प्लाज्मोडियम वाइवैक्स का जीवन-चक्र (Life-Cycle Of P. Vivax)|hindi


प्लाज्मोडियम वाइवैक्स का जीवन-चक्र (Life-Cycle Of P. Vivax)

प्लाज्मोडियम वाइवैक्स का जीवन-चक्र (Life-Cycle Of P. Vivax)|hindi

जूड़ी बुखार या मलेरिया (Malaria or Ague) रोग को सब जानते हैं। यह प्लाज्मोडियम (Plasmodium) नामक रोगजनक परजीवी (pathogenic parasite) प्रोटोजॉन के संक्रमण से होता है। ऐनोफेलीज (Anopheles) नामक मच्छर की मादाएँ प्लाज्मोडियम की वाहक (carrier or vector) होती हैं, अर्थात् ये इसे एक मनुष्य से दूसरे मनुष्यों में फैलाती हैं। मनुष्य में प्लाज्मोडियम की चार जातियाँ पाई जाती हैं जो विभिन्न प्रकार के मलेरिया रोग उत्पन्न करती हैं— प्लाज्मोडियम वाइवैक्स (P. vivax), प्ला० फैल्सीपैरम (P. falciparum), प्ला० मलैरी (P. malariae) तथा प्ला० ओवेल (P. ovale)। इनमें से प्ला० वाइवैक्स सबसे अधिक पाई जाती है। अतः नीचे प्ला० वाइवैक्स के जीवन चक्र का वर्णन किया गया है।



वर्गीकरण (Classification)

जगत(Kingdom)               -      प्रोटिस्टा (Protista)
संघ(Phylum)                   -     प्रोटोजोआ (Protozoa)
उपसंघ(Subphylum)        -     स्पोरोजोआ (Sporozoa)
वर्ग(Class)                        -     टीलोस्पोरिया (Telosporea)
उपवर्ग(Subclass)             -     कोक्सीडिया  (Coccidia)
गण(Order)                      -     हीमोस्पोरीडॉइडा (Haemosporidida)
श्रेणी(Genus)                    -      प्लाज्मोडियम (Plasmodium)


प्लाज्मोडियम का जीवन-चक्र जटिल होता है। इसमें कई प्रावस्थाएँ (stages) होती हैं। इसका कुछ भाग मनुष्य के तथा शेष भाग मादा ऐनोफेलीज के शरीर में पूरा होता है। ऐसे जीवन-चक्र को, जो दो भिन्न प्रकार के जन्तुओं में पूरा होता हो, द्विपोषदीय जीवन-चक्र (digenetic life cycle) कहते हैं। मनुष्य प्लाज्मोडियम का प्राथमिक पोषद (primary, definitive or principal host) होता है और मादा ऐनोफेलीज द्वितीयक पोषद (secondary or intermediate host) । इस प्रकार, मादा ऐनोफेलीज प्लाज्मोडियम को फैलाने वाली वाहक पोषद (vector or carrier host) होती है। मनुष्य में प्लाज्मोडियम का अलैंगिक (asexual) जनन होता है तथा मच्छर में लैंगिक जनन एवं बीजाणुजनन (sporogony) होता है।



मनुष्य में अलैंगिक जीवन-चक्र एवं शाइजोगोनी
प्लाज्मोडियम की वयस्क प्रावस्था को ट्रोफोज्वॉएट (trophozoite) कहते हैं। यह मनुष्य के लाल रुधिराणुओं (red) blood corpuscles—RBCs) में होती है परन्तु, लाल रुधिराणुओं में पहुँचने से पहले, यकृत (liver) कोशिकाओं में परजीवी का व्यापक बहुगुणन (multiplication) होता है। इस प्रकार, मनुष्य में इसके जीवन-चक्र के दो भाग होते हैं-
  1. बाह्य रुधिराणु चक्र
  2. रुधिराणु चक्र

1. बाह्य रुधिराणु चक्र (Exo-erythrocytic Cycles)-

मनुष्य में प्लाज्मोडियम का प्रवेश (Infection of man) इसकी एक सूक्ष्म संक्रमण प्रावस्था (infective stage) से होता है जिसे वीजाणुज या स्पोरोज्जॉएट (sporozoite) कहते हैं। स्पोरोज्वॉएट्स संक्रमित (infected) मादा ऐनोफेलीज की लार ग्रन्थियों (salivary glands) में होते हैं। 

