संघ आर्थ्रोपोडा (Arthropoda) : परिचय एवं परिभाषा, लक्षण, वर्गीकरण|hindi


संघ आर्थ्रोपोडा (Phylum  Arthropoda) : परिचय एवं परिभाषा, लक्षण, वर्गीकरण
संघ आर्थ्रोपोडा (Arthropoda) : परिचय एवं परिभाषा, लक्षण, वर्गीकरण|hindi

परिचय एवं परिभाषा (Introduction and Definition)
यह द्विपार्श्वीय एवं प्रोटोस्टोमी यूसीलोमेट यूमेटाजोआ होते हैं  जिनका शरीर, ऐनेलिडा की भाँति खण्डयुक्त होता है परन्तु इसके प्रत्येक खण्ड पर एक जोड़ी मजबूत पाश्र्र्वीय संधित उपांग (jointed appendages) उपस्थित रहते हैं।

"आर्थ्रोपोडा" नाम का अर्थ है संयुक्त उपांगों वाला (Gr., arthron = joint; podos = foot)। इस संघ के जंतुओं में बाह्य कंकाल एवं संयुक्त उपांगों के कारण यह बहुत सफल वर्तमान जन्तु हैं। इनकी लगभग, 9 लाख से भी अधिक जातियाँ ज्ञात हैं, जबकि शेष जन्तुओं की ज्ञात जातियों की कुल संख्या लगभग 6 लाख ही है।


संक्षिप्त इतिहास (Brief History)
अरस्तू (Aristotle) ने केकड़ों, आदि कुछ आर्थ्रोपोडा का वर्णन किया। लिनियस (Linnaeus) ने ऐसे सभी जन्तुओं को समूह “इन्सेक्टा (Insecta)” में रखा। लैमार्क (Lamarck) ने इस समूह को तीन वर्गों-क्रस्टेशिया, हेक्सापोडा तथा ऐरैक्नाइडा (Crustacea, Hexapoda and Arachnida) में बाँटा । अन्त में वॉन सीबोल्ड (Von Seibold, 1845) ने इन जन्तुओं के लिए “संघ आर्थ्रोपोडा" की स्थापना की।

प्रमुख लक्षण (Important Characters)
इनके प्रमुख लक्षण इस प्रकार हैं -
  1. इस संघ के जंतु भूमि पर, हवा में या जल में, हर स्थान पर पाए जाते हैं। इसके कुछ सदस्य अन्य जन्तुओं और पादपों के परजीवी होते हैं। अतः इस संघ का मनुष्य से घनिष्ठ आर्थिक सम्बन्ध है।
  2. इस संघ के जंतुओं का शरीर त्रिस्तरीय द्विपार्श्वीय समखण्डों में बँटा (segmented)तथा प्रायः सिर, वक्ष एवं उदर भागों में विभेदित। यह विखण्डन केवल बाहर स्पष्ट दिखाई देता है तथा इनके खण्डों की संख्या स्थाई होती है। खण्डों के चारों ओर मोटी व कठोर काइटिनयुक्त उपचर्म (cuticle) का बाह्य कंकाल (exoskeleton) होता है।
  3. प्रत्येक खण्ड पर मूलतः एक जोड़ी पाश्र्वय (lateral) एवं सन्धित उपांग (jointed appendages) होते हैं जो प्रायः, कार्यों के अनुसार, मुख-उपांगों, क्लोमों, चलनपादों, चप्पुओं (paddles), सहायक जननांगों, आदि में रूपान्तरित हो जाते हैं।
  4. इसकी सीलोम (coelom) गुहा लघुकृत तथा जननांगों एवं उत्सर्जी अंगों में सीमित रहती है। इसके आन्तरांगों के चारों ओर, सीम के स्थान पर, रुधिरपात्रों (blood sinuses) के समेकन से बनी, हीमोसील (haemocoel) नामक बड़ी गुहा उपस्थित रहती है। अतः रुधिरपात्रों का खुला परिसंचरण तन्त्र (open blood vascular system) होता है। हीमोसील का सम्बन्ध पृष्ठतल की ओर स्थित लम्बे, नलिकास्वरूप एवं कुंचनशील हृदय से रहता है। रुधिर में प्रायः घुली हीमोसायनिन (haemocyanin) नामक श्वसन रंगा होती है।
  5. इनका पेशी तन्त्र विकसित होता है तथा पेशियाँ रेखित (striped) होती हैं। 
  6. इनमें श्वसन के लिए जलीय सदस्यों में जल-क्लोम (gills), स्थलीय में वायुनलिकाएँ (tracheae) या बुक-लंग्स (book lungs) उपस्थित रहते हैं। कुछ में श्वसन देहभित्ति से विसरण (diffusion) द्वारा होता है।
  7. इन जंतुओं में उत्सर्जन सीलोमोडक्ट (coelomoducts) या विशेष प्रकार की मैल्पीघी नलिकाओं (malpighian tubules) द्वारा होता है। 
  8. इनका तन्त्रिका तन्त्र आदर्श रूप से ऐनेलिडा की ही भाँति-सिर में मस्तिष्क सहित एक तन्त्रिका मुद्रा जैसा दिखता है। यह दोहरी तन्त्रिका रज्जु से जुड़ा रहता है। रज्जु पर समखण्डीय जोड़ीदार गुच्छक (segmental ganglia) होता है तथा इनमें विकसित संवेदांग उपस्थित रहते हैं।
  9. इस समय के जंतुओं की अधिकांश जातियाँ एकलिंगी होती हैं। नर व मादा में प्रायः लैंगिक भेद (sexual dimorphism) होता है तथा इनमें निषेचन (fertilization) आदर्श रूप से मादा के शरीर में होता है।
  10. इनके जीवन वृत्त में प्रायः एक या अधिक शिशु प्रावस्थाएँ होती हैं जिनके कायान्तरण (metamorphosis) से वयस्क बनता है।


