परपोषी पौधों में पर्णहरिम (chlorophyll) की अनुपस्थिति के कारण अथवा कुछ अन्य कारणों से अपना भोजन स्वयं निर्माण करने की सामर्थ्य नहीं होती तथा इनको बने बनाये कार्बनिक भोज्य पदार्थों पर निर्भर रहना पड़ता है, जैसे जीवाणु, कवक तथा कुछ पुष्पी-पादप (flowering plants) कुछ विशेष पौधों में पर्णहरिम भी होता है। ऐसे पौधे पोषक अथवा आतिथेय (host) पर केवल जल तथा खनिजों के लिये आश्रित होते हैं। नीचे हम ऐसे ही पौधों के भोजन प्राप्त करने की विधियों का अध्ययन करेंगे।
परपोषी पौधे निम्न प्रकार हैं-
- परजीवी पौधे (Parasitic plants)
- मृतोपजीवी पौधे (Saprophytic plants)
- सहजीवी पौधे (Symbionts)
- कीटभक्षी पौधे (Insectivorous plants)
(क) परजीवी पौधे (Parasitic Plants)
परजीवी पौधे वे पौधे हैं जो अपना भोजन दूसरे जीवित पौधों अथवा जन्तुओं से प्राप्त करते हैं। इस प्रकार भोजन प्राप्त करने की विधि को पोषण की परजैविक विधि (parasitic mode of nutrition) कहते हैं।
जिस वस्तु अथवा पौधे से परजीवी पौधे अपना भोजन प्राप्त करते हैं उनको पोषक अथवा आतिथेय (host) कहते हैं। परजीवी पौधों के शरीर का कोई भाग एक विशेष अंग में परिवर्तित हो जाता है जिसे परजीवी मूल (haustorium) कहते हैं जो कि पोषक के शरीर की कोशिकाओं में पहुँचकर उनसे भोज्य पदार्थों का अवशोषण करते हैं। परन्तु कुछ परजीवी जैसे जीवाणु (bacteria) में परजीवी मूल (haustorium) का अभाव होता है और ये परजीवी सीधे पोषक के शरीर की कोशिकाओं में घुस जाते हैं।
वनस्पति-जगत् के अनेक वर्गों में परजीवी पौधे पाये जाते हैं, जैसे जीवाणु (bacteria) वर्ग, कवक (fungi) वर्ग, शैवाल (algae) तथा आवृतबीजी पौधे (angiosperms)।
कुछ आवृतबीजी पौधे (Angiosperms) भी अन्य पेड़-पौधों पर परजीवी होते हैं। परजीवी पौधे दो प्रकार के होते हैं—
- पूर्ण परजीवी पौधे (total parasites or obligate parasites) - जो पौधे अपना भोजन पूर्ण रूप से परजैबिक विधि से प्राप्त करते हैं, क्योंकि इनमें पर्णहरिम का अभाव होता है।
- अपूर्ण परजीवी पौधे (partial or semi parasites) - जो अपने भोजन का केवल कुछ भाग ही परजैविक विधियों से प्राप्त करते हैं।
(1) पूर्ण परजीवी - पूर्ण परजीवी पौधे दो प्रकार के होते हैं-
- पूर्ण स्तम्भ परजीवी (Total stem parasites) - अमरबेल (Cuscuta) एक पीले, पतले, दुर्बल तने वाला पूर्ण परजीवी (total parasite) है। इसका तना पोषक के चारों ओर लिपट जाता है तथा स्थान-स्थान पर परजीवी मूल (haustorium) निकलकर पोषक के तने के जाइलम (xylem) तथा फ्लोएम (phloem) में घुस जाते हैं और वहाँ से भोजन तथा खनिज लवण और जल प्राप्त करते हैं।