मादा ऐनोफेलीज का भोजन मनुष्य का रुधिर होता है। रुधिरपान यह मुख्यतः रात में करती है। रक्तपान में मादा ऐनोफेलीज पहले घाव में अपनी लार की एक छोटी बूँद उँडेलती है। लार में एक प्रतिजामन (anticoagulant) होता है जो रक्त को जमने से रोकता है। ज्योंही लार हमारे रक्त में पहुँचती है, हमें खुजली व जलन होती है। लार के साथ हजारों सूक्ष्म स्पोरोज्वॉएट्स हमारे रक्त में पहुँच जाते अर्थात् निवेशित (inoculated) हो जाते हैं।


स्पोरोज्वॉएट की रचना : इसका शरीर 6 से 15μ लम्बा, तर्कुरूपी (spindle shaped) या हँसियाकार-सा (sickle-shaped) एवं कुछ गतिशील होता है। जिसके ऊपर दृढ़, परन्तु लचीली पेलीकल (pellicle) झिल्ली का आवरण होता है। इसके भीतर मध्य भाग में एक केन्द्रक होता है तथा अग्र छोर पर बीजाण्डद्वार (micropyle) नामक सूक्ष्म छिद्र होता है। इसके पीछे, संकेन्द्रीय छल्लों (concentric rings) की बनी, एक छोटी शीर्ष टोपी (apical cap) होती है। इसमें एक जोड़ी लम्बे स्रावण अंगक (secretory organelles) खुलते हैं। एक बड़ा माइटोकॉण्ड्रिऑन, एक लम्बा केन्द्रक तथा एण्डोप्लाज्मिक जाल भी कोशिकाद्रव्य में होते हैं।

प्लाज्मोडियम वाइवैक्स का जीवन-चक्र (Life-Cycle Of P. Vivax)|hindi


पूर्व प्रत्यक्ष काल एवं पूर्व-रुधिराणु चक्र (Pre-patent Period and Pre erythrocytic Cycle) :

1.  लगभग आधे-एक मनुष्य घण्टे में ही, सारे स्पोरोज्वॉएट्स के रुधिर से अन्तर्धान हो जाते हैं। रुधिर परिसंचरण के साथ यकृत में पहुँचने पर ये, अपने स्रावण अंगकों द्वारा स्रावित ऊतकनाशी (lytic) एन्जाइमों की सहायता से, रुधिर केशिकाओं (blood capillaries) से बाहर आ जाते हैं और यकृत कोशिकाओं में घुस जाते हैं। 

2.  किसी यकृत कोशिका में घुसने पर स्पोरोज्वॉएट इसके कोशिकाद्रव्य का भक्षण करता है और वृद्धि द्वारा लगभग 45μ व्यास का बड़ा, गोल-सा वयस्क बन जाता है जिसे क्रिप्टोज्वॉएट (crypto zoite) कहते हैं। 

3.  क्रिप्टोज्वॉएट एक विशेष प्रकार के बहुविभाजन (multiple fission) विखण्डनीजनन या शाइजोगोनी (schizogony) — द्वारा लगभग 1,000 नन्हें, अण्डाकार से क्रिप्टोमीरोज्वॉएट्स (crypto merozoites) में बँट जाता है। 

4.  ऐसे बहुविभाजन में पहले जीव का केन्द्रक बार-बार विभाजित होकर सन्तति केन्द्रकों में बँटता है जिससे यह एक शाइजॉन्ट (schizont बहुकेन्द्रकीय) बन जाता है। 

5.  अब शरीर का अधिकांश कोशिकाद्रव्य केन्द्रकों के गिर्द एकाग्र छोटे-छोटे पिण्डों में बँट जाता है। इन क्रिप्टोमीरोज्वॉएट्स के दबाव से शाइजॉन्ट और यकृत कोशिका फट जाती है और ये यकृत के छोटे-छोटे रक्तपात्रों (sinusoids) में मुक्त हो जाते हैं। 

