकिन यदि पोषण की आँत में थोड़ी बहुत ऑक्सीजन मिल जाती है तो इनमें ऑक्सी श्वसन भी हो सकता है।

11. फीताकृमिर्यों में उत्सर्जन के लिए बहुत विशिष्ट प्रकार की कोशिकाएं होती है जो सारे पैरेंकाइमा में इधर-उधर बिखरी रहती हैं इन्हें शिखा या ज्वाला कोशिकाएं कहते हैं।

12. अन्तःपरजीवी (endoparasite) होने के कारण, फीताकृमि में संवेदांगों की आवश्यकता नहीं होती, लेकिन तन्त्रिका तन्तुओं और कुछ तन्त्रिका कोशिकाओं का बना एक द्विपार्श्वीय तन्त्र होता है। इस तन्त्र में शीर्ष में स्थित, तन्त्रिका कोशिकाओं के दो बड़े पार्श्व समूह होते हैं जिन्हें प्रमस्तिष्क गण्डिकाएँ या गुच्छक (cerebral ganglia) कहते हैं।



FAQs

1. फीताकृमि से कौन सा रोग होता है?

Ans. फीताकृमि से कई प्रकार के रोग होते हैं, जिनमें से कुछ इस प्रमुख हैं:
  • टेनियासिस: यह रोग टीनिया सोलियम (Taenia solium) और टीनिया सागिनटा (Taenia saginata) नामक फीताकृमि के कारण होता है।
  • हाइडाटिड रोग: यह रोग इचिनोकोकस ग्रैन्युलोसस (Echinococcus granulosus) नामक फीताकृमि के कारण होता है।
  • सिस्टीसर्कस रोग: यह रोग टीनिया सोलियम (Taenia solium) नामक फीताकृमि के कारण होता है।


2. फीताकृमि का वैज्ञानिक नाम क्या है?

Ans. फीताकृमि का वैज्ञानिक नाम सेस्टोडा (Cestoda) है।


3. टेपवर्म इंसानों में कितने समय तक जीवित रह सकता है?

Ans. टेपवर्म इंसानों में कई वर्षों तक जीवित रह सकते हैं। कुछ टेपवर्म 20 साल तक भी जीवित रह सकते हैं।


4. क्या टेपवर्म आपको मार सकते हैं?

Ans. टेपवर्म आमतौर पर मनुष्यों को नहीं मारते हैं, लेकिन कुछ मामलों में वे गंभीर स्वास्थ्य समस्याएं पैदा कर सकते हैं।


5. टेपवर्म शरीर में कैसे प्रवेश करते हैं?

Ans. टेपवर्म शरीर में निम्नलिखित तरीकों से प्रवेश करते हैं:

  • संक्रमित भोजन या पानी का सेवन: यदि कोई व्यक्ति संक्रमित भोजन या पानी का सेवन करता है, तो टेपवर्म के अंडे या लार्वा शरीर में प्रवेश कर सकते हैं।
  • संक्रमित मांस का सेवन: यदि कोई व्यक्ति संक्रमित मांस का सेवन करता है, तो टेपवर्म के सिस्ट शरीर में प्रवेश कर सकते हैं।
  • खराब स्वच्छता: यदि किसी व्यक्ति के आस पास स्वच्छता नहीं होती है, तो टेपवर्म के अंडे या लार्वा शरीर में प्रवेश कर सकते हैं।




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