- पूर्ण मूल परजीवी (Total root parasites) –कुछ परजीवी पौधे दूसरे पौधों की जड़ों से भोजन प्राप्त करते हैं. तथा पूर्ण मूल परजीवी (total root parasites) कहलाते हैं, जैसे गँठवा (Orobanche), इंगुदी (Balanophora), रेफ्लीसिया (Rafflesia), आदि पूर्ण मूल परजीवी पौधे हैं। गँठवा गेहूँ, बैंगन, तम्बाकू, आदि की जड़ों पर परजीवी होता है। इंगुदी (Balanophora) वनों में वृक्षों की जड़ों पर परजीवी होता है। रेफ्लीसिया (Rafflesia) का पुष्प संसार का सबसे बड़ा पुष्प होता है (व्यास लगभग 1 metre एवं भार 11-15 kg होता है)।
(2) अपूर्ण परजीवी (Partial parasites) - अपूर्ण परजीवी पौधे भी दो प्रकार के होते हैं-
- अपूर्ण स्तम्भ परजीवी (Partial stem parasites) — विस्कम (Viscum album = Mistletoe) तथा लोरेन्थस (Loranthus) दूसरे पौधों के तनों पर उगकर उनसे केवल जल तथा खनिज लवण ही ग्रहण करते हैं। इनमें पर्णहरिम होता है तथा इस प्रकार ये अपना भोजन स्वयं निर्माण करते हैं। अपूर्ण स्तम्भ परजीवी का अन्य उदाहरण कैसिया फिलिफॉर्मिस (Cassytha filiformis) है।
- अपूर्ण मूल परजीवी (Partial root parasites) - चन्दन (Santalum) के पौधे दूसरे पौधों जैसे शीशम (Dalbergia sissoo) की मूलों पर उगते हैं। ये जल तथा खनिज लवण ही अपने पोषकों से लेते हैं। इन पौधों की पत्तियों में पर्णहरिम होता है जिससे ये प्रकाश-संश्लेषण क्रिया द्वारा अपना भोजन निर्माण करते हैं। अपूर्ण मूल परजीवी के अन्य उदाहरण थेसियम (Thesium), स्ट्राइगा (Striga) तथा रिनानथस (Rhinanthus) हैं।
इस वर्ग में वे विविधपोषी पौधे आते हैं जो जीवों के मृत, सड़ते हुए शरीर से अपना भोजन प्राप्त करते हैं तथा इस प्रकार की पोषण विधि को पोषण की मृतोपजीवी विधि (saprophytic mode of nutrition) कहते हैं। ये भी पूर्ण मृतोपजीवी (total saprophyte) तथा अपूर्ण मृतोपजीवी (partial saprophyte) दो उपवर्गों में विभाजित किये जा सकते हैं।
अनेक जीवाणु तथा कवक इस विधि से पोषण पाते हैं। मृतोपजीवी जीवाणुओं का बहुत आर्थिक महत्त्व है, क्योंकि ये मृत जीवों के शरीरों के जटिल कार्बनिक पदार्थों को सरल अकार्बनिक पदार्थों में परिवर्तित कर देते हैं और ये अकार्बनिक पदार्थ पुनः अन्य जीवित पौधों द्वारा अवशोषित कर लिये जाते हैं। दूध का खट्टा होना या दही का बनना, सिरके का बनना, आदि भी मृतोपजीवी जीवाणुओं द्वारा उत्पन्न होने वाली क्रियाएँ हैं। मृदा में नाइट्रोजन स्थिरीकरण (nitrogen fixation) तथा अमोनीकरण (ammonification), आदि क्रियाएँ जीवाणु ही करते हैं।
अनेक प्रकार के कवक भी मृतोपजीवी हैं, जैसे यीस्ट (Yeast), म्यूकर (Mucor), राइजोपस (Rhizopus), पेनिसिलियम (Penicillium), एस्पर्जिलस (Aspergillus), मशरूम (Agaricus), आदि ।