6.  इनमें से कुछ क्रिप्टोमीरोज्वॉएट्स तो नई यकृत कोशिकाओं में घुसकर नया बाह्य रुधिराणु चक्र प्रारम्भ करते हैं; शेष रुधिर में पहुँचकर लाल रुधिराणुओं में घुस जाते हैं और रुधिराणु या एरिथ्रोसाइटिक चक्र (erythrocytic cycle) प्रारम्भ करते हैं। 

7.  इसीलिए, यकृत में होने वाले प्रथम एक्सो-एरिथ्रोसाइटिक चक्र को पूर्व-रुधिराणु चक्र (pre-erythrocytic cycle) कहा गया है। यह लगभग 8-10 दिन में पूरा होता है। 

8.  मच्छर के काटने के समय से एरिथ्रोसाइटिक चक्र के प्रारम्भ होने तक की इसी अवधि को पूर्व प्रत्यक्ष काल (pre-patent period) कहते हैं।



अन्य बाह्य रुधिराण चक्र (Other Exo-erythrocytic Cycles)
1.  प्री-एरिथ्रोसाइटिक चक्र के वे क्रिप्टोमीरोज्वॉएट्स जो नई यकृत कोशिकाओं में घुसते हैं मेटाक्रिप्टोज्वॉएट्स (metacryptozoites) या फैनेरोज्वॉएट्स (phanerozoites) नामक वयस्कों में विकसित होते हैं जो दो प्रकार के होते हैं—(क) माइक्रोमेटाक्रिप्टोज्वॉएट्स (micro metacryptozoites) तथा (ख) मैक्रोमेटाक्रिप्टोज्वॉएट्स (macro metacryptozoites)। 

2.  ये भी शाइजॉन्ट्स बनकर विखण्डनीजनन द्वारा मीरोज्वॉएट्स बनाते हैं। 

3.  प्रत्येक माइक्रोमेटाक्रिप्टोज्वॉएट 100 से 1,000 तक नन्हें माइक्रोमेटाक्रिप्टोमीरोज्वॉएट्स (micrometacryptomero zoites) में बँटता है जो यकृत को छोड़कर रुधिर में चले जाते हैं और नए एरिथ्रोसाइटिक चक्रों को प्रारम्भ करते हैं। 

4.  प्रत्येक मैक्रोमेटाक्रिप्टोज्वॉएट लगभग 64, अपेक्षाकृत बड़े, मैक्रोमेटाक्रिप्टोमीरोज्वॉएट्स (macrometacryptomerozoites) बनाता है जो यकृत में अगले एक्सो-एरिथ्रोसाइटिक चक्र को प्रारम्भ करते हैं। यकृत में इसी प्रकार एक्सो-एरिथ्रोसाइटिक चक्र निरन्तर चलते रहते हैं।

2. रुधिराणु चक्र (Erythrocytic Cycle)

पहले या बाद के एक्सो-एरिथ्रोसाइटिक चक्रों के जो मीरोज्वॉएट्स रुधिर में पहुँचते हैं, लाल रुधिराणुओं में घुसकर रुधिराणु चक्र चलाते हैं जिसमें चार प्रावस्थाएँ होती हैं—


(क) मुद्रिका प्रावस्था (Signet-ring Stage) 
रुधिराणु में घुसकर मीरोज्वॉएट एक गोल, तश्तरीनुमा, युवा ट्रोफोज्वॉएट बन जाता है। शीघ्र ही इसके मध्य में एक बड़ी-सी अकुंचनशील रिक्तिका (noncontractile vacuole) बन जाती है। कोशिकाद्रव्य रिक्तिका के चारों ओर एक सँकरे वल्कलीय स्तर में रहता है। इसी में एक ओर केन्द्रक होता है। अतः ट्रोफोज्वॉएट अँगूठी (मुद्रिका) जैसा दिखाई देता है। किसी-किसी युवा ट्रोफोज्वॉएट में 2 या अधिक रिक्तिकाएँ बन जाती हैं।



(ख) अमीबॉएड प्रावस्था एवं वृद्धि काल (Amoeboid Stage and Growth Period)