वर्गीकरण (Classification)
शरीर की आकृति, इसके विखण्डन एवं क्षेत्रीयकरण की दशाओं तथा स्पर्शकों (antennae), मैन्डीबल्स (mandibles) एवं केलिसेरी (chelicerae) नामक उपांगों के होने न होने पर इस संघ को तीन उपसंघों में बाँटा गया है

1. उपसंघ ट्राइलोबाइटा (Subphylum Trilobita)
  • इसके अंतर्गत विलुप्त समुद्री आर्थ्रोपोडा, जिसके जीवाश्म कैम्ब्रियन से परमियन (Cambrian to Permian) कल्पों की चट्टानों से प्राप्त हुए हैं, आते हैं। 
  • इनका शरीर दो लम्बवत् खाँचों द्वारा 10 से 675 मिमी लम्बा होता है जो तीन लम्बे पिण्डों में बँटा रहता है। 
  • इनके शीर्ष अस्पष्ट होते हैं। 
  • इनका उदर भाग 2 से 29 खण्डों में बँटा रहता है तथा पीछे के छोर पर एक पुच्छ प्लेट (caudal plate) उपस्थित रहती है। 
  • इनके शरीर पर अन्तिम खण्ड को छोड़ शेष सभी पर एक-एक जोड़ी द्विशाखीय (biramous) सन्धित उपांग होते हैं। उदाहरण ट्राइआथ्रेस (Triarthrus) |

2. उपसंघ केलिसिरैटा (Subphylum Chelicerata)
  • यह मुख्यतः स्थलीय होते हैं अर्थात यह स्थल पर ज्यादा पाए जाते हैं। 
  • इनका शरीर सिर, वक्ष एवं उदर भागों में विभेदित रहता है। सिर एवं वक्ष भाग परस्पर शिरोवक्ष (cephalothorax or prosoma) में समेकित रहता है। शिरोवक्ष पर नेत्र एवं छः जोड़ी उपांग जिसमें मैन्डीबल्स के बजाय एक जोड़ी पंजेदार केलिसेरी (chelicerae)में, एक जोड़ी पेडीपैल्प्स (pedipalps), तथा चार जोड़ी पाद उपस्थित रहते हैं। इनमें ऐन्टिनी अनुपस्थित रहती है तथा इनका उदर भाग चौड़े मध्यकाय या मीसोसोमा (mesosoma), छोटे-से पश्चकाय या मेटासोमा (metasoma) एवं एक लम्बे पुच्छखण्ड (telson) में विभेदित रहता है। जिस पर उपांग प्रायः अनुपस्थित रहते हैं।
  • इनमें उत्सर्जन मैल्पीघी नलिकाओं (malpighian tubules) या श्रोणि ग्रन्थियों (coxal glands) द्वारा होता है। 
  • इन जंतुओं में श्वसन क्लोमों (gills), ट्रैकी (tracheae) या बुक-लंग्स (book-lungs) द्वारा होता है। 
  • इस उपसंघ के जंतु अधिकांश एकलिंगी होते हैं जिसमें मादाएँ प्राय: अण्डे देती हैं।

