नीरीस अर्थात् निएन्थीस (Nereis OR Neanthes)
यह मुख्यतः समुद्रतल के छिछले जल में, पत्थरों के नीचे या रेतीली सुरंगों (burrows) में पाये जाते हैं। यह दिखने में केंचुए जैसे दिखते हैं लेकिन यह जनन के समय उससे बिलकुल अलग हो जाते हैं। इससे सम्बंधित अन्य तथ्यों का वर्णन हम नीचे करेंगे।
जगत (Kingdom) - जन्तु (Animalia)
शाखा (Branch) - यूमेटाजोआ (Eumetazoa)
प्रभाग (Division) - बाइलैटरिया (Bilateria)
उपप्रभाग (Subdivision) - प्रोटोस्टोमिया (Protostomia)
खण्ड (Section) - यूसीलोमैटा (Eucoelomata)
संघ (Phylum) - ऐनेलिडा (Annelida)
वर्ग (Class) - पोलीकीटा (Polychaeta)
लक्षण (Characteristic)
नीरीस के प्रमुख लक्षण इस प्रकार हैं1. यह समुद्रतल के छिछले जल में, पत्थरों के नीचे या रेतीली सुरंगों (burrows) में पाये जाते हैं।
2. इनका शरीर 20-40 सेमी लम्बा, पतला तथा गुलाबी रंग का होता है जो ऊपर-नीचे कुछ चपटा तथा 80 से 200 सखण्डों (segments) में बँटा रहता है।
3. इनके शरीर के आगे वाले छोर पर स्पष्ट शीर्ष दिखाई देता है जिस पर पर मुखद्वार, 4 छोटे व गोल नेत्र, एक जोड़ी छोटे स्पर्शक (tentacles), 1 जोड़ी मोटे पैल्प्स (palps) एवं 4 जोड़ी बड़े स्पर्शक उपस्थित रहते हैं।
4. इनके शरीर के अन्तिम खण्ड, अर्थात् पाइजीडियम (pygidium) के छोर पर एक जोड़ी छोटे गुदा स्पर्शकों (anal cirri) बीच गुदा (anus) उपस्थित रहता है।
5. पहले एवं अन्तिम के अतिरिक्त प्रत्येक खण्ड के दोनों ओर एक-एक छोटा, मांसल व चपटा पार्श्वपाद होता है (parapodium) जिस पर उपचर्म की बनी लम्बी सीटी (setae) के दो समूह होते हैं। पाद पत्थर, आदि पर रेंगने या जल में स्वतन्त्र तैरने तथा श्वसन में सहायक होते हैं।
6. सीलोम गुहा अन्तराखण्डीय पट्टियों द्वारा खण्डीय कक्षों में बँटी रहती है।
7. यह मांसाहारी होते हैं। इनकी आहारनाल सीधी होती है। मुख प्रकोष्ठ में महीन दाँत-सदृश कण्टिकाएँ; ग्रसनी में दो मजबूत हनु (jaws) मुख प्रकोष्ठ एवं ग्रसनी दोनों ही मुखद्वार से पलटकर शुण्ड (proboscis) के रूप में बाहर निकल सकती हैं। ग्रासनली में एक जोड़ी ग्रन्थियाँ खुलती हैं।
8. रुधिर परिसंचरण तन्त्र में एक पृष्ठ एवं एक अधर प्रमुख रुधिरवाहिनियाँ होती हैं जो प्रत्येक खण्ड में एक जोड़ी लूप-सदृश संयोजकों द्वारा परस्पर जुड़ी रहती हैं तथा हीमोग्लोबिन प्लाज्मा में घुला रहता है।
9. इनमें श्वसन के लिए गैसीय विनिमय पृष्ठतल एवं पार्श्वपादों की देहभित्ति से प्रसरण द्वारा होता है।
10. इनमें उत्सर्जन के लिए प्रत्येक खण्ड में एक जोड़ी बड़ी उत्सर्गिकाएँ (nephridia) उपस्थित रहती हैं।
11. इसमें तन्त्रिका तन्त्र केंचुए के समान होता है जिसमें प्रमुख संवेदांग सीटी, नेत्र एवं स्पर्शक होते हैं।