कभी-कभी कुछ मौस (moss) जैसे स्प्लेंक्नम (Splanchnum) तथा हिपनम (Hipnum), आदि भी मृतोपजीवी पौधों के उदाहरण प्रस्तुत करते हैं। टेरिडोफाइट्स में बोट्रीकियम (Botrychium) तथा लाइकोपोडियम (Lycopodium) की कुछ स्पीशीज (species) भी आंशिक=अपूर्ण मृतोपजीविता प्रदर्शित करते हैं।
कुछ आवृतबीजी पौधे भी मृतोपजीवी होते हैं, जैसे निओशिया (Neottia=Bird's nest orchid) तथा मोनोट्रोपा = भारतीय पाइन (Monotropa = Indian pine) आदि। निओशिया एक ऑर्किड (Orchid) है जो वन की ह्यूमस से भरपूर मिट्टी में उगता है। इसका तना मोटा तथा पीला होता है तथा पत्तियाँ नहीं के बराबर होती हैं। जड़ों में मूलरोम (root hairs) नहीं होते। इन जड़ों के कवक के सम्पर्क में आने पर कवक- सहजीविता (mycorrhiza; myco = fungus and rhiza = root) स्थापित हो जाती हैं। वास्तव में कवक ही मिट्टी से भोज्य पदार्थों को सोखता है। मोनोट्रोपा में तने के आधार पर भूरे रंग के शल्क-पत्र होते हैं। यह पौधा भी कवक-सहजीविता से भोजन प्राप्त करता है।
उपरोक्त दोनों आवृतबीजी पौधे यद्यपि मृतोपजीवी कहे जाते हैं, परन्तु वास्तव में ये कवक- सहजीविता (mycorrhiza) परजीवी होते हैं। मृदा से जल एवं खनिज लवण, आदि कवक ग्रहण करता है तथा वास्तविक पौधे द्वारा कवक को आश्रय व हरी पत्तियों में निर्मित भोज्य पदार्थ दिया जाता है। अगर इन पौधों को कवक- सहजीविता शीघ्र प्राप्त नहीं होती तो देखा गया है कि ये शीघ्र ही मर जाते हैं।
(ग) सहजीवी पौधे (Symbiont Plants)
जब दो पौधे परस्पर इस प्रकार सम्बन्ध स्थापित करते हैं जिससे दोनों को लाभ होता है तो इस क्रिया को सहजीवन (symbiosis) कहते हैं, अर्थात् कुछ आवश्यकताएँ पहला पौधा दूसरे के द्वारा पूरी करता है तथा कुछ वह दूसरे पौधे को लाभ भी पहुँचाता है। प्रत्येक पौधे को सहजीवी (symbiont) कहते हैं। लाइकेन (lichen), जो कि पौधों का एक विशेष वर्ग है, सहजीवन का एक अति उत्तम उदाहरण प्रस्तुत करता है। लाइकेन में एक शैवाल (algae) तथा एक कवक (fungus) में बहुत घनिष्ठ सम्बन्ध होता है। शैवाल में पर्णहरिम होता है, अतः यह कुछ अंश तक स्वपोषी है और भोज्य-पदार्थों का निर्माण करता है। शैवाल द्वारा निर्मित भोजन को कवक अपनी आवश्यकतानुसार लेता है तथा इसके बदले में जल, खनिज लवण, रहने के लिये स्थान, आदि शैवाल को प्रदान करता है।
लेग्युमिनोसी (Leguminosae) कुल के पौधों की जड़ों में नाइट्रोजन स्थिरीकरण करने वाले जीवाणुओं के 'वास' के कारण जड़ों में गाँठें (nodules) बन जाती हैं। इन गाँठों में पौधा जीवाणुओं को रहने का स्थान प्रदान करता है तथा बदले में जड़ों की गाँठों में वास करने वाले नाइट्रोजन स्थिरीकारक जीवाणु (nitrifying bacteria) वायुमण्डल की स्वतन्त्र नाइट्रोजन को नाइट्रेट में बदलकर पौधे को प्रदान करते हैं और इस प्रकार जीवाणुओं तथा पौधे में 'सहजीवी' सम्बन्ध स्थापित हो जाता है।