श्वसनांगों के आधार पर इस उपसंघ को मुख्यतः तीन वर्ग में बांटा जा सकता है-

a. वर्ग मीरोस्टोमैटा (Class Merostomata)
  • इसके अंतर्गत समुद्री अश्वनाल केंकडे (horseshoe crabs) आते हैं।
  • इनमें श्वसन क्लोमों द्वारा होता है। 
  • इनके शिरोवक्ष पर पार्श्व संयुक्त नेत्र तथा सामान्य छः जोड़ी उपांग उपस्थित रहते हैं।
  • इनके उदर भाग में 5-6जोड़ी क्लोमयुक्त उपांग होते हैं।
  • इनके उदर का पीछे का भाग नोंकदार पुच्छखण्ड (telson) के रूप में रहता है। उदाहरण लिम्यूलस (Limulus)।

b.
वर्ग ऐरैक्नाइडा (Class Arachnida)
  • इस वर्ग के जंतु अधिकतर स्थलीय होते हैं। 
  • इनमें श्वसन मुख्यतः बुक-लंग्स या ट्रैकी द्वारा होता है।
  • इनके नेत्र सामान्य (simple) होते हैं। 
  • किनका उदर वाला भाग उपांग-रहित होता है। 
  • इनके जीवन-वृत्त में रूपान्तरण नहीं होता है। उदाहरण बिच्छू या पैलैम्नियस (Palamnaeus), मकड़ियाँ या स्पाइडर्स (Spiders), चिंचड़ियाँ (mites) एवं किल्नियाँ (ticks) जैसे इक्सोडीज (Ixodes)। मकड़ियाँ उदर के पश्च भाग में स्थित ग्रन्थियों के स्राव से जाला बनाती हैं।

c. वर्ग पिक्नोगोनिडा या पेन्टैपोडा (Class Pycnogonida or Pentapoda)
  • यह छोटी-छोटी समुद्री मकडियाँ (sea spiders) होती हैं। 
  • इनके शरीर का अधिकांश भाग शिरोवक्ष (headdress) मैं बटा रहता है तथा उदर भाग छोटा रहता है। 
  • इनके चूषकसदृश (suctorial) मुख एक शुण्ड (proboscis) पर स्थित रहते हैं। 
  • इनके सिर पर प्रायः 3 जोड़ी उपांग व 4 नेत्र उपस्थित रहते हैं। 
  • इनके शरीर पर 4, 5, 6 या 12 जोड़ी लम्बे चलनपाद होते हैं। 
  • इस वर्ग के जीव एकलिंगी होते हैं तथा मादाएँ अण्डे देती हैं जिनका नर वहन करता है।  
  • इनके शरीर में श्वसन एवं उत्सर्जन के लिए विशेष अंग नहीं होते हैं। उदाहरण-निम्फॉन (Nymphon)।

3. उपसंघ मैन्डीबुलैटा या ऐन्टिनैटा (Subphylum Mandibulata or Antennata)
  • इनका शरीर सिर एवं धड़ में बँटा रहता है। सिर मुख्यतः वक्ष एवं उदर भागों में विभेदित रहता है। 
  • इनके शरीर का विखण्डन स्पष्ट रहता है। 
  • केलीसेरी के स्थान पर ऐन्टिनी तथा मैन्डीबल्स उपस्थित रहते हैं। 
  • इनके नेत्र प्रायः संयुक्त रहते हैं। 
  • इनमें श्वसन के लिए क्लोम या ट्रैकी उपस्थित रहते हैं। 
  • इनमें उत्सर्जन मैल्पीघी नलिकाओं या ऐन्टीनल ग्रन्थियों (antennal glands) द्वारा होता है। 
  • इस वर्ग के जीव एकलिंगी होते हैं। इनके जीवन-वृत्त में शिशु प्रावस्थाएँ प्रायः उपस्थित रहते हैं। 
इस उपसंघ को छः वर्गों में वर्गीकृत किया जा सकता है—