1.  शीघ्र ही युवा ट्रोफोज्वॉएट, अमीबा की भाँति, छोटे-छोटे कूटपाद (pseudopodia) बनाने लगता है। यह इसकी अमीबॉएड प्रावस्था (amoeboid stage) होती है। 

2.  इसमें यह पोषद रुधिराणु के कोशिकाद्रव्य से अपना पोषण करके तीव्र वृद्धि करता है। यह कुछ ऐसे पाचक एन्जाइम मुक्त करता है जो रुधिराणु के कोशिकाद्रव्य को पचाकर तरल बना देते हैं। इसी तरल को ट्रोफोज्वॉएट प्रसरण (diffusion) एवं पिनोसाइटोसिस (pinocytosis) द्वारा ग्रहण करता है। इसीलिए, इसमें पिनोसाइटिक आशयों (pinocytic vesicles) से बनी खाद्य-धानियाँ (food vacuoles) भी होती हैं। 

3.  कुछ घण्टों की वृद्धि के बाद, ट्रोफोज्वॉएट में गहरी-भूरी हीमोज्वॉइन कणिकाएँ या शलाकाएँ (hemozoin granules or rods) दिखाई देने लगती हैं। 

4.  ये रुधिराणु के हीमोग्लोबिन के विखण्डन के फलस्वरूप बनती हैं—हीमोग्लोबिन का ग्लोबिन (globin) प्रोटीन तथा लाल हीमैटिन (haematin) रंगा पदार्थ में विखण्डन होता है। 

5.  ग्लोविन पच जाती है, परन्तु हीमैटिन, अपाच्य होने के खाद्य-धानियों से बड़ी-बड़ी कणिकाओं के रूप में निकलकर ट्रोफोज्वॉएट के कोशिकाद्रव्य में एकत्र होता रहता है। 

कारण,

 ➤  तीव्र वृद्धि के कारण, 1½ से 2½ दिनों (प्लाज्मोडियम की जाति के अनुसार) में, ट्रोफोज्वॉएट पूर्ण वयस्क बनकर के रुधिराणु का अधिकांश भाग घेर लेता है। प्लाज्मालेमा, एण्डोप्लाज्मिक जाल, माइटोकॉण्ड्रिया, केन्द्रक, खाद्य-धानियों, गॉल्जी कॉम्पलेक्स आदि के अतिरिक्त, अज्ञात महत्त्व की एक संकेन्द्रीय रचना (concentric body) भी इसमें देखी गई है। 

 ➤  मुद्रिका प्रावस्था की अकुंचनशील रिक्तिका अब तक समाप्त हो जाती है। स्वयं रुधिराणु भी कमजोर होकर अनियमित आकृति का, कुछ बड़ा-सा और हल्के रंग का हो जाता है। इसके बचे-खुचे कोशिकाद्रव्य (residual cytoplasm) में अनेक नारंगी या पीली कणिकाएँ दिखाई देने लगती हैं जिन्हें शुफनर के बिन्दु या कण (Schuffner's dots) कहते हैं ।



(ग) विखण्डनीजनन (Schizogony) प्रावस्था 

1.  ट्रोफोज्वॉएट की वृद्धि की समाप्ति के साथ-साथ इसका केन्द्रक, विखण्डनीजनन (schizogony) के लिए, बारम्बार विभाजनों अर्थात् बहुविभाजन (multiple fission) द्वारा 8 से 26 सन्तति केन्द्रकों में बँट जाता है। इस प्रकार ट्रोफोज्वॉएट बहुकेन्द्रकीय शाइजॉन्ट (schizont) बन जाता है।

2.  सन्तति केन्द्रक सब इसकी परिधि के पास आ जाते हैं। 

3.  अब कोशिकाद्रव्य का अधिकांश भाग सन्तति केन्द्रकों के चारों ओर एकाग्र टुकड़ों में बँट जाता है। 

4.  इस प्रकार, शाइजॉन्ट में 1.5ju व्यास के, 8 से 26 अण्डाकार से मीरोज्वॉएट्स (merozoites) या शाइजोज्वॉएट्स (schizozoites) बन जाते हैं। 