कवक- सहजीविता (mycorrhiza) में कवक (fungus) पौधों की जड़ों में अथवा जड़ों पर रहते हैं। जिस भूमि में ह्यूमस (humus) की अधिकता रहती है उसमें प्रायः कवक- सहजीविता पायी जाती है, जैसे जंगल की भूमि। ऐसे पौधों की जड़ों में मूलरोमों का अभाव रहता है। जल तथा खनिज लवण अवशोषित करके कवक पौधों की जड़ों में पहुँचाता है तथा कवक को पौधे से कार्बनिक भोज्य पदार्थ प्राप्त होते हैं।
कुछ खनिज मृदा विलयन में बहुत ही कम मात्रा में होते हैं यद्यपि ये खनिज पत्थर (mineral rock) के कणों में प्रचुर मात्रा में होते हैं। सामान्य दशा में ये खनिज बहुत धीरे-धीरे पत्थर कणों से पृथक् होकर मृदा जल में आते हैं, इसके अतिरिक्त ये खनिज उस जटिल रासायनिक दशा में होते हैं कि मूल कोशिकाएं इन्हें आसानी से ग्रहण नहीं कर सकती है। ऐसी दशा में पौधे व कवक की सहजीविता (mycorrhiza) लाभप्रद होती है। कवकसूत्र जड़ों की कोशिकाओं तथा मृदा कणों के बीच फैले रहते हैं। यह कवक खनिजों, विशेष रूप से नाइट्रोजन व फॉस्फोरस को जड़ों द्वारा ग्रहण करने योग्य दशा में बदल देते हैं और फिर जड़ें उन्हें आसानी से अवशोषित कर लेती हैं। इसके बदले में कवक पौधे से शर्करा व अमीनो अम्ल आदि प्राप्त करता है। अतः ऐसे पौधे व कवक उन स्थानों पर साथ-साथ रहते हैं जहाँ पर उन दोनों में कोई भी अकेला नहीं रह सकता, जैसे मरुस्थल तथा अधिक ऊँचाई के क्षेत्रों की मृदा में, जहाँ पर भूमि में पोषक तत्वों की कमी होती है।
हाल में हुए अनुसन्धानों से ज्ञात हुआ है कि वनों में कवकसूत्र (fungal hyphae) भूमि के नीचे ही फैलकर एक वृहत जाल (web) बनाते हैं। यह जाल विभिन्न वृक्षों यहाँ तक कि (विभिन्न जातियों के वृक्षों) की जड़ों के बीच एक अन्तर्सम्बन्ध (inter link = fungal bridge) बनाये रखता है। इसके कारण ही जो पौधे समुचित प्रकाश के कारण अधिक भोजन बनाते हैं, इस भोजन को कवक जाल के माध्यम से समीप के छाया में उगने वाले पौधों की जड़ों को प्रदान करते हैं और इस प्रकार उनकी भोजन की कमी को पूर्ण करते हैं। वैज्ञानिकों की अवधारणा है कि वृक्षों के बीच कवक जाल द्वारा भोजन का स्थानान्तरण एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण कारक है जिससे पूरा वन स्वस्थ रहता है।
(घ) कीटभक्षी पौधे (Insectivorous Plants)
