संघ ऐनेलिडा (Phylum Annelida)
परिचय एवं परिभाषा (Introduction and Definition)
यह द्विपाश्र्वय एवं प्रोटोस्टोमी यूसीलोमेट यूमेटाजोआ होते हैं जिनका शरीर लम्बा, पतला व कोमल, कृमि जैसा होता है जो 'मुद्राकार' समखण्डों में बँटा (segmented) तथा जिनकी त्वचा में प्राय: उपचर्म के बने, सीटी (setae) नामक असंयुक्त उपांग (non jointed appendages) होते हैं। "ऐनेलिडा" का अर्थ है खण्डयुक्त कृमि (segmented worms)। इस संघ के जंतुओं की लगभग 15,000 जातियाँ ज्ञात है।संक्षिप्त इतिहास (Brief History)
सन् 1758 में लिनियस (Linnaeus) ने कोमल शरीर वाले सभी कृमियों को एक ही संघ-बर्मीस (Vermes) में रखा था। लेकिन बाद में लैमार्क (Lamarck, 1801) ने उच्च कृमियों के लिए संघ ऐनेलिडा की स्थापना की।लक्षण (Characters)
इस संघ के जंतुओं के प्रमुख लक्षण इस प्रकार हैं-1. किस संघ के कुछ जीव संसारभर में गीली मिट्टी या जल में स्वतंत्र पाए जाते हैं जबकि कुछ बिलों में रहने वाले होते हैं तथा कुछ जीव परजीवी होते हैं।
2. इनका शरीर प्रायः पतला व लम्बा होता है। इनके शरीर के विखण्डन (segmentation) शरीर पर बाहर स्पष्ट दिखाई देते हैं। इनके शरीर के भीतर देहगुहा तथा अनेक आन्तरांग समखण्डीय (metamerically arranged) उपस्थित होते हैं।
3. इनका शरीर कोमल व लचीला होता है जो द्विपाश्र्वय एवं त्रिस्तरीय (triploblastic) होता है |
4. इनकी देहभित्ति मांसल एवं कुंचनशील युक्त होती है जिस पर महीन उपचर्म का आवरण होता है। इसमें अनुलम्ब (longitudinal) एवं वर्तुल (circular) दोनों ही तरह के पेशी स्तर होते हैं।
5. इनमें गमन के लिए देहभित्ति में उपचर्म से बनी सूक्ष्म छड़नुमा सीटी (setae) उपस्थित होती है।
6. इनकी देहगुहा वास्तविक सीलोम (true coelom) की बनी होती है। इसके चारों ओर भ्रूण की मीसोडर्म (mesoderm) से बनी एपीथीलियम अर्थात् पेरीटोनियम (peritoneum) का आवरण होता है। अन्तराखण्डीय पट्टियों (intersegmental septa) द्वारा यह प्रायः समखण्डीय कक्षों (segmental chambers) में बँटी रहती है। इसके शरीर के बीचों-बीच सीधी आहारनाल होती है। अतः शरीर की सकल संरचना "नली के भीतर नली (tube within tube)" के रूप में होती है।
7. इनके शरीर में स्पष्ट एवं बन्द (closed) रुधिर परिसंचरण तन्त्र उपस्थित रहता है । इनका रुधिर लाल तो होता है परन्तु इनमें लाल रुधिराणुओं का अभाव होता है और हीमोग्लोबिन प्लाज्मा में घुला रहता है।
8. इन जंतुओं में श्वसन सामान्यतः नम त्वचा से होता है लेकिन कुछ में यह प्रक्रिया क्लोमों (gills) द्वारा होती है।
9. इनमें उत्सर्जन भ्रूण की एक्टोडर्म से बनी विशेष प्रकार की, सूक्ष्म कुण्डलित नलिकाओं द्वारा होता है जिन्हें मेटाउत्सर्गिकाएँ (metanephridia) कहते हैं।
10. इनके तन्त्रिका तन्त्र में अग्र सिरे के पास एक तन्त्रिका मुद्रा (nerve ring) तथा इसी से जुड़े, शरीर की लम्बाई में फैले और परस्पर जुड़े दो तन्त्रिका रज्जु (nerve cords) होती है। रज्जुओं पर समखण्डीय गुच्छक (segmental ganglia) होते हैं तथा कई प्रकार की अनेक ज्ञानेन्द्रियाँ होती हैं।
11. इस संघ के जंतु एकलिंगी या द्विलिंगी दोनों होते हैं। इनके जननांग देहगुहीय आवरण से बनते हैं।
12. इस संघ के अधिकांश सदस्यों के जीवन-वृत्त में कोई शिशु प्रावस्था नहीं, परन्तु कुछ में ट्रोकोफोर (trochophore) नामक में शिशु (larval) प्रावस्था पाई जाती है।
वर्गीकरण (Classification)
सीटी (setae) के होने-न-होने तथा होने पर इनकी स्थिति एवं विन्यास, संवेदांगों की उपस्थिति अनुपस्थिति, लक्षणों के आधार पर ऐनेलिडा को तीन वर्गों में बाँटा गया है -