5.  शाइजॉन्ट का थोड़ा-सा केन्द्रीय कोशिकाद्रव्य, जिसमें हीमोज्वॉएन कणिकाएँ होती हैं, अलग बचा रहता है।


 ➤  विखण्डनीजनन के पूरा होते-होते शाइजॉन्ट एवं पोषद रुधिराणु कमजोर होकर फट जाते हैं। रुधिराणु की कोशिकाकला में उपस्थित लाइसोलिसाइथिन (lysolecithin) नामक पदार्थ कला को गला देता (lysis) है। शाइजॉन्ट एवं रुधिराणु के फटने से मीरोज्वॉएट्स तथा शाइजॉन्ट का हीमोज्वॉएनयुक्त अवशेष कोशिकाद्रव्य रुधिर के प्लाज्मा में जाते हैं। 

 ➤  रुधिर में हीमोज्वॉएन तथा सम्भवतः कुछ अन्य विषैले (toxic) पदार्थों के मुक्त होते रहने के कारण, लगभग चार रुधिराणु चक्रों के बाद, प्रत्येक चक्र के पूरा होते ही रोगी को जाड़ा व कँपकँपी के साथ मलेरिया बुखार चढ़ता है। मुक्त हुए मीरोज्वॉएट्स अन्य लाल रुधिराणुओं में घुसकर अगले एरिथ्रोसाइटिक चक्र प्रारम्भ कर देते हैं। 

 ➤  प्रत्येक चक्र में, प्लाज्मोडियम की जाति के अनुसार, 48 या 72 घण्टे का निश्चित समय लगता है। इससे सिद्ध होता है कि इस निम्न मुक्त हो कोटि के जीव की कार्यिकी में एक यथार्थ "जैव-घड़ी (biological clock)" काम करती है। एक-के-बाद-एक, इन चक्रों के चलते रहने से मानव पोषद को बार-बार मलेरिया बुखार ही नहीं चढ़ता, वरन् उसके अगणित लाल रुधिराणु भी नष्ट होते रहते हैं।



(घ) युग्मकजनकों का विकास (Development of Gametocytes) 

कई एरिथ्रोसाइटिक चक्रों के बाद कुछ मीरोज्वॉएट्स नए लाल रुधिराणुओं में घुसकर कुछ भिन्न प्रकार से वृद्धि करते हैं। यह वृद्धि तीव्र गति से होती है और इसमें मुद्रिका प्रावस्था नहीं बनती। ये मीरोज्वॉएट्स, सामान्य ट्रोफोज्वॉएट्स के बजाय, भिन्न प्रकार के बड़े, वृत्ताकार से, वयस्कों में विकसित होते हैं जिन्हें युग्मकजनक या गैमीटोसाइट्स (gametocytes) या गैमोन्ट्स (gamonts) कहते हैं। 

 ➤  इनका कोशिकाद्रव्य अधिक सघन होता है, क्योंकि इसमें हीमोज्वॉएन कणिकाएँ कहीं अधिक होती हैं। कोशिकाद्रव्य के बीच में बड़ा, गोल-सा केन्द्रक होता है। युग्मकजनकों वाले लाल रुधिराणुओं में शुफनर के बिन्दु भी अधिक होते हैं। 

विकसित युग्मकजनक दो प्रकार के होते हैं-

 ◾  लघुयुग्मकजनक या माइक्रोगैमीटोसाइट्स (Microgametocytes) : ये छोटे, नर युग्मकजनक होते हैं। इनका केन्द्रक बड़ा होता है। कोशिकाद्रव्य हल्के भूरे से रंग का होता है, क्योंकि हीमोज्वॉएन कण इसमें चारों ओर बिखरे रहते हैं और संचित पोषक पदार्थ नहीं होते।