ये वे पौधे हैं जो प्रकाश-संश्लेषण द्वारा अपना भोजन स्वयं निर्माण कर लेते हैं। अतः इस दृष्टिकोण से इन पौधों को स्वपोषी (autotrophs) कहा जा सकता है परन्तु जहाँ तक नाइट्रोजनयुक्त पदार्थों के निर्माण का प्रश्न है इन्हें स्वपोषी नहीं कहा जा सकता, क्योंकि ये पौधे अपनी नाइट्रोजन की आवश्यकता पृथ्वी से नाइट्रोजनयुक्त पदार्थों को अवशोषित करके पूरा नहीं कर पाते। प्रायः ये ऐसी भूमि में उगते हैं जहाँ भूमि में नाइट्रोजन का अभाव होता है। ये पौधे अपनी नाइट्रोजन की आवश्यकता कीटों (insects) को पकड़कर तथा उनका पाचन करके पूरा करते हैं। इस कार्य के लिये इनमें विशेष पोषण विधियाँ विकसित होती हैं। अतः ये पौधे आंशिक रूप से विविधपोषी (heterotrophs) होते हैं। ऐसे कुछ पौधों का संक्षिप्त विवरण निम्न प्रकार है -
1. कलश पादप (Pitcher plants) – इसमें पत्ती का अग्रिम भाग एक घड़े का आकार ग्रहण कर लेता है जिसमें एक ढक्कन भी होता है। घड़े के मुख पर मकरन्द (nectar) ग्रन्थियाँ मीठा रस निकालती रहती हैं जिसके आकर्षण से कीट घड़े के आकार की रचना के मुख में आते हैं। मुख के अन्दर की ओर कुछ छोटी ग्रन्थियाँ पायी जाती हैं जिनसे नीचे की ओर फिसलने वाला चिकना पदार्थ स्रावित होता है। इस फिसलने वाले पदार्थ के नीचे अन्दर की ओर दिष्ट (directed) तन्तु पाये जाते हैं। कलश में उपस्थित अम्लीय द्रव की सहायता से कीट को पचाकर नाइट्रोजन की आवश्यकता पूरी कर ली जाती है। नेपेन्थीस (Nepenthes), सरासीनिया (Sarracenia) कलश पादप पौधों के अच्छे उदाहरण हैं।
2. डायोनिया = वीनस फ्लाई ट्रेप (Dionaea = Venus fly-trap) – इस कीट भक्षी पौधे में गुलाबवत् भूशायी (prostrate) पत्तियाँ होती हैं। प्रत्येक पत्ती का वृन्त (stalk) चपटा हो जाता है। पत्ती मध्य नाड़ी से दो भागों में विभाजित होती है। प्रत्येक अर्धभाग के किनारों पर बाहर निकली हुई दाँत-सदृश रचनाएँ होती हैं तथा ऊपरी सिरे पर नुकीले रोम तथा गुलाबी रंग की ग्रन्थियाँ होती हैं। ये रोम ठोस पदार्थों के प्रति काफी संवेदनशील (sensitive) होते हैं। कीट द्वारा पत्ती के सम्पर्क में आने के तुरन्त बाद पत्ती के दोनों सिरे बन्द हो जाते हैं तथा कीट इनमें फँस जाता है और बाद में पचा लिया जाता है।
3. ड्रोसेरा (Drosera-sun-dew plant) – इन पौधों का आकार काफी छोटा होता है जो गुलाबवत् (rossette) क्रम में व्यवस्थित होता है। हर पत्ती में एक पतला तथा अपेक्षाकृत कुछ लम्बा वृन्त (stalk) होता है। इनका अगला भाग फलक होता है जिस पर अनेक पिन के आकार के लाल घुण्डी वाले कुछ ग्रन्थिल स्पर्शक (tentacles) होते हैं। इनसे एक चिपचिपा सा पदार्थ स्रावित होता है जो कि ओस की भाँति चमकता है। इसकी चमक से आकर्षित होकर कीट जब पत्ती के फलक पर बैठते हैं तो ये फ़लक पर चिपक जाते हैं तथा पास में स्थित दूसरे तन्तु भी मुड़कर कीट के ऊपर आ जाते हैं। इस चिपचिपे पदार्थ में उपस्थित विकर (enzyme) कीट के नाइट्रोजनयुक्त पदार्थों का पाचन कर लेते हैं जो कि फलक द्वारा अवशोषित कर लिये जाते हैं। कुछ समय पश्चात् तन्तु पुनः सीधे हो जाते हैं और कीट का शेष भाग नीचे गिर जाता है।
