संघ मोलस्का (Mollusca):परिचय एवं परिभाषा, लक्षण, वर्गीकरण|hindi


संघ मोलस्का (Phylum Mollusca): परिचय एवं परिभाषा, लक्षण, वर्गीकरण
संघ मोलस्का (Mollusca):परिचय एवं परिभाषा, लक्षण, वर्गीकरण|hindi

परिचय एवं परिभाषा (Introduction and Definition )

मोलस्का संघ के जीव द्विपार्श्वीय एवं प्रोटोस्टोमी यूसीलोमेट यूमेटाजोआ होते हैं जिनका कोमल शरीर (Mollusca – L., mollis or molluscum = soft) खण्डयुक्त नहीं होता है। इस पर देहभित्ति के वलन से बना मैन्टल (mantle) नाम का लिफाफेनुमा आवरण होता है जो अधिकांश सदस्यों में कैल्सियमयुक्त कवच (shell) का स्रावण करता है।

इनकी लगभग 80,000 विद्यमान और 40,000 विलुप्त जातियाँ ज्ञात हैं। तालाबों, पोखरों, नदियों, झीलों, सरिताओं, आदि के किनारे पाए जाने वाले घोंघे (snails) एवं सीप (mussels), पूजा-पाठ में बजाया जाने वाला समुद्री शंख, कौड़ियाँ, आदि सब मोलस्का ही होते हैं। कवचों सहित इनके अध्ययन को मोलस्क विज्ञान (Malacology) या शंख विज्ञान (Conchology) कहते हैं। कुछ मोलस्का खाने के और कुछ बटन, मोती, आदि बनाने के काम आते हैं। 
संघ मोलस्का (Mollusca):परिचय एवं परिभाषा, लक्षण, वर्गीकरण|hindi


संक्षिप्त इतिहास (Brief History)
अरस्तू (Aristotle) ने इस संघ के कई सदस्यों का वर्णन किया। जोन्स्टन (Johnston, 1650) ने इसे वर्तमान नाम दिया।

प्रमुख लक्षण (Important Characters)
इस संघ के प्रमुख लक्षण इस प्रकार हैं -
  1. इस संघ के अधिकांश जीव समुद्री में, कुछ अलवणीय जल में कुछ नम भूमि पर पाए जाते हैं। इनमें से अधिकांश जीव स्वतन्त्र रेंगने वाले कुछ चट्टानों आदि से चिपके तथा, कुछ तैरने वाले तथा कुछ सुरंगों में रहने वाले होते हैं।
  2. इनका शरीर कोमल होता है जो कि प्रायः श्लेष्म में सराबोर रहने के कारण गिलगिला सा लगता है।
  3. इनका शरीर मूलतः द्विपार्वीय होता है, परन्तु अनेक सदस्यों में ऐंठन (torsion) के कारण इनका शरीर कुण्डलित (coiled) एवं असममित(asymmetrical) सा हो जाता है।
  4. इनका शरीर त्रिस्तरीय (triploblastic) एवं अखण्डीय (unsegmented) होता है जिसके चारों ओर देहभित्ति के वलन (folding) से वना प्रादार या मैण्टल होता है जो प्रायः एक कैल्सियमयुक्त कवच (calcified shell) का स्रावण करता है। इनके शरीर की सतह पर प्रायः रोमाभि (ciliated) उपस्थित रहते हैं। 
  5. सीलोम गुहा केवल हृदय के चारों ओर तथा उत्सर्जी अंगों एवं जननांगों में विभाजित रहती है।
  6. अधिकांश सदस्यों में स्पष्ट शीर्ष उपस्थित रहता है तथा रेंगने, तैरने व बिल बनाने के लिए एक अधरतलीय मांसल पाद (foot or podium) होता है।
  7. इस संघ के जंतुओं में पाचन, परिसंचरण, उत्सर्जी एवं तन्त्रिका तन्त्र विकसित रहते हैं। 
  8. इनके पाचन तन्त्र में पाचन ग्रन्थियाँ तथा एक यकृत (liver) होता है तथा भोजन को चबाने के लिए रैडुला (radula) नाम का एक विशिष्ट अंग मुखगुहा में प्रायः उपस्थित रहता है।
  9. इनमें प्रायः “खुला रुधिर परिसंचरण तन्त्र (open type of blood vascular system )” उपस्थित रहता है तथा इनका रुधिर रंगहीन या हीमोसायनिन (haemocyanin) के कारण नीला या हरा-सा दिखाई देता है।
  10. इनमें उत्सर्जन जोड़ीदार अधिउत्सर्गिकाओं (metanephridia) द्वारा होता है।
  11. इनके तन्त्रिका तन्त्र में कुछ जोड़ीदार गुच्छक (ganglia) और इन्हें जोड़ने वाली तथा कुछ अन्य तन्त्रिकाएँ उपस्थित रहती हैं। 
  12. इनमें जनन लैंगिक होता है। इसके अधिकांश सदस्य एकलिंगी होते हैं तथा इनके जीवन वृत्त में प्राय: एक शिशु-प्रावस्था होती है। 