12. यह एकलिंगी होते हैं। इनमें जनद शरीर के कुछ ही खण्डों में केवल जननकाल के समय बनते हैं अर्थात यह अस्थाई रचनाओं के रूप में, देहगुहीय एपीथीलियम पर बनते हैं। युग्मक कोशिकाएँ (gamete cells) देहगुहा में बनकर जल में मुक्त हो जाती हैं। अतः निषेचन एवं भ्रूणीय परिवर्धन जल में होता है। इनके जीवन-वृत्त में ट्रोकोफोर लार्वा (Trochophore larva) होता है। सर्वसाधारण जाति, निएन्थीस डुमेरिलाई (Neanthes dumerilli) जो हर जगह पाई जाती है, में जननकाल में जनदों के विकास के साथ-साथ शरीर के पश्च भाग के पैरापोडिया भी बड़े, अधिक चपटे और पत्तियों जैसे होते जाते हैं तथा नेत्र बड़े हो जाते हैं। ऐसे सदस्यों को हिटरोनीरीस (Heteronereis) कहते हैं।
2. इनका शरीर 20-40 सेमी लम्बा, पतला तथा गुलाबी रंग का होता है जो ऊपर-नीचे कुछ चपटा तथा 80 से 200 सखण्डों (segments) में बँटा रहता है।
3. इनके शरीर के आगे वाले छोर पर स्पष्ट शीर्ष दिखाई देता है जिस पर पर मुखद्वार, 4 छोटे व गोल नेत्र, एक जोड़ी छोटे स्पर्शक (tentacles), 1 जोड़ी मोटे पैल्प्स (palps) एवं 4 जोड़ी बड़े स्पर्शक उपस्थित रहते हैं।
4. इनके शरीर के अन्तिम खण्ड, अर्थात् पाइजीडियम (pygidium) के छोर पर एक जोड़ी छोटे गुदा स्पर्शकों (anal cirri) बीच गुदा (anus) उपस्थित रहता है।
5. पहले एवं अन्तिम के अतिरिक्त प्रत्येक खण्ड के दोनों ओर एक-एक छोटा, मांसल व चपटा पार्श्वपाद होता है (parapodium) जिस पर उपचर्म की बनी लम्बी सीटी (setae) के दो समूह होते हैं। पाद पत्थर, आदि पर रेंगने या जल में स्वतन्त्र तैरने तथा श्वसन में सहायक होते हैं।
6. सीलोम गुहा अन्तराखण्डीय पट्टियों द्वारा खण्डीय कक्षों में बँटी रहती है।
7. यह मांसाहारी होते हैं। इनकी आहारनाल सीधी होती है। मुख प्रकोष्ठ में महीन दाँत-सदृश कण्टिकाएँ; ग्रसनी में दो मजबूत हनु (jaws) मुख प्रकोष्ठ एवं ग्रसनी दोनों ही मुखद्वार से पलटकर शुण्ड (proboscis) के रूप में बाहर निकल सकती हैं। ग्रासनली में एक जोड़ी ग्रन्थियाँ खुलती हैं।
8. रुधिर परिसंचरण तन्त्र में एक पृष्ठ एवं एक अधर प्रमुख रुधिरवाहिनियाँ होती हैं जो प्रत्येक खण्ड में एक जोड़ी लूप-सदृश संयोजकों द्वारा परस्पर जुड़ी रहती हैं तथा हीमोग्लोबिन प्लाज्मा में घुला रहता है।
9. इनमें श्वसन के लिए गैसीय विनिमय पृष्ठतल एवं पार्श्वपादों की देहभित्ति से प्रसरण द्वारा होता है।
10. इनमें उत्सर्जन के लिए प्रत्येक खण्ड में एक जोड़ी बड़ी उत्सर्गिकाएँ (nephridia) उपस्थित रहती हैं।
11. इसमें तन्त्रिका तन्त्र केंचुए के समान होता है जिसमें प्रमुख संवेदांग सीटी, नेत्र एवं स्पर्शक होते हैं।
12. यह एकलिंगी होते हैं। इनमें जनद शरीर के कुछ ही खण्डों में केवल जननकाल के समय बनते हैं अर्थात यह अस्थाई रचनाओं के रूप में, देहगुहीय एपीथीलियम पर बनते हैं। युग्मक कोशिकाएँ (gamete cells) देहगुहा में बनकर जल में मुक्त हो जाती हैं। अतः निषेचन एवं भ्रूणीय परिवर्धन जल में होता है। इनके जीवन-वृत्त में ट्रोकोफोर लार्वा (Trochophore larva) होता है। सर्वसाधारण जाति, निएन्थीस डुमेरिलाई (Neanthes dumerilli) जो हर जगह पाई जाती है, में जननकाल में जनदों के विकास के साथ-साथ शरीर के पश्च भाग के पैरापोडिया भी बड़े, अधिक चपटे और पत्तियों जैसे होते जाते हैं तथा नेत्र बड़े हो जाते हैं। ऐसे सदस्यों को हिटरोनीरीस (Heteronereis) कहते हैं।
No comments:
Post a Comment