 ◾  दीर्घयुग्मकजनक या मैक्रोगैमीटोसाइट्स (Macrogametocytes) : ये कुछ बड़े, मादा युग्मकजनक होते हैं। इनका केन्द्रक छोटा होता है। कोशिकाद्रव्य अधिक सघन एवं गहरा भूरा होता है, क्योंकि इसमें संचित पोषद पदार्थ होते हैं और हीमोज्वॉएन कण अधिक तथा केन्द्रीय भाग में एकत्र रहते हैं। मैक्रोगैमीटोसाइट वाले लाल रुधिराणु माइक्रोगैमीटोसाइट वाले रुधिराणुओं से संख्या में लगभग दुगुने होते हैं। प्लाज्मोडियम की यही गैमीटोसाइट प्रावस्थाएँ मच्छर पोषद के लिए संक्रामक (infective) होती हैं। अतः इनके बन जाने के बाद का जीवन-चक्र मच्छर में ही सम्भव होता है।



मच्छर में प्लाज्मोडियम का जीवन-चक्र (लैंगिक जीवन-चक्र)

मादा ऐनोफेलीज का संक्रमण 

1.  जब मादा ऐनोफेलीज संक्रमित (infected) मनुष्य का रक्त चूसती है तो इसकी आहारनाल में पहुँचने वाले RBCs प्लाज्मोडियम के एरिथ्रोसाइटिक चक्र की सभी विभिन्न प्रावस्थाओं वाले होते हैं। में गैमीटोसाइट्स को छोड़कर अन्य सभी प्रावस्थाएँ पच जाती हैं। 

2.  गैमीटोसाइट्स पर पाचक रसों का प्रभाव नहीं पड़ता। ये मच्छर के आमाशय में RBCs से मुक्त और सक्रिय होकर लैंगिक प्रावस्थाओं का प्रारम्भ कर देते हैं। 

3.  इनका सक्रिय होना मुख्यतः ताप पर निर्भर करता है। ट्रोफोज्वॉएट एवं मीरोज्वॉएट प्रावस्थाओं की सक्रियता के लिए अधिक और गैमीटोसाइट्स की सक्रियता के लिए कम ताप आवश्यक होता है। 

4.  मनुष्य में गैमीटोसाइट्स लैंगिक चक्र का प्रारम्भ इसीलिए नहीं कर पाते कि, समतापी (warm-blooded) होने के कारण, मनुष्य के शरीर का ताप असमतापी (cold-blooded) मच्छर के ताप से कहीं अधिक होता है। 

5.  मच्छर में लैंगिक प्रावस्थाओं के तुरन्त बाद एक अलैंगिक बहुविभाजन भी होता है जिसे बीजाणुजनन (sporogony) कहते हैं। 

इस प्रकार, मच्छर में भी प्लाज्मोडियम का जीवन-चक्र दो प्रमुख प्रावस्थाओं में बँटा होता है-
  1. लैंगिक जनन-चक्र 
  2. बीजाणुजनन 


(1) लैंगिक जनन-चक्र (Sexual Cycle)

(क) युग्मकजनन (Gametogenesis or Gametogony) : मच्छर के आमाशय में मुक्त होने के बाद, गैमीटोसाइट्स युग्मकजनन द्वारा युग्मक कोशिकाएँ (gametes or sex cells) बनाते हैं-

(i) नर युग्मकजनन (Spermatogenesis) 

1.  प्रत्येक माइक्रोगैमीटोसाइट का केन्द्रक अर्धसूत्रण (meiosis) द्वारा 6 से 8 एकगुण ( haploid) सन्तति केन्द्रकों में बँट जाता है जो कि इसकी सतह के पास आ जाते हैं। 

2.  अब गैमीटोसाइट का अधिकांश कोशिकाद्रव्य भी इन केन्द्रकों के चारों ओर एकाग्र टुकड़ों में बँट जाता है। 

3.  अन्त में प्रत्येक सन्तति केन्द्रक के चारों ओर का कोशिकाद्रव्य अकस्मात् एक 20 से 25u लम्बे, चाबुक जैसे प्रवर्ध के रूप में गैमीटोसाइट की सतह पर उभर आता है। इस प्रक्रिया को बहिः कशाभन (exflagellation) कहते हैं। 

4.  इसके फलस्वरूप गैमीटोसाइट स्वयं बहुत छोटा, लगभग आधा ही रह जाता है। इसके ये प्रवर्ध ही शुक्राणु (sperms) या नर युग्मक (male gametes) होते हैं। इन्हें लघुयुग्मक (microgametes) भी कहते हैं। 