वर्गीकरण (Classification)
शरीर की आकृति एवं सममिति (symmetry) तथा पाद, मैण्टल, कवच, श्वसनांगों और तन्त्रिका तन्त्र, आदि के लक्षणों पर इस संघ को सात वर्गों में बाँटा गया है-

1. वर्ग मोनोप्लैकोफोरा (Class Monoplacophora)इस वर्ग की स्थापना, सन् 1952 में, प्रशान्त महासागर में पाए गए एक विशेष प्रकार के चपटे, द्विपार्श्वीय एवं अण्डाकार से मोलस्क के लिए की गई थी। इस मोलस्क का द्विपार्वीय अण्डाकार-सा चपटा शरीर कई लक्षणों में ऐनेलिडा से मिलता है। उदाहरणार्थ, इसमें 8 जोड़ी पेशियों, 5 या 6 जोड़ी जलक्लोमों (gills) तथा 5 जोड़ी उत्सर्गिकाओं का विन्यास समखण्डीय (segmental) है।

फिर भी इस जन्तु को मोलस्का ही माना गया है, क्योंकि,
  • इनके शरीर पर मैण्टल और गुम्बदनुमा कवच होता है।
  • इनमें गमन के लिए चौड़ा व चपटा मांसल पाद होता है। 
ये जन्तु सम्भवतः ऐनेलिडा और मोलस्का के बीच की संयोजक कड़ी (connecting link) होते हैं। इसलिए इन्हें नियोपिलाइना (Neopilina) का नाम दिया गया है।


2. वर्ग ऐप्लैकोफोरा (Class Aplacophora) इस वर्ग के प्रमुख लक्षण इस प्रकार हैं -
  • यह निम्न कोटि के कृमिसदृश समुद्री मोलस्का होते हैं। 
  • इनका शरीर छोटा होता है जो कि पूरा एक मोटे मैण्टल (प्रावार) द्वारा ढका रहता है। 
  • इनमें कवच अनुपस्थित रहता है तथा मैण्टल में कैल्सियमयुक्त कण्टिकाएँ पाई जाती हैं।  
  • इस वर्ग के जंतुओं में पाद लघुकृत या अनुपस्थित होते हैं। 
  • यह है अधिकांश एकलिंगी होते हैं। उदाहरण - नियोमीनिया (Neomenia)