1. वर्ग क्रस्टेशिया (Class Crustacea)
2. वर्ग इन्सेक्टा (Class Insecta) या कीट वर्ग
3. वर्ग डिप्लोपोडा (Class Diplopoda)
4. वर्ग काइलोपोडा (Class Chilopoda)
5. वर्ग सिम्फाइला (Class Symphyla)
6. वर्ग पॉरोपोडा (Class Pauropoda)

1. वर्ग क्रस्टेशिया (Class Crustacea) : इस वर्ग के प्रमुख लक्षण इस प्रकार हैं -
  • इस वर्ग के अधिकांश जलीय होते हैं। 
  • इनका शरीर शिरोवक्ष (cephalothorax) एवं उदर भागों में बँटा रहता है। शिरोवक्ष (cephalothorax) पर मोटा, बाह्यकंकालीय पृष्ठ कैरापेस (carapace) होता है। 
  • इनका शीर्ष 5- खण्डीय होता है जिस पर दो जोड़ी ऐन्टिनी, एक जोड़ी मैन्डीबल्स तथा दो जोड़ी मैक्सिली होते हैं। 2 जोड़ी ऐन्टिनी प्रभेदक (distinguishing) लक्षण होता है। 
  • उपांग प्रायः द्विशाखित (biramous)। 
  • इनमें श्वसन देहभित्ति या क्लोमों द्वारा होता है। vi) इनमें उत्सर्जन ऐन्टिनी या मैक्सिली (maxillae) में उपस्थित कॉक्सल (coxal) ग्रन्थियों द्वारा होता है। 
  • इस वर्ग के जीव एकलिंगी होते हैं। इनमें जननवाहिनियाँ एवं जनन छिद्र जोड़ीदार में होते हैं जिसमें मादाएँ अण्डे देती हैं।
  • इनके जीवन- -वृत्त में शिशु-प्रावस्थाएँ प्रायः उपस्थित रहती हैं। उदाहरण- झींगा या पैलीमोन (Palaemon), केकड़े (Crabs), कूटक मछली या क्रेफिश (Crayfish)।

2. वर्ग इन्सेक्टा (Class Insecta) या कीट वर्गइस वर्ग के प्रमुख लक्षण इस प्रकार हैं -
  • इस वर्ग के जंतु जलीय, स्थलीय या वायवीय होते हैं अर्थात यह जल में, धरती पर तथा वायु में हर जगह पाए जाते हैं। 
  • शरीर सिर, वक्ष तथा उदर भागों में बँटा। 
  • इनके सिर में 6, वक्ष में 3 तथा उदर में 11 या कम खण्ड पाए जाते हैं।
  • इनके पैर आदर्श रूप 3 जोड़ी होते हैं तथा वायवीय कीटों में पंख भी होते हैं। 
  • इनके सिर पर एक जोड़ी संयुक्त नेत्र, एक जोड़ी ऐन्टिनी तथा मुख-उपांग उपस्थित रहते हैं। 
  • इनमें श्वसन शाखान्वित ट्रैकी द्वारा होता है। 
  • इस वर्ग के जंतुओं में उत्सर्जन मैल्पीघी नलिकाओं (Malpighian tubules) द्वारा होता है। 
  • इस वर्ग के जीव एकलिंगी होते हैं जिसमें मादाएँ प्रायः अण्डे देती हैं। 
  • इनका जीवन-वृत्त सामान्य या जटिल हो सकता है। उदाहरण तिलचट्टा या कॉकरोच (Periplaneta), मक्खी (Musca), मच्छर (mosquito), रजत मछली (silverfish), टिड्डी (locust), पतंगा या मॉथ (moth) एवं अन्य कीट-पतंगे। मनुष्य से इनका घनिष्ठ आर्थिक सम्बन्ध होता है। क्योंकि यह मनुष्यों के आसपास ही पाए जाते हैं।