5.  कशाभ (flagellum) की भाँति हिल-डुलकर ये गैमीटोसाइट से पृथक् हो जाते हैं और मच्छर के आमाशय की गुहा में इधर-उधर रेंगते हैं।


(ii) मादा युग्मकजनन (Oogenesis) : प्रत्येक मैक्रोगैमीटोसाइट के युग्मकजनन में दो नन्हीं कोशिकाएँ अर्थात् लोपिकाएँ (polar bodies) इसमें से बाहर निकल जाती हैं और यह स्वयं एकगुण डिम्बाणु अर्थात् मादा युग्मक (ovum or female gamete) बन जाता है। इसे दीर्घयुग्मक (macrogamete) भी कहते हैं।



(ख) निषेचन (Fertilization) 

1.  प्रत्येक डिम्बाणु का केन्द्रक इसकी सतह के पास आ जाता है। 

2.  यहीं डिम्बाणु की सतह पर एक छोटा-सा प्रवेश शंकु (cone of reception) उभर आता है। ज्योंही कोई शुक्राणु प्रवेश शंकु के सम्पर्क में आता है यह इससे चिपक जाता है और हिल-डुलकर डिम्बाणु में घुस जाता है। 

3.  डिम्बाणु में दोनों का कोशिकाद्रव्य घुल-मिल जाता है और इनके केन्द्रक परस्पर मिलकर एक द्विगुण (diploid) युग्मकेन्द्रक या सिन्कैरिओन (synkaryon) बना लेते हैं। 

4.  नर व मादा गैमीट्स तथा इनके केन्द्रकों के परस्पर समेकन की प्रक्रिया को युग्मकसंलयन (syngamy) या डिम्बाणु का निषेचन कहते हैं। 

5.  मच्छर में नर व मादा गैमीट्स की विभिन्नता के कारण युग्मकसंलयन विषमयुग्मकी (anisogamous) होता है। 

6.  इस प्रकार, मच्छर के आमाशय में अनेक गोल से एवं अचल युग्मनज अर्थात् जाइगोट्स (zygotes) बन जाते हैं। ये मच्छर द्वारा रक्त चूसने के लगभग 9-10 घण्टों बाद बनते हैं।



(ग) उत्तरयुग्मनज प्रावस्था (Postzygotic Stage) 

1.  कुछ समय तक अचल रहने के बाद प्रत्येक युग्मनज अर्थात् जाइगोट में एक ओर एक कूटपाद जैसा प्रवर्ध बन जाता है तथा कुछ अन्य परिवर्तनों के कारण 9-10 घण्टों में ही यह लगभग 15 से 20pp लम्बा एवं 3u चौड़ा कृमि-सदृश (worm-like) जीव बन जाता है जिसे 'चलयुग्म या ओअकिनीट (ookinete) अथवा कृमक या वर्मीक्यूल (vermicule) कहते हैं। 

2.  कृमक में केन्द्रक मध्य भाग में, कोशिकाद्रव्य सघन और अनेक माइटोकॉण्ड्रिया, राइबोसोम्स तथा दो या अधिक छोटी रिक्तिकाएँ होती हैं। 

3.  हीमोज्वॉएन की भूरी कणिकाएँ सब एक सिरे के पास होती हैं। अतः दूसरे सिरे का भाग हल्के रंग का होता है। तरंगित संकुचनों, ऐंठनों एवं मरोड़ों द्वारा चलयुग्म आमाशय में इधर-उधर कुलबुलाता रहता है। 

4.  ज्योंही इसका हल्के रंग का सिरा आमाशय की दीवार के सम्पर्क में आता है, यह इसमें धँसने लगता है। 

5.  इसी सिरे पर कृमक एक जैली जैसे पदार्थ का स्रावण करता है जिससे आमाशय की दीवार में धँसना सुगम हो जाता है। 

