छोटी आंत का तीसरा भाग Ileum पीछे बड़ी आँत में खुलती है जो लगभग 1.5 मीटर लम्बी और 4-7 सेमी मोटी होती है। बड़ी आँत उदरगुहा के निचले दाएँ भाग में प्रारम्भ होती है।
इसमें तीन स्पष्ट भाग होते हैं—उण्डुक या सीकम, बृहदान्त्र या कोलन तथा मलाशय ।
Ileum, सीकम और कोलन के संगम वाले स्थान पर शेषान्त्र- उण्डकीय छिद्र (ileo-caecal orifice) द्वारा खुलती है और इसके इस द्वार पर, श्लेष्मिक कला के folds के रूप में, शेषान्त्र उण्डकीय कपाट (ileo-caecal valve) होता है जो भोजन को बड़ी आँत से वापस Ileum में जाने से रोकता है। पूरी बड़ी आँत में सूक्ष्मांकुर (villi) नहीं होते हैं।
1. उण्डुक या सीकम (Caecum) : यह ileo-caecal valve से नीचे की ओर स्थित लगभग 6 सेमी लम्बी थैलीनुमा रचना होती है। इसके पिछले, बन्द छोर से लगभग 9 सेमी लम्बी एवं कठोर दीवार की एक बन्द नलिका निकली रहती है जिसे कृमिरूप परिशेषिका अर्थात् उण्डुकपुच्छ (vermiform appendix) कहते हैं। पूरे सीकम की दीवार की श्लेष्मिका में लसिका ग्रन्थियाँ होती हैं। यद्यपि इसकी दीवार में कुछ लसिका गाँठें भी होती हैं जिनमें लिम्फोसाइट नामक श्वेत रुधिराणु बनते हैं, फिर भी यह हमारी आहारनाल का एक निष्क्रिय, अवशेषी (vestigial) भाग होता है। अतः यह जीवाणुओं के संक्रमण के लिए बहुत संवेदी (sensitive) होता है। इसकी गुहा अत्यधिक सँकरी होती है। यदि गुहा में श्लेष्म या मल एकत्रित हो जाता है तो इसमें प्रायः जीवाणुओं (bacteria) का संक्रमण हो जाता है। अतः vermiform appendix की श्लेष्मिक कला गलने लगती है (gangrenous condition) तथा inflammation के कारण व्यक्ति को पीड़ा, मितली, ज्वर, तथा भूख न लगने की शिकायत होने लगती है। इस रोग को उण्डुकशोथ (appendicitis) कहते हैं। कभी-कभी vermiform appendix के ऐस्कैरिस (Ascaris) नामक निमैटोड्स द्वारा रुँध जाने से भी appendicitis हो जाता है। appendicitis होने पर ऑपरेशन द्वारा vermiform appendix को निकाल दिया जाता है।
2. बृहदान्त्र अर्थात् कोलन (Colon) : यह लगभग 1.3 मीटर लम्बी नाल होती है। यह कुण्डलित नहीं होती, बल्कि पूरी छोटी आँत को घेरे हुए उल्टे 'U' अर्थात् चूल्हे की आकृति की होती है। यह चार खण्डों में विभेदित होती है – लगभग 15 सेमी लम्बा आरोही खण्ड (ascending segment), 50 सेमी लम्बा अनुप्रस्थ खण्ड (transverse segment), 25 सेमी लम्बा अवरोही खण्ड (descending segment) तथा 40 सेमी लम्बा सिग्माकार खण्ड (sigmoid segment)। इसकी दीवार sides में अनेक छोटी-छोटी थैलियों के रूप में फूली होती है जिससे इसकी गुहा का क्षेत्रफल बहुत बढ़ जाता है। इन थैलियों को हॉस्ट्रा (haustra) कहते हैं। ये दीवार की अनुलम्ब पेशियों द्वारा बने तीन मध्यवर्ती मांसल रज्जुओं के इधर-उधर होती हैं जिन्हें टीनी कोलाई (taeniae coli) कहते हैं। पूरे कोलन की दीवार की भीतरी सतह पर, श्लेष्मिका में, सीकम की भाँति, श्लेष्मिक ग्रन्थियाँ होती हैं।
