टीनिया के परजीविता अनुकूलन, रोगजनक, उपचार, रोग निरोधन(Parasitic Adaptations Of Taenia)|hindi


टीनिया के परजीविता अनुकूलन, रोगजनक, उपचार तथा रोग निरोधन(Parasitic Adaptations Of Taenia)
टीनिया के परजीविता अनुकूलन, रोगजनक, उपचार, रोग निरोधन(Parasitic Adaptations Of Taenia)|hindi

टीनिया  के लक्षणों के बारे में हम पहले पढ़ चुके हैं। आज हम टीनिया के परजीविता अनुकूलन, रोगजनक, उपचार तथा रोग निरोधन का बारे में जानेंगे।

परजीवी जीवन के कारण टीनिया के कई लक्षणों में अग्रलिखित अनुकूली परिवर्तन प्रदर्शित होते हैं—

  1. परजीवी जीवन के कारण टीनिया के कई लक्षणों में अग्रलिखित अनुकूली परिवर्तन प्रदर्शित होते हैं—
    उन्नतोन्मुखी परिवर्तन (Progressive Modifications)
    : इनकीषदेहभित्ति की सतह पर कोशिकीय अधिचर्म के स्थान पर दृढ़ आच्छादक या टेगूमेन्ट का विकास तथा पोषद की दीवार से आसंजित होने के लिए चूषकों एवं हुकों का विकास महत्त्वपूर्ण अनुकूली परिवर्तन होता हैं, परन्तु इनसे भी अधिक महत्त्वपूर्ण उन्नतोन्मुखी परिवर्तन विशाल जनन क्षमता का विकास है। प्रत्येक कृमि के 7-8 सगर्भ खण्ड प्रतिदिन पोषद के मल के साथ बाहर निकलते हैं और प्रत्येक खण्ड में लगभग 30-40 हजार भ्रूणयुक्त अण्डे होते हैं। इतनी बड़ी संख्या में अण्डों का उत्पादन फीताकृमि के लिए इसलिए महत्त्वपूर्ण होता है कि द्वितीयक पोषद में अण्डों का पहुँचना संयोगिक होता है और अनेक अण्डे मिट्टी में रहकर समाप्त हो जाते हैं।


रोगजनकता, उपचार तथा रोगनिरोधन  (Pathogenesis, Therapy and Prophylaxis)
  1. रोगजनकता (Pathogenesis) : टीनिया से संक्रमित रोगियों के अंतर्गत विशेषतः बच्चे तथा कमजोर व्यक्ति आते हैं जिनमें, टीनिऐसिस (Taeniasis) नामक रोग हो जाता है। इस रोग से पीड़ित रोगी अत्यधिक दुर्बल हो जाता है और अपच के कारण इसमें रुधिरक्षीणता (anaemia) हो जाती है। उदरशूल, मितली, चक्कर आना आदि भी इस रोग के सामान्य लक्षण होते हैं। धीरे धीरे इन रोगियों में तन्त्रिकीय विकार उत्पन्न होने लगते हैं। यदि संयोग से मनुष्य टीनिया के अण्डों या ओन्कोस्फीयर से संक्रमित हो जाता है तो इसमें सिस्टिसर्कोसिस (cysticercosis) नामक रोग हो जाता है जो टीनिऐसिस से भी अधिक हानिकारक होता है। हेक्जाकैन्थ लार्वा प्रायः नेत्रों की पेशियों या मस्तिष्क में पहुँचकर ब्लैडर वर्म में विकसित होता है जिससे क्रमशः अन्धापन या मस्तिष्क का क्षय (necrosis) हो जाता है। मस्तिष्क के क्षय के फलस्वरूप मिरगी (epilepsy) तथा अंगघात (paralysis) ही नहीं वरन् रोगी की मृत्यु तक हो सकती है। यदि हेक्जाकैन्थ लार्वा किसी रेखित पेशी में पहुँच जाता है तो मनुष्य को विशेष हानि नहीं होती। प्रायः निकटवर्ती ऊतक इसके चारों ओर एक कैल्सियमयुक्त पुटिका बनाकर इसे बन्द कर देता है। ऐसी पुटिका से पोषद को कोई विशेष असुविधा नहीं होती।
  2. उपचार (Therapy) : संक्रमित मनुष्य की आँत से फीताकृमि को बाहर निकालने हेतु कैमोक्विन (Chamoquin), क्विनैक्राइन (Quinacrine), कार्बन टेट्राक्लोराइड (Carbon tetrachloride), ऐन्टिफेन (Antiphen), योमेसन (Yomesan), डाइक्लोरोफेन (Dichlorophen) आदि औषधियों का प्रयोग होता है। प्रायः ये औषधियाँ सफल नहीं हो पातीं तो फिर कृमि को ऑपरेशन द्वारा ही हटाया जा सकता है।
  3. रोगनिरोधन (Prophylaxis) : व्यक्तिगत स्वच्छता, मल का उपयुक्त विसर्जन तथा सूअर मांस को अच्छी तरह पकाकर खाना, फीताकृमि के संक्रमण से बचने की महत्त्वपूर्ण विधियाँ हैं।

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