6.  दीवार में, इसके सबसे बाहरी, पेरिटोनियम स् के ठीक नीचे पहुँचकर, कृमक फिर से गोल युग्मनज अर्थात् जाइगोट बन जाता है और 8-10p व्यास के एक कोष्ठ (cyst) में बन्द हो जाता है। कोष्ठ की दीवार महीन, लचीली एवं अर्धपारगम्य होती है। 

7.  इसका निर्माण युग्मनज अर्थात् जाइगोट एवं आमाशय की दीवार मिलकर करते हैं। परिकोष्ठित (encysted) युग्मनज अर्थात् जाइगोट को युग्मक-पुटी या ओस्टि (oocyst) कहते हैं। 

8.  20 से 500 तक ऐसी पुटियाँ संक्रमित मादा ऐनोफेलीज के आमाशय की बाहरी सतह पर, फुन्सीनुमा उभारों के रूप में रक्तपान के 1-2 दिन बाद, दिखाई देने लगती हैं।




(2) बीजाणुजनन (Sporogony)

1.  आमाशय की दीवार से पोषक पदार्थ ग्रहण करके युग्मक-पुटियाँ 5-6 गुनी बड़ी हो जाती हैं। 1-2 दिन बाद, प्रत्येक पुटी का युग्मनज अर्थात् जाइगोट, अपना पोषण बन्द करके, अलैंगिक बहुविभाजन करने लगता है। अतः इसे अब बीजाणुजनक या स्पोरॉण्ट (sporont) कहते हैं। 

2.  इसका केन्द्रक सूत्री अर्थात् मिटॉटिक (mitotic) विभाजनों द्वारा, 2-3 दिन में ही, लगभग 10,000 सूक्ष्म सन्तति केन्द्रकों में बँट जाता है। इसी बीच, पोषण बन्द हो जाने के बावजूद, पुटी निरन्तर फूलकर बड़ी होती जाती है, क्योंकि इसके कोशिकाद्रव्य में कई अनियत आकार की बड़ी-बड़ी अकुंचनशील रिक्तिकाएँ (vacuoles) बन जाती हैं। 

3.  सन्तति केन्द्रक रिक्तिकाओं के किनारे-किनारे सज जाते हैं और प्रत्येक के चारों ओर थोड़ा सा कोशिकाद्रव्य एकाग्र हो जाता है। अगले 2-3 दिन में प्रत्येक के चारों ओर का कोशिकाद्रव्य, तकवे के आकार की संरचना का रूप लेकर, निकटवर्ती रिक्तिका में लटक जाता है। 

4.  इन्ही नन्हीं संरचनाओं को बीजाणुज या स्पोरोज्वॉएट्स (sporozoites) और इनके बनने की प्रक्रिया को बीजाणुजनन कहते हैं। 

5.  युग्मक-पुटी का व्यास इस समय लगभग 50-60´ होता है। इसके भीतर, स्पोरोज्वॉएट्स कोशिकाद्रव्य से स्वतन्त्र होकर रिक्तिकाओं में भरने लगते हैं। अन्त में इनके दबाव से पुटी फट जाती है और ये मच्छर की देहगुहा में मुक्त होकर देहगुहीय द्रव्य (haemocoel) में उतराने लगते हैं।
 
6.  मच्छर की लार ग्रन्थियों (salivary glands) के सम्पर्क में आने पर ये इनमें घुसकर लार नलिका में बस जाते हैं। ऐसी संक्रमित मादा मच्छर जब भोजन के लिए मनुष्य का रक्त चूसती है तो बहुत से स्पोरोज्वॉएट्स इसकी लार के साथ मनुष्य के रक्त में चले जाते हैं।



पहले ऐसा समझा जाता था कि बीजाणुजनन में युग्मक-पुटी का कोशिकाद्रव्य पहले कुछ छोटे-छोटे पृथक् खण्डों में बँटता है और फिर प्रत्येक खण्ड में बीजाणुज बनते है। इन खण्डों को स्पोरोब्लास्ट्स (sporoblasts) या जोइटोब्लास्ट्स (zoitoblasts) कहा जाता था। यद्यपि कुछ पुस्तकों में अब भी इनका वर्णन किया जाता है, परन्तु वास्तव में इनके बनने का कोई ठोस प्रमाण नहीं है।



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