3. वर्ग डिप्लोपोडा (Class Diplopoda)इस वर्ग के प्रमुख लक्षण इस प्रकार हैं -
  • इस वर्ग के जीव मुख्यतः स्थलीय होते हैं। 
  • इनका शरीर लम्बा, नालवत् तथा कीड़े जैसा दिखने वाला होता है। 
  • इनका सर 5-खण्डों में विभक्त रहता है जिस पर एक-एक जोड़ी छोटे ऐन्टिनी, मैन्डीबल्स व मैक्सिली तथा सामान्य नेत्र उपस्थित रहते हैं। 
  • इनका वक्ष 4 खण्डों में विभक्त रहता है तथा प्रत्येक पर एक-एक जोड़ी सन्धित पाद उपस्थित रहते हैं। 
  • इनके उदर में 9 से 100 तक या इससे अधिक खण्ड होते हैं परन्तु प्रत्येक स्पष्ट खण्ड दो खण्डों के समेकन से बना होता है। इसीलिए, प्रत्येक खण्ड पर दो जोड़ी पाद उपस्थित रहते हैं। 
  • इस वर्ग के जंतुओं में श्वसन श्वासनालों (tracheae) द्वारा होता है। 
  • इनमें उत्सर्जन के लिए मैल्पीघी नलिकाएँ उपस्थित रहती हैं। 
  • इस वर्ग के जीव एकलिंगी होते हैं जिसमें मादाएँ अण्डे देती हैं। उदाहरण–सहस्रपाद (millipede) अर्थात्, थाइरोग्लूटस (Thyroglutus)।

4. वर्ग काइलोपोडा (Class Chilopoda)इस वर्ग के प्रमुख लक्षण इस प्रकार हैं -
  • इस वर्ग के जीव मुख्यतः स्थलीय होते हैं। 
  • इनका शरीर लम्बा व कृमिसदृश, कुछ चपटा और सिर एवं धड़ में विभेदित रहता है। 
  • इनका शरीर 15 से 173 खण्डों में विभक्त रहता है जो जोड़ियों में समेकित नहीं होता है। प्रत्येक पर एक जोड़ी पाद उपस्थित रहते हैं। प्रथम जोड़ी पाद पंजेनुमा होता है जिस पर एक-एक विष-ग्रन्थियाँ उपस्थित रहती हैं। 
  • इनके सिर पर एक-एक जोड़ी लम्बे ऐन्टिनी व मैन्डीबल्स तथा दो जोड़ी मैक्सिली उपस्थित रहते हैं। 
  • इनमें श्वसन ट्रैकी द्वारा होता है। 
  • उत्सर्जन मैल्पीघी नलिकाओं द्वारा होता है। 
  • यह जीव एकलिंगी होते हैं जिसमें मादाएँ अण्डे या बच्चे देती हैं। इनमें जनन छिद्र अन्तिम से पहले खण्ड की मध्यअधर रेखा पर उपस्थित रहता है। उदाहरण कनखजूरा या शत्पाद (centipede), अर्थात् स्कोलोपेण्ड्रा (Scolopendra)।

5. वर्ग सिम्फाइला (Class Symphyla)इस वर्ग के प्रमुख लक्षण इस प्रकार हैं -
  • इस वर्ग के जीव मुख्यतः स्थलीय होते हैं। 
  • इनका शरीर 6 मिमी लम्बा होता है जो सिर एवं धड़ में विभेदित रहता है। 
  • इनका सिर कीटों-जैसा होता है, परन्तु यह  नेत्रविहीन होते है। 
  • इनका धड़ 15 से 22 खण्डों में बँटा रहता है जिस पर 10-12 जोड़ी पाद होते हैं। जनन छिद्र इन पादों की चौथी जोड़ी के बीच, मध्यअधर रेखा पर स्थित रहता है। उदाहरण— -स्कूटीजेरेला (Scutigerella)।

6. वर्ग पॉरोपोडा (Class Pauropoda)इस वर्ग के प्रमुख लक्षण इस प्रकार हैं -
  • इस वर्ग के जीव मुख्यतः स्थलीय होते हैं। 
  • इनका शरीर सूक्ष्म व कोमल, नालवत्, कृमिवत् जैसा होता है जो सिर एवं धड़ में विभेदित रहता है। 
  • इनका धड़ 11-12 खण्डों में बँटा हुआ पृष्ठतल की ओर खण्ड जोड़ियों में समेकित रहता है। 
  • इनके पैर 9-10 की जोड़ियों में रहते हैं। 
  • इनका सिर पर नेत्रों का अभाव रहता है, परन्तु एक-एक जोड़ी शाखान्वित ऐन्टिनी एवं अशाखित मैन्डीबल्स व मैक्सिली उपस्थित रहते है। जनन छिद्र धड़ के तीसरे खण्ड के अधरतल पर स्थित रहता है। उदाहरण-पॉरोपस (Pauropus)


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