3. मलाशय (Rectum) : यह लगभग 12 से 14 सेमी लम्बी नाल होती है। इसके अन्तिम, लगभग 4 सेमी लम्बे भाग को गुदनाल (anal canal) कहते हैं। यह गुदा (anus) द्वारा बाहर खुलती है। दो गुद-संकोचक पेशियाँ (anal sphincter muscles) anus का नियन्त्रण करती हैं। इनमें से एक भीतर की ओर एवं अनैच्छिक (involuntary) होती है तथा दूसरी बाहर की ओर एवं ऐच्छिक (voluntary) होती है। भीतर गुदनाल की श्लेष्मिका पर कई लम्बवत् खड़े भंज (vertical folds) होते हैं जिन्हें गुद स्तम्भ (anal columns) कहते हैं। प्रत्येक स्तम्भ में एक धमनी (artery) तथा एक शिरा (vein) होती है। गुद स्तम्भों के फूल जाने को बवासीर (piles) का रोग कहते हैं। इनमें उपस्थित शिराओं के फूलकर फट जाने से खूनी बवासीर (hemorrhoids) हो जाती है। बड़ी आँत की दीवार पर भी सामान्य लस्य स्तर का आवरण होता है। पेशी स्तर अविच्छिन्न स्तरों में नहीं बल्कि अलग पट्टियों में विभक्त होते हैं। सीकम और कोलन में अनुलम्ब पेशी स्तर तथा मलाशय में वर्तुल पेशी स्तर अधिक विकसित होते हैं। भीतरी सतह पर रसांकुर नहीं होते। Mucosa कला में चषक कोशिकाएँ (goblet cells) एवं अवशोषी कोशिकाएँ (absorptive cells) होती हैं। absorptive cells लवणों तथा जल के अवशोषण के लिए उपयोजित (adapted) होती हैं। कोलन एवं सीकम की दीवार के आधार पटल में आन्त्रीय ग्रन्थियाँ होती है, लेकिन ये केवल mucus का स्रावण करती हैं।
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बड़ी आँत के कार्य (Functions of Larege Intestine)
छोटी आंत से प्रतिदिन लगभग 1.5 लीटर काइम इलियोसीकल छिद्र (ileocaecal orifice) में होकर बड़ी आंत में पहुँचती है। इलियोसीकल संकोचक (ileocaecal sphincter) इस छिद्र का नियमन करता है। भोजन के कुछ समय पश्चात् एक प्रतिवर्ती प्रतिक्रिया के कारण इलियम में क्रमाकुंचन तीव्र हो जाता है तथा जठर रस का गैस्ट्रिन हॉरमोन इलियोसीकल संकोचक का relaxation करता है। इसी से काइम इलियम से सीकम में पहुँचकर कोलन में जाती रहती है।
छोटी आंत से प्रतिदिन लगभग 1.5 लीटर काइम इलियोसीकल छिद्र (ileocaecal orifice) में होकर बड़ी आंत में पहुँचती है। इलियोसीकल संकोचक (ileocaecal sphincter) इस छिद्र का नियमन करता है। भोजन के कुछ समय पश्चात् एक प्रतिवर्ती प्रतिक्रिया के कारण इलियम में क्रमाकुंचन तीव्र हो जाता है तथा जठर रस का गैस्ट्रिन हॉरमोन इलियोसीकल संकोचक का relaxation करता है। इसी से काइम इलियम से सीकम में पहुँचकर कोलन में जाती रहती है।
बड़ी आंत में तीन प्रकार की गतियाँ होती हैं—हॉस्ट्रीय मन्थन (haustral churning), क्रमाकुंचन (peristalsis) तथा पुंज क्रमाकुंचन (mass peristalsis)।
जब सीकम से काइम कोलन के आरोही खण्ड में चढ़ने लगती है, कोलन का प्रत्येक हॉस्ट्रम बारी-बारी से संकुचित होकर काइम को अगले हॉस्ट्रम में धकेलने लगता है। इसी को हॉस्ट्रीय मन्थन कहते हैं। इसके साथ-साथ तरंगित क्रमाकुंचन भी होता है, परन्तु यह बहुत ही धीमी गति (3 से 12 बार प्रति मिनट) से होता है। जब काइम कोलन के अनुप्रस्थ खण्ड के मध्य में पहुँचती है तो अत्यधिक तीव्र पुंज क्रमाकुंचन (mass peristalsis) होता है जिससे काइम सीधे मलाशय (rectum) में पहुँच जाती है। ऐसा पुंज क्रमाकुंचन दिनभर में केवल 3 या 4 बार ही होता है।
जैवरासायनिक कार्य (Biochemical Functions)