4. ब्लैडर वर्ट (Bladder wort) - यह एक छोटा जलीय पौधा है जिसका वानस्पतिक नाम यूट्रीकुलेरिया (Utricularia) है। इसकी अनेक जातियाँ उथले जल में तैरती हुई अथवा स्थिर अवस्था में पायी जाती हैं। पौधे में प्रायः जड़ों का अभाव रहता है। पौधे की पत्तियाँ प्रायः कटी फटी एवं संयुक्त होती हैं। इन पत्तियों के अग्रिम भाग, बहुत छोटे अण्डाकार अथवा नाशपाती के आकार के ब्लैडर (Bladder) बना लेते हैं जो एक वृन्त (stalk) द्वारा पत्ती के दूसरे भाग से जुड़े रहते हैं। ब्लैडर के कम चौड़े भाग पर मुख होता है जिस पर एक पट (valve) की तरह का ढक्कन ऊपर की ओर लगा रहता है। ब्लैडर के मुख पर कुछ संवेदनशील रोम होते हैं। ब्लैडर के अन्दर की सतह पर चार कोशीय (four celled) छोटे रोम (hairs) होते हैं जो जल का अवशोषण करते हैं। जल के अवशोषण से ब्लैडर के अन्दर जल का दबाव कम हो जाता है जिसके कारण जल पट के निचले भाग को अन्दर धकेलकर अन्दर घुस आता है।
जब कुछ छोटे कीट, जैसे साइक्लॉप्स (Cyclops), डैफनिआ (Daphnia) एवं रॉटिफेरा (Rotifers), आदि जो जल में पाये जाते हैं ब्लैडर के द्वार पर लगे संवेदनशील रोम (bristles) से छू जाते हैं तो पट अन्दर की ओर खुल जाती है और कीट जल के साथ ब्लैडर के अन्दर आ जाते हैं। जल के ब्लैडर में आने से पट बन्द हो जाती है जिससे जल के साथ अन्दर आये ये कीट अन्दर ही फँस जाते हैं। इन कीटों की मृत्यु हो जाती है और जल में उपस्थित जीवाणुओं द्वारा उनका अपघटन (decomposition) हो जाता है। अपघटन से उत्पन्न नाइट्रोजनी पदार्थ ब्लैडर की भित्ति पर लगी कोशिकाओं द्वारा अवशोषित कर लिये जाते हैं। इन पौधों में कीटों का पाचन करने वाले विकरों (enzymes) की उपस्थिति का उल्लेख नहीं है।
5. बटर वर्ट (Butter wort = = Pinguicula) — यह एक छोटा शाकीय पौधा है जिसमें बड़ी व मांसल अवृंत पत्तियों का चक्र होता है। पत्तियों के किनारे ऊपर की ओर थोड़ा मुड़े होते हैं। पत्ती के पृष्ठ तल पर श्लेष्म ग्रन्थियाँ तथा पाचक ग्रन्थियाँ होती हैं। जब कोई कीट पत्ती की सतह पर बैठता है तो वहीं पर श्लेष्म के कारण चिपक जाता है। पत्ती के किनारे मुड़कर कीट को बाहर नहीं निकलने देते। पाचक ग्रन्थियाँ कीट का पाचन करती हैं जिसे पत्ती की सतह द्वारा ही शोषित कर लिया जाता है। इसके बाद पत्ती खुल जाती है।
6. एल्डोवेन्डा (Aldovanda) – यह एक जड़ विहीन जलीय पौधा है। इसमें पत्तियों की ऊपरी सतह पर संवेदी रोम व पाचक ग्रन्थियाँ होती हैं। जैसे ही कीट संवेदी रोमों को छूता है, पत्ती के दोनों अर्धभाग मध्यशिरा से मुड़कर कीट को फँसा लेते हैं और इसका पाचन व अवशोषण कर लिया जाता है। इस प्रकार यह पौधा कीट पकड़ने में डायोनिया की भाँति होता है।
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