1.वर्ग पोलीकीटा (Class Polychaeta) : इस वर्ग के जंतुओं के प्रमुख लक्षण इस प्रकार है-
- इस संघ के सभी जीव समुद्री होते हैं।
- इनके शरीर में सीटी संख्या में अधिक होती है जो समखण्डों के पार्श्वों में स्थित जोड़ीदार मांसल Parapodia में झुण्डों में गड़ी रहते हैं। इनमें गमन इन्हीं Parapodia द्वारा होता है।
- इनका शीर्ष स्पष्ट रूप से निम्न में विभाजित रहता है जिस पर, स्पर्श ज्ञान के लिए स्पर्शक (tentacles), गन्ध ज्ञान के लिए पैल्स (palps), और बहुधा आँखें उपस्थित रहती हैं।
- इनमें क्लाइटेलम (clitellum) अनुपस्थित रहता है।
- एकलिंगी जीवो में जनद (gonads) केवल प्रसवनकाल (breeding season) के दौरान बनते हैं जोकि अस्थायी अंगों के रूप में रहते हैं। यह कई खण्डों में बनते हैं।
- इनके जीवन-वृत्त में ट्रोकोफोर शिशु प्रावस्था होती है उदाहरण- नीरीस या निएन्थीस (Nereis or Neanthes), ऐरेनीकोला (Arenicola), कीटोप्टेरस (Chaetopterus)।
2. वर्ग ओलाइगोकीटा (Class Oligochaeta) :
- इस वर्ग के जीव प्रायः नम मिट्टी या तालाबों, झीलों, आदि के वासी होते हैं।
- इनमें Parapodia अनुपस्थित रहते हैं। सीटी संख्या में कम तथा त्वचा की सूक्ष्म जटिल थैलियों (setal sacs) में एकाकी के रूप में स्थित रहती है।
- इस वर्ग के जंतुओं में स्पर्शक एवं नेत्र अनुपस्थित रहते हैं। अतः इनके शरीर का शीर्ष अस्पष्ट दिखाई देता है।
- इनके शरीर के अग्र छोर से कुछ पीछे वयस्क शरीर के एक छोटे-से भाग पर एक मुद्राकार या अर्ध-मुद्राकार ग्रन्थिल रचना होती है जिसे क्लाइटेलम कहते हैं। जननकाल में इसके चारों ओर स्रावित पदार्थ से ककून (cocoon) बनता है। अण्डों का निषेचन एवं भ्रूणीय परिवर्धन ककून में ही होता है। इसके बाद ककूनों को शरीर पर से उतारकर मिट्टी में छोड़ दिया जाता है।
- इस वर्ग के जंतु द्विलिंगी होते हैं अर्थात इनमें जनद स्थाई अंग के रूप में होता है।
- इनमें शिशु प्रावस्था अनुपस्थित रहती है। उदाहरण—फेरेटिमा (Pheretima); लुम्ब्रीकस (Lumbricus); यूटाइफियस (Eutyphaeus), आदि विभिन्न प्रकार के केंचुए, डीरो (Dero), नाया (Nais) इसके अन्तर्गत आते हैं।
3. वर्ग हीरूडीनिया (Class Hirudinea) :
- इस वर्ग के जीव जलीय या स्थलीय जोंक (Leeches) होते हैं जो प्रायः बाह्य परजीवी (ectoparasites) की तरह समय-समय पर अन्य जन्तुओं के शरीर पर चिपककर उनका रुधिर चूसते हैं। \
- इनका शरीर खण्डीय होता है जो 33 या 34 खंडो में विभाजित रहता है।
- Parapodia एवं सीटी अनुपस्थित रहते हैं।
- पोषद के शरीर पर चिपकने हेतु शरीर के छोरों पर चूषक (suckers) तथा घाव बनाने हेतु दाँत व रुधिर चूसने हेतु पम्प की भाँति काम करने वाली ग्रसनी (pharynx) उपस्थिति रहती है।
- जनन के लिए इनके शरीर में क्लाइटेलम और ककून (cocoon) बनते हैं।
- वयस्क अवस्था तक इनकी देहगुहा एक विशेष प्रकार के बोट्रिऑइडल ऊतक (botryoidal tissue) से भर जाने के कारण केवल चार प्रमुख नालों एवं इनकी शाखाओं में सीमित हो जाती है जो परिसंचरण (हीमोसीलोमिक) तन्त्र बनाती हैं।
- इस वर्ग के जंतु द्विलिंगी होते हैं। इनमें शिशु प्रावस्था अनुपस्थित रहती है। उदाहरण-हीरूडिनेरिया (Hirudinaria), ब्रैकेलियॉन (Branchellion), हीमैडिप्सा (Haemadipsa)|
इस संघ के जंतु मनुष्य के लिए कई तरह से हानिकारक होते है। यह है मनुष्य में कई प्रकार के त्वचा संबंधी रोग फैला देते हैं इसलिए ऐसी जगहों पर सावधानी बरतनी चाहिए जहां पर इनकी पाए जाने की संभावना हो।
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