3. वर्ग पोलीप्लैकोफोरा (Class Polyplacophora) इस वर्ग के प्रमुख लक्षण इस प्रकार हैं -
  • इस वर्ग के अधिकांश सदस्य छिछले समुद्र में चट्टानों पर चिपके हुए पाए जाते हैं। 
  • इनका शरीर दीर्घवृत्ताकार (elliptical) चपटा-सा तथा बड़ा होता है। इनका पृष्ठतल कुछ उत्तल तथा अधरतल अवतल जैसा दिखता है। 
  • इनके पृष्ठतल पर आठ चपटी, कैल्सियमयुक्त प्लेटों का कवच होता है। इस कवच के पार्श्वों में कण्टकयुक्त मैण्टल उपस्थित रहता है। 
  • इनका अधरतल पूरा चपटे व मांसल पाद द्वारा ढका रहता है।
  • इनमें नेत्रों एवं स्पर्शकों की अनुपस्थिति के कारण इनका शीर्ष अस्पष्ट होता है। 
  • इनका पाचन तन्त्र विकसित होता है जिसमें मुख आगे, गुदा पीछे छोर पर तथा मुखगुहा में रैडुला उपस्थित रहते हैं। 
  • इनमें श्वसन के लिए 3 से 40 जोड़ी जल-क्लोम उपस्थित रहता है। 
  • इस वर्ग के जीव एकलिंगी होते हैं। इनके जीवन-वृत्त में ट्रोकोफोर लार्वा प्रावस्था उपस्थित रहती है। उदाहरण—विभिन्न प्रकार के काइटन (Chitons)।

4. वर्ग गैस्ट्रोपोडा (Class Gastropoda)इस वर्ग के अंतर्गत मुख्यतः घोंघे (snails), शंख (whelks), कौड़ी, आदि आते हैं। इसके प्रमुख लक्षण इस प्रकार हैं -
  • यह जीव समुद्र, तालाबों, झीलों, सरिताओं या गीली मिट्टी के वासी होते हैं। 
  • ऐंठन (torsion) के कारण इनका शरीर कुण्डलित एवं असममित होता है। जिसके कारण इनका कवच भी प्रायः कुण्डलित होता है। 
  • इनके शरीर के अग्र छोर पर नेत्रों एवं स्पर्शकों सहित विकसित शीर्ष (head) उपस्थित रहता है। 
  • इनका पाद बड़ा, चपटा, मांसल व मजबूत, रेंगने के लिए उपयोजित रहता है। 
  • इनमें रैडुला उपस्थित होता है। 
  • इस वर्ग के जंतुओं में श्वसन के लिए क्लोम या पल्मोनरी स्यून (pulmonary sac) या दोनों उपस्थित रहते हैं। 
  • इनके तन्त्रिका तन्त्र में प्रायः 4 जोड़ी गुच्छक (ganglia) पाए जाते हैं।
  • इनमें जननांग एकलिंगी या द्विलिंगी होते हैं। कुछ द्विलिंगी सदस्यों में (जैसे कि भूमिगत् घेंघा) एक ही जनद में नर व मादा भाग दोनों उपस्थित रहते हैं। ऐसे जनद को ओवोटेस्टिस (ovotestis) कहते हैं। 
  • इनके जीवन-वृत्त में प्रायः ट्रोकोफोर एवं वेलीजर (veliger) शिशु प्रावस्थाएँ होती हैं। उदाहरण पाइला (Pila-सेवाभ घोंघा), टर्बीनेला (Turbinella- शंख), डोरिस (Doris), लाइमैक्स (Limax), आदि।