बड़ी आंत की आन्त्रीय ग्रन्थियाँ केवल श्लेष्म का स्रावण करती हैं। इस श्लेष्म में कोई पाचक एन्जाइम नहीं होता है। यह दीवार की भीतरी सतह पर फैला रहता है। इससे मल निर्माण में सहायता मिलती है। कोलन में अनेक विघटनकारी सहजीवी (symbiotic) जीवाणु (bacteria) होते हैं जो कुछ विटामिनों का संश्लेषण करते हैं तथा काइम के उन पोषक पदार्थों का किण्वन ( fermentation) करते हैं जिनका छोटी आंत में पाचन या अवशोषण नहीं हो पाता है। इस प्रकार, काइम में कार्बोहाइड्रेट्स के अवशेषों के किण्वन से हाइड्रोजन, कार्बन डाइऑक्साइड (CO2) तथा मीथेन गैसें बनती हैं। ये गैसें बदबूदार होती हैं और पाद (flatus) की हवा (wind) के रूप में गुदा से बाहर निकलती रहती हैं।
इसी प्रकार, काइम में उपस्थित ऐमीनो अम्लों का विघटन ये जीवाणु वसीय अम्लों, हाइड्रोजन सल्फाइड (H2S), CO2, तथा ऐमीन्स (amines) में करते हैं। इन्हीं सब पदार्थों के बनने से हमें खट्टी डकार एवं गैस की समस्या होती है। ऐमीन्स इण्डोल (indole) एवं स्कैटोल (skatole) होती हैं। मल की दुर्गन्ध इन्हीं के कारण होती है। पित्त की बिलिरूबिन (bilirubin) रंगा का भी ये जीवाणु सरल रंगाओं—स्टबिलिन (stercobilin) तथा यूरोबिलिन (urobilin)—में विघटन करते हैं। मल का भूरा रंग इन्हीं रंगाओं के कारण होता है।
अवशोषण, मल-निर्माण तथा मल-त्याग (Absorption, Faeces-formation and Defecation)
बड़ी आंत में काइम 3 से 10 घण्टों तक रुक सकती है। इसमें लगभग एक लीटर जल होता है। ज्यों-ज्यों, यह कोलन में आगे खिसकती है, कोलन की श्लेष्मिका इसमें से अधिकांश (90%) जल, कुछ लवणों तथा जीवाणुओं द्वारा संश्लेषित विटामिनों (विटामिन K एवं कई B विटामिन) का अवशोषण करके रुधिर में पहुँचा देती है। अतः काइम का शेष भाग अर्धठोस मल (faeces or stool) का रूप ले लेता है। ज्योंही मल कोलन से मलाशय में पहुँचता है, एक प्रतिवर्ती क्रिया के रूप में मल-त्याग (defecation) की इच्छा होने लगती है। इस समय मलाशय में संकुचन और गुदा की संकोचक पेशियों में शिथिलन होता है जिससे मल गुदा में होकर बाहर निकलता है। सामान्यतः लगभग 150 से 200 mL मल का त्याग प्रतिदिन होता है। इसमें कुछ जल, अपचे तथा अपाच्य तन्तुकीय पदार्थ, रंगा पदार्थ, मृत जीवाणु और इनकी क्रियाओं के फलस्वरूप बने पदार्थ, श्लेष्म, कोलेस्ट्रॉल तथा कुछ लवण होते हैं।
शशक में दिन का मल कड़ी व भूरी गोलियों के रूप में होता है, परन्तु रात का मल ढीला-ढाला व काला-सा होता है। रात के ढीले मल को शशक वापस खाकर इसमें से सेलुलोज तथा अन्य बचे हुए पोषक पदार्थों को पचाकर भोजन का पूरा लाभ उठाता है। शशक की इस आदत को विष्ठाभोजिता (coprophagy) कहते हैं।
मलबन्ध या कब्ज (Constipation)
बड़ी आँत में काइम के पीछे खिसकने की दर कम हो जाने से इसमें सूखे व कड़े मल का संचय हो जाता है। इसी को कब्ज कहते हैं। यह प्रायः समय से मल त्याग न करने की बुरी आदत और आहार में तन्तुयुक्त पदार्थों की कमी के कारण होता है।
अतिसार या दस्त (Diarrhoea)
कब्ज के विपरीत, यह बड़ी आँत में काइम के जल्दी-जल्दी पीछे खिसक जाने से होता है। यह आँत में विषाणुओं अर्थात् वाइरसों (viruses) एवं जीवाणुओं (bacteria), अमीबी (amoebae) आदि के संक्रमण (infection) या चिन्ता के कारण भी हो जाता है। तीक्ष्ण अतिसार में प्रायः उदरशूल एवं ज्वर (fever) भी हो जाता है।
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