पित्त पीले-हरे या हरे-नीले से रंग का क्षारीय (pH – 7.6 से 8.6) तरल होता है। मनुष्य में प्रतिदिन लगभग 800 से 1000 mL पित्त का स्रावण होता है। पित्ताशय से duodenum में मुक्त होने वाले पित्त में लगभग 92% जल, 6% पित्त लवण (bile salts ), 0.3% पित्त रंगा– बिलिरूबिन (bile pigment—bilirubin) एवं पित्त अम्ल (bile acids), 0.3-0.9% कोलेस्ट्रॉल (cholesterol), 0.3% लिसाइथिन (lecithin) एवं 0.3 से 1.2% वसीय अम्ल होते हैं। पित्त लवणों में सोडियम क्लोराइड और सोडियम बाइकार्बोनेट नामक अकार्बनिक तथा सोडियम ग्लाइकोकोलेट (sodium glycocholate) एवं सोडियम टॉरोकोलेट (sodium taurocholate) नामक कार्बनिक लवण होते हैं।
पित्त के कार्य : पित्त में कोई पाचक एन्जाइम नहीं होता, परन्तु लिपिड्स के पाचन एवं अवशोषण में इसकी महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है तथा इसके कई अन्य कार्य भी होते हैं। इसके समस्त कार्य निम्नलिखित होते हैं-
- यह आन्त्रीय क्रमाकुंचन, मुख्यतः मिश्रण गतियों को बढ़ाता है ताकि पाचक रस काइम में भली-भाँति मिल जाएँ।
- इसके अकार्बनिक लवण HCI के प्रभाव को समाप्त करके काइम को क्षारीय बनाते हैं ताकि इस पर अग्न्याशयी तथा आन्त्रीय रसों की प्रतिक्रियाएँ हो सकें।
- पित्त लवण काइम के हानिकारक जीवाणुओं (bacteria) को नष्ट करके काइम को सड़ने से बचाते हैं।
- इसके कार्बनिक लवण काइम की वसाओं के धरातल तनाव (surface tension) को कम करके इन्हें सूक्ष्म बिन्दुकों (globules) में तोड़ देते हैं ताकि अग्न्याशयी रस के लाइपेज की इन पर अधिकतम् प्रतिक्रिया हो सके। वसा के ये सूक्ष्म बिन्दुक पित्त के जल के साथ वैसा ही पायस अर्थात् इमल्सन (emulsion) बना लेते हैं जैसा कि जाड़ों में हमारे कंधे पर तैल और पानी का दिखाई देता है। इसीलिए, इसे वसा का पायसीकरण अर्थात् इमल्सीकरण (emulsification) कहते हैं।
- पित्त लवण वसा पाचक एन्जाइमों का सक्रियण करते हैं।
- पित्त अम्लों, लिसाइथिन तथा कोलेस्ट्रॉल के साथ मिलकर, पित्त लवण माइसेल (micelle) नामक सूक्ष्म बिन्दुक बनाते हैं जो लिपिड्स के पाचन-उत्पादों के अवशोषण में सहायता करते हैं। वसा में घुलनशील विटामिनों (A, D, E एवं K) के अवशोषण के लिए पित्त लवण आवश्यक होते हैं।
- पित्त विषैले पदार्थों, धातुओं और अनावश्यक कोलेस्ट्रॉल के परित्याग के लिए उत्सर्जी माध्यम (excretory medium) का काम करता है। पित्त रंगा (बिलिरूबिन) उत्सर्जी पदार्थ ही होती है। यह अस्थि मज्जा, प्लीहा, लसिका गाँठों, यकृत आदि में हीमोग्लोबिन के विखण्डन से बनकर रुधिर में मुक्त होती है। यकृत कोशिकाएँ इसे रुधिर से लेकर पित्त के साथ ठीक उसी प्रकार बहिष्कृत करती हैं जैसे वृक्कों की कोशिकाएँ यूरिया का उत्सर्जन करती हैं। इसी के कारण पित्त पीला या हरा-सा होता है।
पीलिया रोग (Jaundice) : रेटिकुलो-एण्डोथीलियमी ऊतकों (प्लीहा अर्थात् तिल्ली, अस्थि मज्जा, लसिका गाँठों आदि) में रुधिर के लाल रुधिराणुओं के विखण्डन की दर अत्यधिक बढ़ जाने, बड़ी संख्या में यकृत कोशिकाओं के क्षतिग्रस्त हो जाने, या पित्ताशय से पित्तवाहिनी में पित्त का मार्ग अवरुद्ध हो जाने पर, यकृत कोशिकाएँ रुधिर से बिलिरूबिन (bilirubin) को ग्रहण नहीं कर पाती हैं। अतः पीला बिलिरूबिन रुधिर में ही रहकर पूरे शरीर में फैल जाता है। इसी को पीलिया रोग (jaundice) कहते हैं। इसमें त्वचा एवं आँखें पीली पड़ जाती हैं, मूत्र पीला-हरा-सा एवं मल भूरा हो जाता है। उपयुक्त उपचार के अभाव में रोगी की मृत्यु हो जाती है।
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