5. वर्ग स्कैफोपोडा (Class Scaphopoda) : इस वर्ग के जीव समुद्री तल पर कीचड़ में धँसे हुए पाए जाते हैं। इस वर्ग के प्रमुख लक्षण इस प्रकार हैं -
  • इन जीवो का शरीर लम्बा, बेलनाकार एवं द्विपार्वीय होता है। 
  • इनमें मैण्टल तथा कवच नालवत् होता है जो शंक्वाकार-सा कवच हाथी-दाँत के समान मुड़ा हुआ और दोनों सिरों पर खुला हुआ रहता है। 
  • मुख के चारों ओर रोमाभयुक्त एवं संकुचनशील स्पर्शकों का घेरा रहता है। इनमें रैडुला उपस्थित रहता है। 
  • इनका सर स्पष्ट रूप से दिखाई देता है किंतु इनमें नेत्रों का अभाव रहता है। 
  • इनका छोटा, शंक्वाकार-सा पाद रेंगने या बिल बनाने के लिए उपयोजित रहता है।
  • यह जीव एकलिंगी होते हैं। 
  • इनके जीवन-वृत्त में ट्रोकोफोर एवं वेलीजर शिशु प्रावस्थाएँ होती हैं। उदाहरण - डेण्टैलियम (Dentalium)
6. वर्ग पेलीसिपोडा (Class Pelecypoda) या बाइवाल्विया (Bivalvia) या लैमेलीब्रेकिएटा (Lamellibranchiata) : इसके अंतर्गत समुद्री या अलवणजलीय सीप, आदि आते हैं। 
  • इनका शरीर द्विपार्वीय तथा पार्श्वों में चपटा होता है। 
  • इनका मैण्टल महीन होता है, परन्तु कवच मोटा एवं कठोर रहता है। ये दोनों पार्श्व अर्धभागों या कपाटों में बँटे, अर्थात् द्विकपाटीय (bivalved) होते हैं। कवच के दोनों कपाट, मध्यपृष्ठ रेखा में, कब्जा-सन्धि द्वारा जुड़े और मध्य-अधर रेखा में स्वतन्त्र रहते हैं। 
  • इनके पाद खूँटी या कीलक सदृश (wedge- shaped) होते हैं जो रेंगने या मिट्टी में धँसने के लिए उपयोग में लाए जाते हैं। 
  • इनमें एक या अधिक जोड़ी चपटे क्लोम होते हैं। 
  • इनके शीर्ष पर नेत्रों एवं स्पर्शकों का तथा रैडुला का अभाव होता है।
  • तन्त्रिका तन्त्र में तीन जोड़ी प्रमुख गुच्छक होते हैं। (vii) यह जीव एकलिंगी होते हैं। (viii) इनके जीवन-वृत्त में ट्रोकोफोर या ग्लोकीडियम (Glochidium) शिशु प्रावस्था उपस्थित रहती है। उदाहरण—लैमेलीडेंस (Lamellidens), सोलेन (Solen), नौकृमि अर्थात् टेरिडो (Teredo),पेक्टेन (Pecten), माइटिलस (Mytilus), पर्ल ओइस्टर (pearl oyster)– पिंक्टैडा वलौरिस (Pinctada vulgaris) से कीमती मोती प्राप्त होते हैं जो इसकी त्वचा में बाहरी कणों के चारों ओर बनते हैं।

7. वर्ग सिफैलोपोडा (Class Cephalopoda) : यह समुद्र में स्वतन्त्र तैरने वाले, सबसे अधिक विकसित मोलस्का होते हैं। इसके कुछ सदस्य विशालकाय तथा सबसे बड़े अकशेरुकी होते हैं। इस वर्ग के प्रमुख लक्षण इस प्रकार हैं -
  • इनका शरीर द्विपार्वीय होता है जिस पर कवच बाहरी, भीतरी या अनुपस्थित होता है। 
  • इनके शरीर का मैण्टल मोटा एवं मांसल युक्त होता है। 
  • इसके अधिकांश सदस्य, गमन के लिए, मैण्टल गुहा में पानी भरकर इसकी तेज धार निकालते हैं। 
  • इनका शीर्ष (head) विकसित होता है जिस पर, कशेरुकियों की भाँति, बड़ी-बड़ी आँखें होती है। इनमें रैडुला उपस्थित होता है।
  • इनके पैर शीर्ष को चारों ओर से घेरे और कई लम्बी भुजाओं में बंटे रहते हैं जिन पर छोटे-छोटे चूषक (suckers) होते हैं। 
  • इनका तन्त्रिका तन्त्र अत्यधिक विकसित होता है। 
  • यह जीव एकलिंगी होते हैं। इनके जीवन-वृत्त में कोई शिशु प्रावस्था नहीं होती है। उदाहरण–सीपिया (Sepia), ऑक्टोपस (Octopus), नॉटिलस (Nautilus)।
श्रेणी आर्किट्यूथिस (Architeuthis) के सदस्य विशाल स्क्विड्स (giant squids) होते हैं। ये गहरे समुद्र में रहते हैं और सबसे बड़े अकशेरुकी जन्तु होते हैं। इनके 18 मीटर तक लम्बे सदस्य पकड़े गए हैं, जिनकी मोटाई 6 मीटर तक तथा भार कई-कई टन तक होता है। इनमें से कई जहरीले भी होते हैं।



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